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यादों के झरोखों से : छह

यादों के झरोखों से : छह

(अजय इप्टा और मैं और यादों के झरोखों से – मेरे और अजय के संस्मरण एक साथ इप्टा रायगढ़ के क्रमिक इतिहास के रूप में यहाँ साझा किये जा रहे हैं। अजय ने अपना दीर्घ संस्मरणात्मक लेख रायगढ़ इकाई के इतिहास के रूप में लिखा था, जो 2017 के छत्तीसगढ़ इप्टा पर केंद्रित रंगकर्म के विशेष अंक में छपा था। 1997 में संजय उपाध्याय और सुमन कुमार द्वारा तैयार ‘गगन घटा घहरानी ‘ के कई शो उस वर्ष और उसके बाद भी होते रहे। 3 से 8 जनवरी 1998 चौथा नाट्य समारोह आयोजित हुआ। उसकी तैयारी और राष्ट्रीय स्तर के नाट्य समूहों का आना तथा उनके साथ इंटरेक्शन इप्टा रायगढ़ के अगले पड़ावों के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है। अजय ने एन. के. शर्मा के नाटक में पहली बार लाइट किया था और एन. के. ने उसकी तारीफ़ करते हुए उसे एक दीवार घडी भेंट की थी, अजय इस अनुभव से बहुत गदगद हुआ था। एन. के. शर्मा के एक्ट वन थिएटर ग्रुप दिल्ली और बंसी कौल के रंग विदूषक भोपाल द्वारा अगले कई नाट्य समारोहों में अनेक नाटक खेले गए। रायगढ़ इप्टा के नाट्य समारोहों के प्रारंभिक दौर में हम टीमों को जूट मिल धर्मशाला में ठहराते थे। वहां के मैनेजर साहब भी हम सबकी दिल खोलकर मदद करते थे। बहुत कम सुविधाओं के साथ इप्टा के इतर नाट्य दलों के संजय उपाध्याय, एन. के. शर्मा, अंजना पुरी, फरीद बज़्मी आदि भी बिना किसी शिकायत के रहते थे और सभी टीमों के कलाकारों के साथ भरपूर इंटरेक्शन होता था। अजय के संस्मरण की इस छठवीं कड़ी में इन्हीं बातों का वर्णन है। इसमें मैंने बहुत छोटे छोटे तथ्यात्मक वाक्य बस कोष्ठक में जोड़े हैं। )

वापस आने के बाद हम सभी नाट्योत्सव की तैयारी में लग गए। हमारे दानदाता अब लगभग तय हो गये थे। सभी को हम दीपावली की शुभकामनाओं सहित आगामी नाट्योत्सव की सूचना पत्र से भिजवा देते थे। उसके बाद हम रोज शाम को मोहल्लों और बाजारों में चंदा लेने निकल जाते थे।(हमने चंदा लेने का सांस्कृतिक तरीका अख़्तियार किया था। हम किसी भी मोहल्ले के चौक या खुले मैदान में ढोलक और डफली के साथ जनगीत गाते थे, इससे हमारे दानदाताओं को हमारे आने का पता चल जाता था। पहले तीन नाट्य समारोहों में रायपुर, जबलपुर के नाटक सम्मिलित हुए ही थे, मगर इस बार पहली बार दिल्ली और भोपाल के राष्ट्रीय कहलाये जाने वाले नाट्य दल भी शामिल किये जाने की कोशिश की गयी।)

इस बार संजय उपाध्याय से चर्चा हुई कि दिल्ली की ऐसी कोई टीम बताएँ, जो सिर्फ आने-जाने के खर्च पर नाटक कर सके। संजय ने एक्ट वन के एन.के.शर्मा जी का नंबर दिया। वे ‘द ग्रेट इंडियन शो’ लेकर आने के लिए तैयार हो गए। इधर बंसीदादा से भी बात हो गई और वे भी अपने दो नाटक ‘बेढब थानेदार’ और ‘समझौता’ भेजने के लिए सहमत हो गए। जबलपुर विवेचना ने ‘ईसुरी’ और मिर्ज़ा मसूद ने ‘जिन लाहौर नहीं देख्या’ के लिए सहमति दी। इस नाट्योत्सव का नामकरण हमने ‘कबीर और उनकी परम्परा’ किया था। पहले दिन हमारा नाटक ‘गगन घटा घहरानी’ था। उसी दिन दोपहर को एन.के.शर्मा अपनी टीम के साथ आने वाले थे। उद्घाटन वे ही करने वाले थे। परंतु उनकी ट्रेन छै-सात घंटे लेट हो गई थी। (बाकी हम सब मंच पर अभिनय कर रहे थे), सो रवीन्द्र चौबे और प्रमोद सराफ को उनकी अगवानी करने की जिम्मेदारी सौंपकर हम अपने शो के लिए ऑडिटोरियम चले गए। शो खत्म कर जब हम धर्मशाला पहुँचे तो वहाँ सन्नाटा छाया हुआ था। प्रमोद और रविन्द्र से पता चला कि टीम खाना खाकर सोने चली गई है। टीम के लड़कों ने रसोइये के साथ सब्जी-सलाद काटकर मज़े से खाना खाया था।

दूसरे दिन सुबह जब हम धर्मशाला पहुँचे तो शर्मा जी नाश्ता वगैरह करके तैयार खड़े थे। बड़ी गर्मजोशी के साथ मिले। संजयभाई ने उनके बारे में बतलाया था कि शर्मा जी बहुत कड़े हैं और गाली-गलौज भी करते हैं। पर मिलने के बाद ऐसा महसूस नहीं हुआ। उन्होंने सबसे पहले ऑडिटोरियम देखने की बात की। देखने के बाद उन्होंने बहुत सी चीज़ों की डिमांड की।

चूँकि पिंटू को स्टेज का जिम्मा दिया गया था सो पिंटू उन्हें गाड़ी में बिठाकर सीधे शर्मा टेंट हाउस ले गया। (इस बात का उल्लेख करना बहुत ज़रूरी है कि इप्टा रायगढ़ के लगभग सभी मंचनों और नाट्य समारोहों में शर्मा टेंट हाउस के उपेंद्र भैया का अमूल्य योगदान रहा है। उन्होंने कभी अपने बिल के लिए हम पर दबाव नहीं डाला, बल्कि हमारे द्वारा बनवायी गयी सीढ़ियाँ वगैरह अपने गोडाउन में रखवा भी लेते थे। इप्टा रायगढ़ के इस लम्बे सफर में उपेंद्र भैया के योगदान को सलाम ! ) उपेन्द्र भैया ने अपना गोडाउन खोलकर उनके हवाले कर दिया और कहा कि जो भी सामान चाहिए, बता दीजियेगा, ऑडिटोरियम पहुँच जाएगा। बहुत से टेबल टॉप, स्टेप्स, मैट आदि उन्होंने सिलेक्ट किये और सामान पहुँच गया। सिर्फ एक ही चीज़ नहीं मिल रही थी। शर्मा जी स्टूल के बदले पेड़ का कटा हुआ तना चाहते थे। पिंटू उन्हें लकड़ी टाल भी ले गया। मगर रविवार होने के कारण वह बंद था। शर्मा जी ने कहा कि जाने दो, कुछ अलग युक्ति निकालेंगे।

हम ऑडिटोरियम पहुँचे तब तक मंच तैयार हो चुका था। पहली बार मंच पर मैट लगने से उसका ‘लुक’ ही बदल गया था। स्टेज रिहर्सल शुरु करने से पहले ही शर्मा जी ने लाइट करने की जिम्मेदारी मुझे दे दी थी क्योंकि उनका लाइट डिज़ाइनर नहीं आ पाया था। अपनी रिहर्सल में उन्होंने हममें से कुछ ही लोगों को बैठने दिया और ऑडिटोरियम बंद कर दिया गया। मैं भी कॉपी-पेन लेकर बैठ गया ताकि नोट करके रख सकूँ। रिहर्सल चालू हुई और अचानक पाँच मिनट बाद एक लड़की से मूव्हमेंट में गलती हो गई। अचानक पीछे से आवाज़ गूँजी, ‘‘बास्टर्ड, व्हॉट द हेल यू आर डूइंग?’’ और दौड़कर स्टेज पर पहुँचे, चिल्लाते हुए कहा, ‘‘व्हाई यू आर फकिंग द स्पेस?’’ लड़की ‘सॉरी सर’ कहकर चुप हो गई। हम सब सहम ही गए। संजयभाई का कथन याद आ गया। रिहर्सल चलती रही, मैं भी अपने हिसाब से नोट करता रहा। अचानक चुन्नू चतुर्वेदी ने मुझसे कहा, ‘‘भैया, इस बार इनसे वर्कशॉप करवाना चाहिए, अंग्रेजी सीख जाएंगे।’’ जब मैंने शर्मा जी की बातों का हिंदी में अर्थ बताया तो वह भौंचक सा देखने लगा। फिर छत्तीसगढ़ी में कहने लगा ‘‘कुछू कह भइया, अंगरेजी में गारी घलो मीठ लागथे।’’ (अंग्रेजी में तो गाली भी मीठी लगती है।)

रिहर्सल खत्म करने के बाद उनके लिए वहीं खाना भिजवा दिया गया। वे अपने कलाकारों को बार-बार वॉइस प्रोजेक्शन पर ज़ोर दे रहे थे क्योंकि बिना एकॉस्टिक्स के ऐसे ऑडिटोरियम में वे पहली बार प्ले कर रहे थे। हमें याद आया कि हमारे साथ उल्टा हुआ था। दिल्ली के आज़ाद भवन का शो, जहाँ हमने पहली बार बहुत बढ़िया एकॉस्टिक्स वाले ऑडिटोरियम में शो किया था, जहाँ कोई पिन भी गिरने पर उसकी आवाज़ सुनाई देती थी। प्ले शुरु हुआ। शुरुआत में ही टेपरिकॉर्डर फँस गया था। हमने घोषणा कर दी, ‘‘तकनीकी समस्या के कारण नाटक पाँच मिनट बाद शुरु होगा।’’ पुनः टेपरिकॉर्डर शुरु किया गया, नाटक शुरु हुआ और बिना किसी व्यवधान के सम्पन्न हो गया। मोमेंटो लेते वक्त शर्मा जी बहुत भावुक हो गये थे। बाद में उन्होंने कहा कि अगर दिल्ली में ऐसा हो जाता तो नाटक हूट हो जाता। यहाँ के दर्शक बहुत संवेदनशील हैं। रात को धर्मशाला में खाना खाने के बाद सब लोग बैठे। दोनों टीमों में परिचय का आदान-प्रदान हुआ। गीत-संगीत का दौर हुआ। हमने उनसे कहा कि हमारी बड़ी इच्छा थी कि आप हमारा नाटक देखते। तब उन्होंने हमें चौंकाते हुए बतलाया कि मैंने तुम लोगों का एनएसडी वाला शो देखा था तभी तय कर लिया था कि मुझे रायगढ़ आना है।

विवेचना जबलपुर का नाटक ‘ईसुरी’

तीसरे दिन सुबह विवेचना जबलपुर की टीम पहुँची। एक्ट वन ग्रुप जाने की तैयारी कर रहा था। हिमांशु भाई ने पूछा, ‘‘शर्मा जी ने कितना पैसा चार्ज किया?’’ हमने बतलाया कि सिर्फ आने-जाने का खर्च दिया है। हिमांशु भाई को विश्वास नहीं हुआ, कहने लगे कि हमने तो प्रोडक्शन चार्ज भी पच्चीस हजार रूपये देने की बात की थी पर उन्होंने मना कर दिया था। बाद में शर्मा जी से हिमांशु भाई की मुलाकात करवाई, उस समय हिमांशु भाई मध्यप्रदेश इप्टा के अध्यक्ष भी थे। शर्मा जी ने बातों ही बातों में हिमांशु भाई को बताया कि मैंने इनका नाटक एनएसडी में देखा था। इनके काम में ईमानदारी झलकती है इसीलिए मैंने तय किया कि रायगढ़ तो जाना ही है, भले ये खर्च न दे पाएँ।

तीसरे दिन जबलपुर विवेचना के नाटक ‘ईसुरी’ का मंचन हुआ। बहुत ही कलरफुल नाटक था। चौथे दिन मिर्ज़ाभाई का नाटक ‘जिन लाहौर नहीं देख्या’ हुआ। असगर वजाहत का यह बहुत प्रसिद्ध नाटक है। मिर्ज़ाभाई के दूसरे नाटकों की तुलना में यह नाटक उन्नीस बैठता था। इसमें उर्दू का बहुत प्रयोग है और हमारे छत्तीसगढ़ के कलाकारों को थोड़ी परेशानी होती है, फिर भी नाटक दर्शकों द्वारा सराहा गया।

चौथे दिन रंग विदूषक भोपाल की टीम आ गई थी। बंसीदादा तो नहीं आए थे मगर अंजना दीदी, फरीद बज़्मी और संजय उपाध्याय आए थे। पहले फरीद बज़्मी निर्देशित ‘बेढब थानेदार’ व अंतिम दिन संजय उपाध्याय निर्देशित ‘समझौता’ का मंचन था। ये दोनों ही नाटक विदूषकीय शैली, जो रंग विदूषक की खास शैली है, में थे। ये नाटक न केवल हमारे बल्कि रायगढ़ के दर्शकों के लिए भी एक नया प्रयोग थे और बेहद पसंद किये गये। अंजना दीदी के सधे हुए स्वर से हम सब अभिभूत थे। रात में बैठक बहुत लम्बी चली, जिसमें गीत-संगीत चलता रहा। अंजना दीदी, संजय उपाध्याय के साथ हमारे सभी कलाकारों ने गाने गाये और रंगसंगीत का आनंद उठाया। यह महफिल सुबह चार बजे तक चली। दोपहर को टीम विदा हुई। हमारी पूरी टीम स्टेशन पर विदा करने पहुँची थी।

(इस नाट्य समारोह की एक विशेषता यह रही कि अंतिम दिन समापन समारोह के रूप में दर्शकों के साथ बातचीत रखी गयी। भरपूर सवाल पूछे गए, जिनके जवाब इप्टा के संरक्षक मुमताज भारती, संजय उपाध्याय, फरीद बज़्मी, अंजना पुरी और हम सबने मिलकर दिए। प्रस्तुत है पूरे नाट्य समारोह की रिपोर्ट)

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इतनी व्यस्तता के बाद अब सभी को थोड़े विश्राम की ज़रूरत थी इसलिए कुछ दिन गतिविधियाँ शांत रही। कुछ लोग परीक्षा की तैयारी में लग गये। देश में राजनैतिक अस्थिरता भी जारी थी। ग्यारहवीं लोकसभा में गठबंधन का दौर चल रहा था। वाजपेयी जी की अल्पमत वाली सरकार जाने के बाद देवेगौड़ा और गुज़राल की सरकार का ज़माना था। नरसिंहाराव की सरकार ने जो उदारीकरण शुरु किया था, उससे बहुत सी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ आईं फिर वापस चली गईं क्योंकि वातावरण उनके अनुकूल न था। सड़कों का विकास नहीं हुआ था और कम्युनिकेशन की हालत खराब थी। साथ ही प्रशासन की सामंतवादी प्रवृत्ति के कारण लालफीताशाही से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दिक्कत थी।

राजस्थान की अरूणा राय जी का ‘राइट टू इन्फरमेशन’ जोरों पर चल रहा था। मंडल आयोग के कारण कांग्रेस की जमीन खिसक चुकी थी। उत्तर प्रदेश और बिहार में पिछड़ी जातियों की राजनीति उभार पर थी। एनजीओ की भूमिका बढ़ रही थी। हम इस बीच पापा, अमूल्य चौबे सर के साथ टाउन हॉल में चर्चा करने बैठते थे तो इस बात पर भी चर्चा होती थी कि एनजीओ के साथ कहाँ तक चला जा सकता है। किसतरह आईएएस की एकेडमी में अब मैनेजमेंट पढ़ाया जा रहा है। टेलिकॉम सेक्टर पिछड़ा हुआ था मगर टीवी में क्रांति आ गई थी। बहुत से चैनल्स शुरु हो गए थे। आम आदमी का संघर्ष सीरीयलों से गायब होने लगा था। ‘नुक्कड़’ का स्थान ‘खानदान’ लेता जा रहा था। साहित्य में इतिहास के अंत की घोषणा होने लगी थी।

ऐसे समय में कबीर साहब की छै सौ वीं जयंती चल रही थी। कबीर साहब का समय भी कुछ ऐसा ही था। बहुत से पंथ अस्तित्व में थे। ब्राह्मणवाद से टकराहट चल रही थी। कबीर साहब ने भी पिछड़ी जातियों को एकत्र कर एक नई उपासना पद्धति अपनाई थी। इतिहास अपने को फिर एक उच्चतर अवस्था में दोहराता है।

आम चुनावों की घोषणा हो चुकी थी बारहवीं लोकसभा के लिए। इसी बीच उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र से हमें इलाहाबाद में ‘गगन घटा घहरानी’ के मंचन का आमंत्रण मिला। हमारा बिलासपुर से आरक्षण सारनाथ एक्सप्रेस में था। हम रायगढ़ से लोकल गाड़ी में सात बजे बिलासपुर पहुँच गये थे। हमने बिलासपुर इप्टा के साथियों को सूचना दी थी। वे लोग स्टेशन पर आ गये थे। वेटिंग हॉल में उनसे थोड़ी बहुत बातचीत के बाद एक रन थ्रू कर लिया हम लोगों ने। अच्छी खासी भीड़ हो गई थी। दूसरे दिन इलाहाबाद पहुँचे, दोपहर को एक रिहर्सल की, शाम को शो था। बेहद निराशाजनक स्थिति थी। बहुत बड़े ऑडिटोरियम में बमुश्किल 20-30 दर्शक थे। ऐसे में एनर्जी नहीं मिल रही थी। सरकारी कार्यक्रमों में ऐसी उदासीनता नई बात नहीं है। जो दर्शक थे, उनमें से ज़्यादातर समानांतर ग्रुप के साथी थे। वहीं हमें संजयभाई ने बता दिया था कि वे स्कूल की तरफ से रायगढ़ वर्कशॉप लेने आ रहे हैं। हमने तय कर लिया कि चूँकि अगले वर्ष ब्रेख्त की जयंती है इसलिए हम उन्हीं पर वर्कशॉप केन्द्रित करेंगे।

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View Comment (1)
  • हर बार की तरह यादें ताज़ा हो गई.. अजय भैया की फोटो देख मन भर आया.. अब तो उनका काम ही है हमारे बीच

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