(अजय इप्टा और मैं और यादों के झरोखों से – मेरे और अजय के संस्मरण एक साथ इप्टा रायगढ़ के क्रमिक इतिहास के रूप में यहाँ साझा किये जा रहे हैं। अजय ने अपना दीर्घ संस्मरणात्मक लेख रायगढ़ इकाई के इतिहास के रूप में लिखा था, जो 2017 के छत्तीसगढ़ इप्टा पर केंद्रित रंगकर्म के विशेष अंक में छपा था। 1997 में संजय उपाध्याय और सुमन कुमार ने ‘गगन घटा घहरानी ‘ तैयार करवाया था। वर्कशॉप के बाद संजयभाई ने जाते-जाते हमसे कहा था कि इस नाटक के दिल्ली में भी शो करवाता हूँ। उन्होंने अपना वादा निभाया और इप्टा रायगढ़ को लगातार दिल्ली के अलावा अन्य शहरों में भी शो दिलवाये। हमारे सामने प्रोफेशनल थिएटर की एक नई दुनिया खुल गई। संजय भाई और सुमन भाई के साथ ‘गगन घटा घहरानी’ के विभिन्न जगहों पर मंचनों का ‘बतकही’ विवरण इस कड़ी का विषय है। दोनों से हमारा बहुत आत्मीय भाईचारा जो 1997 में बना, वो आजतक बरक़रार है। अजय के संस्मरण की इस पाँचवीं कड़ी में मैंने बहुत छोटे छोटे तथ्यात्मक वाक्य बस जोड़े हैं। )
मैराथन शिविरों से हम भी थक चुके थे, कुछ दिन आराम करना चाहते थे। इस बीच बाल श्रमिक परियोजना में तैयार नाटकों के मंचन करने में योगेन्द्र, टिंकू, युवराज, कृष्णा, सुगीता आदि साथी एक महीना व्यस्त रहे। उन्होंने गाँव-गाँव जाकर नाटक का मंचन किया। बाकी लोग इस बीच अपने को व्यवस्थित करने में लगे रहे। बरसात आने के कारण गतिविधियाँ भी थोड़ी थम सी गई थीं।
तभी चक्रधर समारोह की तैयारियाँ शुरु हो गईं। उस समय गणेश कछवाहा और जगदीश मेहर जी इसके कर्ताधर्ता थे। उन्होंने हमसे पूछा तो हमने ‘गगन घटा घहरानी’ के लिए कहा। उन्होंने नाटक देखा था सो सहर्ष स्वीकृति दे दी।
एक बात और हुई। हमने उन्हें बतलाया कि विवेचना जबलपुर की उपासना सिंह, जो चक्रधर महाराज की नातिन भी थी, उन्होंने एक कत्थक बैले तैयार किया है। इस समारोह में उसे भी बुलाया जाना चाहिए। आखिर उन्हीं के परनाना की याद में यह समारोह होता है। वे लोग सहर्ष मान गए और उन्हें भी आमंत्रित किया गया।
इस शिविर से एक फायदा यह हुआ था कि नीतू पंत, भारती पंत, अपर्णा, अर्पिता के अलावा सुगीता, अंजलि, मीना दीदी, उग्रसेन पटेल, चुन्नू चतुर्वेदी आदि संगीत के जानकार लोग मिल गये थे। ये सब लक्ष्मण संगीत महाविद्यालय के विद्यार्थी थे, चूँकि योगेंद्र भी वहाँ का विद्यार्थी था, इसलिए ये लोग भी जुड़ गये और रम गये। इस बीच पूनम श्रीवास, जो प्रमुख कथागायकों में था, वह पढ़ने के लिए खैरागढ़ चला गया तथा अर्पिता और अपर्णा किसी पारिवारिक वजह से कुछ दिनों तक नाटक नहीं कर पाईं, तब सुगीता को स्टेज पर उतरने के लिए कहा। वह हिचकिचाती रही मगर फिर तैयार हो गई।
चक्रधर समारोह के लिए रिहर्सल शुरु हो गई। एक दिन दोपहर को मैं इंश्योरेंस ऑफिस में बैठा था, अचानक वहाँ सुमनभाई पहुँचे। मैं आश्चर्यचकित रह गया। पता चला कि वे प्रसिद्ध नृत्यांगना भास्वती मिश्रा जी के ग्रुप के साथ आए हैं लाइट करने के लिए। भास्वती जी धर्मवीर भारती की ‘कनुप्रिया’ लेकर आई थीं।
शाम को टाउन हॉल में रिहर्सल के दौरान सबकी मुलाकात हुई। सब बेहद उत्साहित थे सुमनभाई से मिलकर। फिर उन्हीं के सामने रन थ्रू हुआ। उस दिन रन थ्रू कुछ उखड़ा-उखड़ा सा हुआ। सुमनभाई ने हँसकर कहा कि अच्छा नहीं कर रहे हो। फिर टिप्स दी थीं कि अगर अपने को रिपीट ही करना हो तो रिहर्सल की ज़रूरत ही क्या है! हर रिहर्सल में कुछ नया खोजो तो रिहर्सल का मतलब है। उन्होंने बताया कि दिल्ली में शो करवाने का प्रयास चल रहा है, जल्द ही अच्छी खबर मिलेगी। रिहर्सल के बाद हम नीचे उतरकर मैदान में आ गये। चक्रधर समारोह शुरु होने वाला था। भीड़ हो गई थी। पूरा पंडाल भर गया था। हमने बताया कि इस समारोह के साथ ही दर्शक आने लगते हैं, जो जनवरी-फरवरी तक चलते हैं। गर्मियों में दर्शक फिर नहीं आते। सुमनभाई दर्शकों की तादाद देखकर खुश थे।
दूसरे दिन विवेचना जबलपुर की टीम लेकर नवीन चौबे आ गए। शाम को हमारी रिहर्सल देखी। फिर हम सब धर्मशाला पहुँचे, जहाँ टीम रूकी थी। गणेश कछवाहा जी भी वहाँ आए थे। बात चली, उन्हें हमारे नाटक के एक पीस से शिकायत थी, जहाँ कोतवाल का मज़ाक उड़ाते हुए हम फिल्मी गाना गाते थे ‘‘रूप सुहाना लगता है, चाँद पुराना लगता है….हौले हौले हौले…’’ गणेश का कहना था कि इस फिल्मी धुन को हटा देना चाहिए। नवीन चौबे ने समझाया कि इसके ठीक पहले एक क्लासिकल धुन में गाना गाते हैं इसलिए ज़्यादा गरिष्ठ न हो इसलिए इसे गिमिक की तरह इस्तेमाल किया गया है। मुझे तो अच्छा लगा। गणेश जी चुप हो गये पर सहमत नहीं हो पाए। दूसरे दिन विवेचना द्वारा कत्थक बैले किया गया तथा तीसरे दिन हम लोगों का नाटक ‘गगन घटा घहरानी’ का मंचन हुआ। मंचन बेहद सफल रहा। जगदीश मेहर जी ने कहा कि इसका मंचन दिल्ली और भोपाल में करवाने की मैं कोशिश करूँगा।
इस बीच हम लोग रिहर्सल करते रहे और सुमनभाई की टिप्स पर अमल कर लगातार कुछ नया करने की कोशिश करते रहे, म्युज़िक को लेकर, मूवमेंट्स को लेकर या फिर प्रॉपर्टी को लेकर। बाँस के डंडों की जगह हम लोगों ने तेंदू की लाठियों का जुगाड़ किया। टिंकू ने कोतवाल का हेडगियर नए ढंग से बनाया। उसका गाउन भी नए प्रकार का बना तथा कुछ कपड़ों का इस्तेमाल भी अलग ढंग से शुरु किया। इस बीच उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र के दिल्ली कार्यालय ने मध्यप्रदेश को ध्यान में रखकर एक नाट्य महोत्सव की योजना बनाई। संजयभाई ने हमारा नाटक लगवाया और पूछा कि मध्यप्रदेश की और कौनसी टीम हो सकती है। हमने विवेचना जबलपुर का ‘निठल्ले की डायरी’ सुझाया और बंसीदादा ने नटबुंदेले भोपाल का ‘चंदा बेडनी’। इसतरह तीन नाटकों का महोत्सव दिल्ली में तय हो गया। संजयभाई के विशेष प्रयासों से हमें कुल चार शो मिले, जिसमें एक शो एनएसडी में भी करना था।
सभी बेहद उत्साहित थे। पहली बार दिल्ली जाकर शो करने का मौका मिला था, जिसमें पैसे भी मिलने वाले थे। तैयारियाँ शुरु हो गई थीं। म्युज़िक पिट के लोगों के लिए ड्रम, नाल, हारमोनियम के लिए बैग बनवाए, डंडों के लिए अलग बैग बनवाए, छत्तीसगढ़ी गहने खरीदे गये क्योंकि संजयभाई का निर्देश था कि नाटक में छत्तीसगढ़ की झलक दिखनी चाहिए। डांस के कुछ स्टेप्स छत्तीसगढ़ी के नीतू पंत ने उत्साह से सिखा दिये थे। बैक स्टेज करने के लिए अर्पिता, अपर्णा और सुरेन्द्र ठाकुर भी जाने वाले थे। सितम्बर के अंतिम सप्ताह में आखिर 32 सदस्यीय टीम दिल्ली के लिए रवाना हुई। दूसरे दिन जब गाड़ी आगरा पहुँची, तो अचानक सुमनभाई हमारे डिब्बे में चढ़े और कहने लगे कि यहाँ आज ताजमहल देखने आया था, वापसी में तुम लोगों से मुलाकात हो गई। मगर हम समझ गए थे कि सुमनभाई तय करके ही हम लोगों के साथ जाने के लिए आगरा आए थे। गाड़ी जब दिल्ली पहुँची तो स्टेशन पर संजयभाई भी लेने पहुँच गए थे। शाम के सात बज गए थे। हमारे लिए बस लगी थी। सारा सामान डालकर हमें ‘टूरिस्ट हट’ पहुँचाया गया। खाने की व्यवस्था वहीं थी। कैम्पस बहुत बड़ा था। खाना वगैरह हो जाने के बाद संजयभाई ने समय बता दिया था कि दस बजे तक सब तैयार हो जाएँ, एक रन थ्रू करेंगे और एनएसडी चलेंगे।
सुबह सब तैयार हो गए थे। एक रन थ्रू हुआ, हम बस में बैठे और सीधे एनएसडी पहुँचे। हमें पहले ही बता दिया गया था कि हर चीज़ समय पर होनी चाहिए। जल्दी जल्दी मेकअप कर हम मंच पर उतरे। शो अच्छा हुआ। शो खत्म होने पर एनएसडी के छात्रों का एक ग्रुप ग्रीन रूम में पहुँच गया, यह देखने कि सीता के रोल में लड़का था या लड़की! इस रोल को दिवाकर करता था, उसके लिए यह एक तरह का कॉम्प्लीमेंट था।
इसके तुरंत बाद हम बस से कनाट प्लेस निकल गए। शाम को कनाट प्लेस के गार्डन में शो था। वहीं जो कुछ मिला, सबने खा-पी लिया। यह हमारे लिए दहला देने वाला अनुभव था। इतने विशाल खुले मंच पर हमने कभी नाटक नहीं किया था। हमारे सारे कम्पोजिशन गड़बड़ा रहे थे। गाने मंच के बीच में ही खत्म हो जा रहे थे। तभी अचानक रामकुमार अजगल्ले बीच मंच पर कूदकर आ पहुँचा ‘‘नाथ बोले अमृत वाणी’’ का उद्घोष करता हुआ। कोतवाल की सवारी निकली हुई थी। कोतवाल के रोल में टिंकू देवांगन पसोपेश में पड़ गया क्योंकि अजगल्ले की एंट्री ही नहीं थी। स्थिति सम्हालने के लिए कोतवाल के रूप में टिंकू ने उसे डाँटकर भगाना चाहा। मगर अजगल्ले उल्टे उसपर चढ़ बैठा। तभी अचानक जोर से बारिश शुरु हो गई और नाटक बंद करना पड़ा। आयोजकों ने सभी से निवेदन किया कि अगले दिन आजाद भवन आएँ और नाटक देखें। हम बच गए। भींगने से कुछ लोगों के गले खराब हो गए थे।
दूसरे दिन आज़ाद भवन पहुँचे। शाम को शो था। एक रन थ्रू किया। वहाँ का एकॉस्टिक्स बहुत ही अच्छा था इसलिए योगेंद्र का गला खराब होने के बावजूद उसे कम तकलीफ हुई गाने में। शो अच्छा रहा। तीसरे दिन सुबह का शो था सरदार पटेल विद्यालय में। रात गुजरने के बाद पिंटू और सुगीता के गले और खराब हो गए थे। स्थिति यह थी कि दो लोग गरम पानी लेकर विंग्स में खड़े हुए थे और मौका मिलते ही दोनों गरारे कर लेते थे। नाटक खत्म हुआ और कर्टन कॉल में जिसतरह तालियाँ बजीं, हम उत्साहित हो गए। बाद में हमें बताया गया कि यहाँ के बच्चों को तालियाँ बजाने की मनाही है। बावजूद इसके यहाँ बच्चों ने तालियाँ बजाईं। उनके द्वारा नाटक को बहुत पसंद किये जाने का सर्टिफिकेट ही था यह।
इसतरह दिल्ली में चार शो करके बहुत से अनुभवों को लेकर हमारी टीम वापस लौटी। पहला अनुभव था कि किसी भी समय, सुबह, दोपहर, शाम को मंचन किया जा सकता है। दूसरा अनुभव था कि दो शो के बीच कपड़े प्रेस करवाने का प्रबंध ज़रूर कर लेना चाहिए। संजयभाई ने एनएसडी के धोबी को बुक कर लिया था। वह हर शो के बाद आकर कॉस्ट्यूम ले जाता था और अगले शो के दो घंटे पहले लाकर पहुँचा जाता था। इसतरह प्रोफेशनलिज्म की कुछ बातें हमने सीखीं।
वापस आने के बाद पहली बार अब हम लोगों के पास पूँजी इकट्ठी हो गई थी। सबका मानना था कि कुछ पैसे कलाकारों को दिये जाने चाहिए। तो पहली बार हरेक व्यक्ति को चार सौ रूपये दिये गये। बाकी इप्टा के अकाउंट में डाल दिये गये। इसके बाद एक शो राजेन्द्र तिवारी के गाँव खैरपुर में किया। शो अच्छा हुआ मगर उसके बाद यह महसूस होने लगा कि बिना पैसे वाले शो में लोगों की रूचि कम होती जा रही है। मीटिंग बुलाकर खुली चर्चा की गई और इप्टा के उद्देश्यों के प्रति सबको पुनः अवगत कराया गया। साथ ही यह तय किया गया कि अब कभी किसी कलाकार को पैसे नहीं दिये जाएंगे। पैसे हमेशा इप्टा के अकाउंट में ही जमा किये जाएंगे। क्योंकि प्रतिवर्ष होने वाले वर्कशॉप में पैसे खर्च होते हैं और प्रशिक्षण का तो किसी से शुल्क नहीं लिया जाता।
इस बीच संजय उपाध्याय के एक मित्र ने बालाघाट में तीन दिनी नाट्योत्सव में हमें आमंत्रित किया। बालाघाट की यात्रा के दौरान ट्रेन एक्सिडेंट के कारण हम दुर्ग ही पहुँच पाए। वहाँ से जैसे-तैसे तीन गाडियों में सात घंटे का सफर कर बालाघाट पहुँचे। वहाँ बारिश हो जाने के कारण बहुत अव्यवस्था थी। खुले मंच की जगह एक हॉल में मंच बनाया जा रहा था। हमने उसी हॉल में एक रन थ्रू किया ताकि स्पेस से तादात्म्य हो सके। गाने की रिहर्सल हुई। संजयभाई ने फिर कुछ बदलाव कर दिये थे। उनकी यह आदत रही है कि वे अंतिम समय तक बदलाव करते रहते हैं। पहले हम लोगों को दिक्कत होती थी मगर अब मज़ा आने लगा था। अब तो हम स्वयं भी लगातार बदलाव करते रहते हैं। रात को शो हो गया। सुबह मालूम हुआ कि रूट क्लियर हो गया है। इसलिए तयशुदा रास्ते से लौटने के लिए हम गोंदिया पहुँचे। वहाँ रायगढ़ के लिए आनेवाली ट्रेन दो घंटे लेट थी। बैठे बैठे किसी ने कहा कि चलो कबीर के गाने गा लेते हैं तो दूसरे ने कहा कि पूरा नाटक ही कर लेते हैं। हमने पूरा नाटक ही रेल्वे प्लेटफॉर्म पर खेल दिया। अच्छी-खासी भीड़ हो गई थी। गाड़ी आने पर लोगों ने हमें बहुत उत्साह के साथ जगह दी। यह हमारे लिए एकदम नया अनुभव था। इसके बाद तो यह सिलसिला ही बन गया कि जहाँ भी गाड़ी बदलना हो या वक्त हो, हम एक मंचन कर लेते थे।(क्रमशः)