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यादों के झरोखों से : आठ

यादों के झरोखों से : आठ

(अजय इप्टा और मैं और यादों के झरोखों से – मेरे और अजय के संस्मरण एक साथ इप्टा रायगढ़ के क्रमिक इतिहास के रूप में यहाँ साझा किये जा रहे हैं। अजय ने अपना दीर्घ संस्मरणात्मक लेख रायगढ़ इकाई के इतिहास के रूप में लिखा था, जो 2017 के छत्तीसगढ़ इप्टा के इतिहास पर केंद्रित रंगकर्म के विशेष अंक में छपा था। 1998 में संजय उपाध्याने बर्तोल्त ब्रेख्त के दो नाटक ‘थ्री पेनी ओपेरा’ और ‘लुकुआ का शाहनामा’ तैयार करवाया, जिसका विस्तृत विवरण अजय ने पिछली कड़ी में दे दिया है। इस कड़ी में लगभग दो वर्षों 1999 और 2000 की समूची गतिविधियों का उल्लेख किया गया है। गतिविधियाँ अपने पूरे शबाब पर थीं। उनमें न केवल नाटक, बल्कि बच्चों और युवाओं के वर्कशॉप – इसके लिए विशेषज्ञों को बाहर से बुलाया जाना, नाट्योत्सवों में नए नाट्यदलों को बुलाया जाना, उनसे इंटरेक्शन के साथ देश के विभिन्न शहरों में नए-पुराने नाटकों के मंचनों में तालमेल बनाये रखने का कौशल इप्टा रायगढ़ ने विकसित कर लिया था।

‘बकासुर’ नाटक की कहानी बड़ी दिलचस्प है। मराठी से हिंदी अनुवाद के बाद पहले 2 – 3 शो हिंदी में ही हुए। मगर बाद में ग्रुप इम्प्रोवाइज़ेशन द्वारा इसे छत्तीसगढ़ी में रूपांतरित किया गया। इसके छत्तीसगढ़ी स्वरुप को त्रुटिरहित बनाने के लिए बिलासपुर से वरिष्ठ रंगकर्मी और छत्तीसगढ़ी के जानकार बद्रीसिंह कटारिया को बुलाकर उनके सामने रीडिंग की गयी और छत्तीसगढ़ी स्क्रिप्ट को फाइनल किया गया। आगे अजय ने लिखा ही है कि, इसमें छत्तीसगढ़ी लोकतत्वों को शामिल करने के लिए किसतरह खैरागढ़ से सुमिरन धुर्वे को बुलाकर प्रशिक्षण लिया गया। इस नाटक के शो न केवल छत्तीसगढ़ के शहरों और गावों में, बल्कि दिल्ली, गया, पटना, उज्जैन, भोपाल आदि शहरों में भी हुए। गावों के शोज़ के लिए तो हम सिर्फ रात के भोजन के ऐवज़ में जाते थे। खरसिया कॉलेज के एनएसएस कैम्प में ग्राम सोण्डका का शो इस मायने में बहुत उल्लेखनीय है कि, वहां शो के बाद एक बुज़ुर्ग ने नाटक में प्रयुक्त घोडानाच का पूरा गाना हमें सिखाया। यूवी बल्ब की रोशनी में जो भूतों का दृश्य गाँव के खुले मंचों पर बनता था, उससे कभी कभी छोटे बच्चे डर भी जाते थे, मगर सबको खूब मज़ा आता था। रायगढ़ के अनेक गाँवों में ‘बकासुर’ के मंचन हुए। इसके पात्र चार-पाँच बार बदले। भीम की भूमिका मधुसूदन, अजय, अमित और मयंक ने की।अन्य चार पांडव भी बदलते रहे। पत्रकार की भूमिका में ज़्यादातर युवराज रहा, बाद में श्याम ने किया। कुंती की भूमिका में मैं, शिबानीदीदी, अपर्णा, भावना और अंचला रहे। पंडवानी गायकों में सुगीता, योगेंद्र, विनोद रहे। 2000 से शुरू हुआ यह नाटक फिर से नयी पीढ़ी के साथ 2019 में भी अजय ने वर्कशॉप लेकर रिवाइव किया, मगर उसके आगे शो नहीं हो पाए। यहीं इस बात का उल्लेख कर दूँ , जब दूसरी बार 2009-2010 में ‘बकासुर’ फिर नयी टीम के साथ उठाया गया, बाबू खान (टीम का बहुत अच्छे उच्चारण और पूरी स्क्रिप्ट याद रखने वाला लड़का, जिसका दो साल पहले बहुत दुखद अंत हुआ, जिसने हम सबको बाहर झकझोरकर रख दिया था।) अड़ गया कि मैं बकासुर का ही रोल करूँगा, क्योंकि नाटक का नाम वही है। अजय उसे दूसरा बड़ा रोल देना चाहता था, मगर उसके तर्क से हम सब हतप्रभ रह गए क्योंकि नाटक में बकासुर के कटआउट के पीछे से सिर्फ उसकी आवाज़ आती है और अंत में लगभग नग्न और घबराई अवस्था में वह दिखता है। मगर जब तक वह नाटक करता रहा, बकासुर के रोल में ही रहा। माफ़ कीजियेगा, इस बार इस संस्मरण में मेरा यह क्षेपक ज़रा ज़्यादा ही फ़ैल गया।- उषा वैरागकर आठले )

जनवरी में थोड़ा आराम करने के बाद हमने ‘बकासुर’ पर काम शुरु किया। रत्नाकर मतकरी लिखित मूल मराठी नाटक का अनुवाद उषा ने हिंदी में कर दिया था। तो इसकी रींडंग शुरु की। तभी मध्यप्रदेश कला परिषद भोपाल से रतलाम और जावरा के लिए नाट्य प्रस्तुति का आमंत्रण मिला। इसके लिए हमने ‘दुलारीबाई’ तैयार करना तय किया। यह नाटक 1996 में अरूण पांडे ने हमें तैयार करवाया था।

गर्मी की छुट्टी में इसके शो होने थे। हम कुल तेरह सदस्य रतलाम-जावरा के लिए निकले। यह हमारी अब तक की सबसे छोटी टीम थी। पहला शो जावरा में हुआ, उसके बाद दूसरा शो रतलाम में हुआ। रतलाम वाले शो में कमलाप्रसाद जी आए थे। वे उस समय कला परिषद के सचिव थे। रतलाम वाले शो में हमें बहुत परेशानी हुई। हमें पहली बार ऐसा मंच मिला जो चौड़ाई में कम और गहराई में ज़्यादा था। इसके विंग्स ठोस सीमेंट से बने थे और पीछे से घूमने के लिए कोई जगह नहीं थी।

वहाँ से लौटकर बच्चों का वर्कशॉप लेना था। हमने ग्रीष्मकालीन बाल नाट्य प्रशिक्षण शिविर प्रति वर्ष आयोजित करना शुरु किया था। इस बार अनुपम पाल और टिंकू देवांगन ने इसे स्थानीय म्युनिसिपल स्कूल और तिलक स्कूल में क्रमशः संचालित किया। दो नाटक तैयार हुए ‘जादू की छड़ी’ और ‘पुस्तकों का विद्रोह’।

इस बार युवाओं के शिविर के लिए यह तय किया गया कि लोकनृत्य पर केन्द्रित किया जाय। खैरागढ़ विश्वविद्यालय के सुमिरन धुर्वे जी से सम्पर्क किया गया।

सुमिरन धुर्वे

सुरेन्द्र ठाकुर, जो उस वक्त वहाँ बी.एफ.ए. कर रहा था, उसके माध्यम से सम्पर्क किया गया। वे तैयार हो गए। वे अपने साथ एक सहायक लेकर आने वाले थे। शिवानी-कल्याणी मुखर्जी लोगों ने अपना घर रिनोवेट किया था और ऊपर रहने चले गए थे। नीचे के कमरे खाली थे। सुमिरन जी को वहीं रूकवाने की व्यवस्था की गई।

यह तय हुआ कि सुबह दस बजे से डेढ़ बजे तक लोकनृत्य का शिविर चलेगा और दोपहर भोजन के बाद अढ़ाई बजे से सात बजे तक नाट्य शिविर चलेगा, जिसमें बकासुर तैयार किया जाएगा। सुमिरन धुर्वे जी के लोकनृत्य प्रशिक्षण हेतु बहुत से नए लोग आए, जो बाद में नाटक से भी जुड़े। मयूरी और प्रभा यादव इसमें नए थे। एस.डी.ओ. फॉरेस्ट के दो किशोरवयीन बच्चे भी शामिल हुए।

पहले इस नाटक ‘बकासुर’ को मराठी की कीर्तनिया शैली में करने की सोची थी पर बाद में इसे नाचा शैली में करना तय किया। चूँकि पांडवों की कथा थी इसलिए पंडवानी का प्रयोग करने की सोची। इसके गीत और धुनें बनाने में सुमिरन धुर्वे जी ने बहुत मदद की। इस बीच सुमिरन जी ने दस लोकनृत्य तैयार करवाए। 7-8 जून को इस शिविर का समापन हुआ। इसका समापन हम लोगों ने मंगलम विवाहघर के खुले मंच पर किया था। पहले दिन लोकनृत्यों का प्रदर्शन हुआ तथा दूसरे दिन ‘बकासुर’ नाटक का मंचन हुआ।

इस वर्ष जब चक्रधर समारोह की मीटिंग बुलाई गई, उस समय अचानक जगदीश मेहर जी ने प्रस्ताव रखा कि कारगिल युद्ध में शहीदों की याद में इस बार समारोह को स्थगित कर दिया जाए और ऐसी सूचना शासन को भेज दी जाए। उन्होंने मीटिंग तुरंत खत्म कर दी। हम लोगों ने विरोध किया, राज परिवार ने भी इस बात का विरोध किया और सभी सांस्कृतिक दलों ने एक मोर्चा बनाकर शासन से पत्र व्यवहार किया। शासन ने समारोह को तय तिथि में करना स्वीकार किया। परंतु चुनाव की घोषणा होने के कारण प्रशासन ने कोई सहयोग नहीं किया। तब हम सबने मिलकर इस समारोह को टाउन हॉल मैदान की जगह राजमहल के सामने चार दिन का करने का निर्णय लिया। दो दिन अलाउद्दीन खाँ संगीत अकादमी का कार्यक्रम, एक दिन ‘बकासुर’ का मंचन और अंजना पुरी का कबीर गायन और अंतिम दिन मुशायरा और स्थानीय लोक कलाकारों का कार्यक्रम हुआ।

चुनाव के कारण समय-सीमा प्रशासन ने बाँध दी थी फिर भी पूरा कार्यक्रम निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हो गया। ‘बकासुर’ की दोपहर को स्टेज रिहर्सल में आसपास के बच्चे उत्सुकतावश आ गये थे इसलिए रात को बड़ी भीड़ उमड़ी। इस समय तक ‘बकासुर’ पूरीतरह छत्तीसगढ़ी में तैयार कर लिया गया था।

इसके बाद चुनावों की गहमागहमी शुरु हो गई। चुनाव सम्पन्न हुए और दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में पुनः कांग्रेस की सरकार बनी। इस बीच पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र ने एक परिसंवाद ‘रंगमंच और नई सदी’ विषय पर आयोजित किया था। देश भर से चुने हुए रंगकर्मी उदयपुर पहुँचने वाले थे। मध्यप्रदेश कला परिषद की ओर से मुझे भेजा गया। उदयपुर में बहुत से लोगों से परिचय हुआ। उषा गांगुली, नादिरा बब्बर, विष्णु वाघ, शशिकांत बुरहानपुरकर से अच्छी दोस्ती हो गई। इन्होंने हमारे नाट्य समारोह में शिरकत करने की इच्छा जाहिर की।

लौटकर सभी साथियों को रिपोर्ट दी। इस बीच हमने समारोह में बढ़ते दर्शकों की संख्या देखकर यह निर्णय लिया कि चक्रधर समारोह की तरह इसे भी टाउन हॉल के मैदान में किया जाए। खर्च बढ़ेगा, मगर ज़्यादा चंदा करके इसकी पूर्ति की जाएगी। तैयारियाँ शुरु हुईं। हम लोग मोहल्ले मोहल्ले निकल जाते, खुली जगह में जनगीत गाते और उसके बाद चंदा मांगते। अब तक हमारे नाट्य समारोह की पहचान बन चुकी थी इसलिए लोगों का भरपूर सहयोग मिल रहा था। समारोह के लिए उषा गांगुली ने वादा निभाया और वे ‘कोर्टमार्शल’ लेकर आईं। शशिकांत ने भी समारोह में भागीदारी निभाई।

इस बीच इप्टा रायपुर से मुक्तिबोध नाट्य समारोह हेतु आमंत्रण आया और तय हुआ कि ‘गगन घटा घहरानी’ खेला जाए। नाटक की रिहर्सल और चंदा दोनों काम साथ-साथ चल रहे थे। 14 नवंबर 1999 को ‘गगन घटा घहरानी’ का रायपुर में शो हुआ। यह अब तक का सबसे अच्छा मंचन साबित हुआ। लौटने के बाद चंदा करते हुए हमने यह तय किया कि इस बार समारोह में अपना नाटक नहीं खेलेंगे और पूरा ध्यान चंदे पर केन्द्रित करेंगे। टीमें तय हो गई थीं। यह भी तय हुआ कि चूँकि स्थान बदल गया है इसलिए शुरुआत में एक सांस्कृतिक रैली निकाली जाए। रंग विदूषक के साथी एक दिन पहले आ गये थे। सो शाम को हमारी टीम, रंग विदूषक की टीम और ग्राम परसदा के करमा दल के लोक कलाकार, जिन्हें राजेन्द्र तिवारी लाया था, अग्रोहा भवन से गाते-बजाते हुए पूरे शहर का भ्रमण कर टाउन हॉल पहुँचे। मंच पर कुछ देर करमा नृत्य हुआ और फिर समारोह का उद्घाटन शशिकांत ने किया। उसके बाद रंग विदूषक का नाटक ‘गधों का मेला’ मंचित हुआ। दूसरे दिन सुबह उषा गांगुली की टीम पहुँची। उन्होंने एक नुक्कड़ नाटक ‘मैयत’ भी लाया था, जिसका मंचन चाँदनी चौक में किया गया। बेहद प्रभावशाली प्रस्तुति थी। उसमें उषा दीदी खुद भी उतरी थीं।

शाम को ‘कोर्टमार्शल’ का प्रदर्शन हुआ। तीसरे दिन ‘सैंया भये कोतवाल’ और फिर ‘मालविकाग्निमित्रम’ और ‘रावण की प्रस्तुति हुई। खुले मैदान में मंच और पंडाल लगाकर किये गये नाट्योत्सव का हमारा प्रयोग सफल रहा। दर्शकों की संख्या में वृद्धि हुई। तकरीबन एक हजार दर्शकों से पंडाल भरा रहा।

इस बीच उड़ीसा में चक्रवाती तूफान आया था और सभी लोग मदद के लिए आगे आ रहे थे। निर्मल घई, देवेन्द्र श्रीवास्तव और चाँदनी चौक के साथियों ने घूम-घूमकर चंदा किया। इप्टा रायगढ़ ने इसमें योगदान के लिए ‘बकासुर’ का मंचन किया। नाटक के अंत में इस राशि को रायगढ़ के तत्कालीन सांसद श्री अजित जोगी को सौंपा गया।

गर्मी की छृट्टियों में फिर बाल नाट्य प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया गया, जो इस बार खरसिया में लगाया गया। इसमें कल्याणी मुखर्जी के संयोजन में टिंकू देवांगन, कृष्णा साव, राजेन्द्र तिवारी, सुगीता, चंद्रदीप, भूपेन्द्र, जितेन्द्र आदि ने सहयोग किया। इसमें लगभग सौ बच्चों से दो नाटक ‘अंधेर नगरी’, ‘नान टिंग टू और परी रानी’ तथा नृत्य नाटिका ‘भूमि’ तैयार करवाए गए।

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देवेन्द्रराज अंकुर

हमारे दिल्ली-प्रवास के दौरान अंकुर जी से मुलाकात हुई। हमने उनसे ‘कहानी का रंगमंच’ पर वर्कशॉप लेने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने दिसम्बर की छुट्टियों में वर्कशॉप लेने की बात कही। हम सहर्ष तैयार हो गए। यहाँ आकर सभी साथियों से बात की। सब तैयार थे। तय हो गया कि 21 दिसम्बर से 02 जनवरी तक वर्कशॉप होगा और 03 को मंचन। सभी बेहद उत्साहित थे। नाट्योत्सव जनवरी में होना था। 1 नवम्बर को नया छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में आ गया। अजीत जोगी प्रथम मुख्यमंत्री बने। उन्हें नाट्योत्सव के उद्घाटन हेतु आमंत्रित करने पापा और निर्मल घई के साथ मैं भी गया। उन्होंने स्वीकृति दे दी थी। 21 दिसम्बर से वर्कशॉप शुरु होने वाला था। मैं और पिंटू अंकुर जी को लेने रायपुर सड़क मार्ग से पहुँचे। लौटने में शाम के चार बज गए थे। अंकुर जी ने सीधे वर्कशॉप में चलने की इच्छा जाहिर की। ‘शुभम’ में सभी साथी इंतजार कर रहे थे। सबसे परिचय के बाद उन्होंने पूछा, ‘‘कितनी कहानियाँ छाँट ली हैं?’’ हम सब बहुत सी कहानियाँ लेकर आए थे। उस दिन चार कहानियों का पाठ हुआ और सबको छुट्टी दे दी गई। वर्कशॉप का समय तीन बजे से सात बजे तक निर्धारित किया गया।

दूसरे दिन और आठ कहानियाँ पढ़ी गईं। फिर चिट डालकर सबको अपनी पसंद की कहानी छाँटने को कहा गया। इस चयन-प्रक्रिया के बाद तीन कहानियाँ तय की गईं। एक कहानी कैलाशचंद्र की ‘हारमोनियम के ऐवज में’ पहले से ही तय थी। उसकी स्वीकृति अंकुर जी ने पहले ही दे दी थी। बाकी तीन कहानियाँ ‘अपना घर’, ‘प्लेटफॉर्म की एक रात’ और ‘अपने मोर्चे पर’ तय हुईं। फिर अंकुर जी ने पूछा कि इन कहानियों को कौन-कौन डाइरेक्ट करना चाहेगा? विनोद ने ‘हारमोनियम के ऐवज में’, युवराज ने ‘अपना घर’, योगेन्द्र ने ‘प्लेटफॉर्म की एक रात’ और अनुपम ने ‘अपने मोर्चे पर’ कहानियाँ चुनीं। अंकुर जी ने कुछ निर्देश दिये कि शब्दों का पूरा सम्मान करना है, टैक्स्ट में कोई बदलाव नहीं होगा। जहाँ लगता है, दृश्य बनाना है, बनाइये। जहाँ लगता है नरेशन करना है, कीजिये। अपने-अपने लिए पात्र छाँट लीजिये और रिहर्सल शुरु कीजिये। कोई परेशानी हो तो मुझसे पूछ लेना। मैं आँगन में बैठा हूँ। परसो मैं पहला ड्राफ्ट देखूँगा। यह कहकर उन्होंने आँगन में एक कुर्सी-टेबल लगवा लिया और कुछ लिखने में व्यस्त हो गए।

हम सब परेशाँ कि क्या करें, अपने में ही जूझते रहे मगर यह अपने तरीके का रचनात्मक आनंद था। सब परेशाँ कि परसो पहला ड्राफ्ट दिखाना है। सब लोगों ने अपनी-अपनी कहानियों के अनुसार पात्र छाँटे। किसी-किसी को एक साथ दो कहानियों में करना पड़ रहा था। अपने-अपने हिसाब से सबने रिहर्सल शुरु कर दी। कोई अगर अंकुर जी से पूछता कि ‘‘क्या ऐसा कर लूँ?’’ जवाब होता, ‘‘तो करिये ना, किसने रोका है!!’’ तीसरे दिन सभी ने अपनी कहानी का पहला ड्राफ्ट दिखलाया। देखने के बाद सभी कहानियों की समीक्षा करते हुए उन्होंने आवश्यक निर्देश दिये। कुछ लोगों ने लेवल्स लगाने चाहे, कुर्सी का प्रयोग करना चाहा, कॉस्टयूम को लेकर सवाल किये। अंकुर जी ने नकार दिया, कहा, ‘‘क्या ज़रूरत है इन सबकी?’’ बाद में उन्होंने लेवल्स के लिए अनुमति दे दी। फिर कहा कि ‘‘दो दिन बाद इसका रन थ्रू दिखाना है, जिसमें शहर के बुद्धिजीवी और साहित्यकार भी उपस्थित रहेंगे। अब छुट्टी।’’ हम सब परेशान, कोई जाने को तैयार नहीं, इतनी जल्दी वर्कशॉप कैसे खत्म हो सकता है? अंकुर जी ने कहा, ‘‘अरे क्यो रूके हैं भाई? जाइये। मैं भी होटल में जाकर आराम करूँगा।

दो दिन बाद पहला रन थ्रू दिखाना था। इस बार अशोक झा सर, प्रभात त्रिपाठी जी, मुमताज भारती और कुछ और बुद्धिजीवी दर्शक मौजूद थे। उनके सामने चारों कहानियों का रन थ्रू हुआ। इसके बाद उनसे चर्चा हुई। अंकुर जी ने कहा, ‘‘देखा तुम लोगों ने, किसी ने भी क्या लाइट के बारे में कहा? कॉस्ट्यूम की चर्चा की? सेट्स पर कुछ कहा? तुम लोगों ने शब्द शक्ति से जो दृश्य खड़े किये, उसी पर चर्चा की। इसीलिए बाकी सारी बातें बेमानी हैं।’’ फिर उन्होंने हमें कुछ और निर्देश दिये और कहा कि दो दिन बाद दूसरा रन थ्रू देखेंगे। उषा ने उनसे पूछा कि इन चारों कहानियों को आपस में जोडेंगे कैसे? अंकुर जी ने कहा, ‘‘फेविकोल से।’’ इस तरह हमने फाइनल ड्राफ्ट भी दिखा दिया, तभी दिल्ली से फोन आया और उन्हें आवश्यक काम से दिल्ली वापस जाना पड़ेगा। 31 दिसम्बर की रात उन्होंने हम सब के साथ न्यू ईयर सेलिब्रेशन किया और सुबह की फ्लाइट से वे दिल्ली लौट गये यह कहते हुए कि, ‘‘नाटक तैयार हो चुका है, रिहर्सल जारी रखना, अच्छा मंचन होगा।’’ सभी उनके जाने से थोड़े निराश हुए, उनकी अनुपस्थिति खटकती रही।

तीन जनवरी को उद्घाटन अवसर पर ‘कहानी का रंगमंच’ नाम से ही कहानियों का मंचन हुआ। दूसरे दिन रायपुर इप्टा का ‘भुलवाराम का गमछा’ हुआ। यह रायपुर इप्टा की बेहतरीन प्रस्तुति थी।

इस बार नाट्योत्सव को अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप देते हुए तीसरे दिन नेपाल की टीम को (अभियान नाट्य दल काठमांडू नेपाल के विजय विस्फोट से मेरी और सुगीता की मुलाकात कोलकाता में हुई थी। उषा गांगुली ने महिला रंगकर्मियों पर एक सिम्पोजियम आयोजित किया था, उसमें रायगढ़ इप्टा की ओर से सुगीता और मैं गए थे। हमने उस कार्यक्रम में नाटक के गीत प्रस्तुत किये थे और अपनी-अपनी रंग-यात्रा पर बात की थी। वहीं विजय विस्फोट का मोबाइल नंबर हमने ले लिया था।) आमंत्रित किया था परंतु वहाँ ऋत्विक रोशन वाले मामले की अशांति के कारण नेपाल की टीम समय पर नहीं पहुँच पाई तो हमने तय किया कि ‘बकासुर’ का ही मंचन कर दिया जाए। लोग घबरा रहे थे कि सिर्फ एक रिहर्सल में कैसे मंचन संभव होगा! लेकिन और कोई विकल्प नहीं था इसलिए दोपहर को एक रिहर्सल की तो कुछ आत्मविश्वास जागा। शाम को बंसीदादा की टीम भी आ गई। इस बार बंसीदादा भी आए थे। शो में उनकी उपस्थिति से हमें ऊर्जा मिली और नाटक सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। बंसीदादा ने कहा कि ‘‘इतना अच्छा नाटक करते हो मगर स्टेज कैसे बनना चाहिए, इस पर तुम लोगों का ध्यान नहीं है।

दूसरे दिन पूरा स्टेज उखाड़कर फिर से बनाया गया। छत दो फीट ऊँची की गई। रंग विदूषक की पूरी टीम इसमें लगी रही।

‘कहन कबीर’ नाटक का मंचन था। इसमें बंसीदादा ने अनादि को छोटा कबीर बनाकर उतारा था। अंतिम दिन ‘तुक्के पे तुक्का’ का मंचन हुआ। उस दिन अंततः नेपाल की टीम भी पहुँच गई थी सो उनके नाटक ‘गेने दाई’ का मंचन अंत में हुआ।(क्रमशः)

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