(अजय इप्टा और मैं और यादों के झरोखों से – मेरे और अजय के संस्मरण एक साथ इप्टा रायगढ़ के क्रमिक इतिहास के रूप में यहाँ साझा किये जा रहे हैं। अजय ने अपना दीर्घ संस्मरणात्मक लेख रायगढ़ इकाई के इतिहास के रूप में लिखा था, जो 2017 के छत्तीसगढ़ इप्टा पर केंद्रित रंगकर्म के विशेष अंक में छपा था। इस कड़ी में भी उस समय के प्रशासनिक अधिकारियों की कलात्मक अभिरुचि और शहर की सांस्कृतिक गतिविधि में सहयोग की भावना का उल्लेख है । आज इस बात की कल्पना करना मुश्किल है कि प्रशासनिक अधिकारी इप्टा के साथ सहयोगात्मक रवैया रखा करते थे। इस कड़ी में अजय ने 1997 के ग्रीष्मकालीन नाट्य प्रशिक्षण शिविर का विस्तृत वर्णन किया है। 1995 और 1996 में अरुण पाण्डेय जो गंभीर रंगकर्म का ककहरा सीखा गए थे , संजय उपाध्याय और सुमन कुमार ने उसमें प्रस्तुतिपरक बारीकियों तथा प्रोफेशनलिज्म का समावेश किया। इस वर्कशॉप में इप्टा रायगढ़ की टीम और भी समृद्ध हुई। अजय के संस्मरण की इस चौथी कड़ी में मैंने बहुत छोटे छोटे तथ्यात्मक वाक्य बस जोड़े हैं। )
1996 में रायगढ़ में आयोजित मध्य प्रदेश इप्टा के पांचवें राज्य सम्मेलन के बाद जनवरी 1997 में बंसी कौल के निर्देशन में एनएसडी के द्वितीय वर्ष के छात्रों का एक शिविर बिलासपुर में लगा, जिसमें उन्होंने ‘लोरिक चंदा’ तैयार करवाया था। इसका मंचन करने वे रायगढ़ आए थे।
उनके साथ हमने एक संगोष्ठी टाउन हॉल में रखी थी, जिसकी बहुत ही अल्प सूचना पर तैयारी की गई थी। यहीं उन्होंने ‘लोरिक चंदा’ का मंचन भी किया। इप्टा के लड़कों ने अरूण पाण्डे से सीखकर तैयार किये गये क्राफ्ट की प्रदर्शनी और फोटोग्राफ्स लगाए थे जिसे उन्होंने ध्यान से देखा था और इप्टा रायगढ़ के कार्यों से प्रभावित भी हुए। उन्हीं के साथ संजय उपाध्याय भी आए हुए थे। उनके ही एक साथी योगनाथ झा रायगढ़ जिंदल में कार्यरत थे और हमारे अच्छे सम्पर्क में थे। उन्हीं के माध्यम से हमने ग्रीष्मकालीन शिविर के लिए संजय उपाध्याय को आमंत्रित किया। यह शिविर इप्टा रायगढ़ के लिए एक टर्निंग पॉइंट साबित हुआ। अरूण भाई से जहाँ यह सीखा था कि मिलजुलकर एक नाटक कैसे करना चाहिए, नाटक के अनुकूल क्राफ्ट और कॉस्टयूम कैसे तैयार करना चाहिए, वहीं संजय भाई से सीखा कि अच्छा प्रदर्शन कैसे होना चाहिए और एक नाटक के ज़्यादा से ज़्यादा प्रदर्शन करते हुए उसे किस तरह पकाना चाहिए। इस शिविर में सुमन कुमार लिखित नाटक ‘गगन घटा घहरानी’ तैयार हुआ था, जिसके 25 से ज़्यादा मंचन हुए और इप्टा रायगढ़ को राष्ट्रीय फलक पर एक पहचान मिली।
संजय उपाध्याय को जब पहली बार बुलाया तभी यह तय हो गया था कि कबीर के जीवन पर नाटक करना है और सुमन कुमार स्क्रिप्ट लिखेंगे। चूँकि उस वर्ष सरकार भी कबीर की 600 वीं जयंती मनाने जा रही थी तो हमें उम्मीद थी कि सरकार से भी सहायता मिल जाएगी। तब माननीय नंदकुमार पटेल जी ने भी आश्वासन दिया था और हमने प्रोजेक्ट बनाकर सरकार को दे भी दिया था। जैसा कि अमूमन होता है, सरकारी काम में देर लगती ही है, एक कहावत है, जिसे हमारे शिक्षक सुनाया करते थे, एक प्रेमी ने अपनी प्रेमिका से कहा कि ‘‘प्रिये, अगर तुम ना कह दोगी तो मैं मर जाऊँगा।’’ प्रेमिका ने सचमुच ना कह दिया और प्रेमी भी सचमुच पचास साल बाद मर गया (प्रेमी सरकारी था)।
तो लब्बोलुआब ये कि प्रोजेक्ट तो मंजूर हो गया था मगर पैसे नहीं आए थे और हमारे पास भी जमा-पूँजी नगण्य थी। जिलाधीश से अनुरोध कर ठहरने की व्यवस्था रेस्ट हाउस में करवा ली थी और रिहर्सल के लिए टाउन हॉल मिल गया था। चूँकि यह दिनभर का वर्कशॉप था इसलिए प्रतिभागियों के लिए लंच का इंतज़ाम भी रखा था, जो अब पैसे कम होने के कारण भारी पड़ रहा था।
संजयभाई और सुमनभाई आ गये और उन्हें रेस्ट हाउस में रूकवा दिया गया। पहले दिन उद्घाटन में कृष्णानंद तिवारी के निर्देशन में ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’ का मंचन रखा गया था। 11 बजे टाउन हॉल में संजयभाई और सुमनभाई से सबके परिचय के बाद सुमनभाई ने जो स्क्रिप्ट लिखकर लाई थी, उन्होंने पढ़कर सुनाई। कबीर वैसे भी बहुत कठिन कवि हैं और सुमनभाई के लेखन पर मुक्तिबोध का गहरा प्रभाव है लिहाज़ा पहली रीडिंग में सभी असमंजस में थे कि आखिर नाटक कैसे तैयार होगा! दरअसल अब तक बनीबनाई स्क्रिप्ट पढ़ने की आदत थी, जिसमें ढेर सारे रंगनिर्देश होते थे तथा कथा भी लीनियर होती थी। यह पहली स्क्रिप्ट थी जिसकी कथा लीनियर नहीं थी। कुछ छवियों के माध्यम से कबीर के जीवन दर्शन को दिखलाया जा रहा था।
इसके बाद संजयभाई ने अचानक कहा कि चलिये, आप लोग आज शाम को जो नाटक दिखाने वाले हैं, उसकी रिहर्सल दिखायें। कृष्णानंद तब रिहर्सल दिखाने के मूड़ में नहीं था पर बार बार कहे जाने पर उसे दिखाना पड़ा। रिहर्सल देखने के बाद संजय ने कहा, ‘‘ऐसा नाटक उद्घाटन में दिखाएंगे जी? चलिये, इसको माँजते हैं।’’ उन्होंने नाटक को माँजना शुरु किया। दोनों ने मिलकर कुछ दृश्य बदले, गतियाँ बदलीं, कुछ गाने बनाकर नाटक को टाइट किया और शाम को यह नाटक उद्घाटन के लिए तैयार कर दिया।
दूसरे दिन से रिहर्सल शुरु हुई। सुबह नौ बजे से शाम सात बजे तक का समय निर्धारित हुआ। चूँकि फंड नहीं आया था इसलिए यह तय हुआ कि मैं, पापा और अमूल्य चौबे सर रोज चंदे के लिए निकलेंगे और शिविर का खर्च निकालेंगे। इसलिए मैं शिविर में भाग नहीं ले पा रहा था। एक दिन अचानक संजय ने पूछा कि ‘‘हम लोगों का मानदेय कितना तय किया है?’’ हमने बताया, ‘‘7500-/प्रति व्यक्ति।’’ संजय निराश हो गये। कहा, ‘‘इतने कम मानदेय में हम कैसे काम करेंगे?’’ फिर कहा कि ‘‘खैर, नाटक तो हम अच्छा ही तैयार करेंगे, उसमें समझौता नहीं करेंगे।’’ हमारे लिए यह समस्या हो गई कि अब क्या करें! क्योंकि रोज जो चंदा हो रहा था, उससे तो केवल शिविर का खर्च ही निकल रहा था। इस समस्या को देखते हुए हमने तय किया कि एस.पी. और कलेक्टर से मिला जाए।
उस समय राजीव श्रीवास्तव जी जिले के एस.पी. थे और सांस्कृतिक गतिविधियों में रूचि रखते थे। हम उनसे मिलने गये। उन्होंने उन्ही दिनों लिटिल स्टार क्लब नामक संस्था भी बनाई थी। उन्होंने बहुत उत्साह दिखाया और कहने लगे कि ‘‘पिछले दिनों मैंने अपने बच्चे का जन्मदिन अनाथालय के बच्चों के साथ मनाया तब से मेरे मन में उन बच्चों को लेकर कुछ करने की इच्छा है अगर आप लोग उनके साथ नाटक कर सकें तो मैं इनके रहने और मानदेय के रूप में बीस हजार रूपये की व्यवस्था कर दूँगा।’’ साथ ही कहा कि ‘‘आप लोग जिलाधीश महोदय से भी मिल लीजिये। वे बाल श्रम परियोजना के तहत कला जत्था तैयार करवाना चाहते हैं। मैं भी सिफारिश कर दूँगा।’’ दूसरे दिन हम लोग जिलाधीश से मिलने गए। उन्होंने प्रारम्भिक स्वीकृति दे दी और समन्वयक चौबे सर से मिलने के लिए कहा। हमने उनके पास आवेदन छोड़ दिया। अब मानदेय की हमारी समस्या हल हो चुकी थी।
इस बीच कबीर के जीवन पर आधारित नाटक ‘गगन घटा घहरानी’ की रिहर्सल जोरों से चल रही थी। अचानक एक दिन जब हम लोग चंदा करने के बाद चाय के वक्त पहुँचे तो देखा कि माहौल गरम है, सन्नाटा-सा छाया हुआ है। उषा ने बतलाया कि प्रतिभागियों के साथ गरमागरम बहस हो गई है और संजयभाई वापस दिल्ली लौटने की बात कह रहे हैं। हुआ यह था कि संजयभाई ने दो-तीन बार टोक दिया था कि तुम लोगों ने अब तक निर्देशकों से क्या सीखा है? क्या यही तुम लोगों को सिखाया गया है? और कह दिया कि तुम लोग बहुत घटिया हो। इसी में बात बढ़ गई। खैर, मैंने संजयभाई से कहा, ‘‘चलिये चाय पीकर आते हैं।’’ चाय के दौरान ही मैंने संजय को बताया कि दरअसल अलग-अलग बोलियों में शब्दों के अर्थ बहुत बदल जाते हैं। जैसे, आपके यहाँ लौंडा नाच को कला का एक रूप माना जाता है मगर हमारे यहाँ लौंडा शब्द गाली के रूप में प्रयुक्त होता है। वैसे ही ‘घटिया’ शब्द का प्रयोग आप लोग स्तर के लिए करते हैं मगर हमारे यहाँ इसका अर्थ सीधे-सीधे चरित्र के लिए होता है। ‘‘यह घटिया आदमी है’’ मतलब यह चरित्रहीन है। ‘‘ओह!’’ संजयभाई ने पूछा, ‘‘तब आप लोग घटिया की जगह कौनसा शब्द इस्तेमाल करते हैं?’’ मैंने कहा, हम फालतू शब्द का इस्तेमाल करते हैं। अर्थात किसी काम के नहीं हो। ‘‘अच्छा, मुझे पता नहीं था।’’ खैर ‘चाय पर चर्चा’ सार्थक रही और माहौल सामान्य हुआ। दूसरे दिन जब मैं रिहर्सल देखने पहुँचा तब संजयभाई कुछ मूव्हमेंट्स बता रहे थे, जिसे लड़के ठीक से नहीं कर पा रहे थे। झल्लाकर उन्होंने कहा, ‘‘बहुत ….’’, फिर मेरी ओर देखा। ‘‘कल आपने क्या बताया था?’’ मैंने कहा, ‘फालतू’। ‘‘हाँ…, बहुत फालतू लोग हो तुम लोग, किसी काम के नहीं हो।’’ सारे लड़के-लड़कियाँ हँसने लगे। बाद में तो ऐसा हो गया कि सब लोग संजयभाई से निवेदन करते ‘‘सर एक बार घटिया बोलिये न!’’
इस बीच हमने संजयभाई और सुमनभाई से बाल रंग शिविर और बाल श्रमिक परियोजना बाबत बात की और वे तैयार हो गये। संजयभाई का कहना था ‘‘हाँ, अब दिल्ली जाकर बता सकूँगा कि कमाकर लाया हूँ।’’
संजय उपाध्याय से इस वर्कशॉप में हमें रंगसंगीत का गहन प्रशिक्षण मिला। ‘गगन घटा घहरानी’ में बाईस गाने हैं। अक्सर वर्कशॉप में ही धुन बनती, सब लोगों से गवाया जाता। संजयभाई को सुरीले लोगों की आवश्यकता थी, क्योंकि म्युज़िकल प्ले था। सुगीता पड़िहारी, व्ही. अंजलि रमण, व्ही. मीना रमण और उनका बेटा व्ही. अनंत रमण संगीत महाविद्यालय से आकर सम्मिलित हुए। अनेक लोकधुनों का रचा जाना और उनका अनेक गतियों के साथ सामूहिक गायन एक नया अनुभव था।
इस बीच बिलासपुर इप्टा के साथी अचानक पहुँचे। हमारा वर्कशॉप तब अंतिम चरण में था। नाटक करीब करीब तैयार हो गया था और रन थ्रू चल रहे थे। बिलासपुर के साथी नाट्योत्सव करने जा रहे थे। एक नाटक ‘चंदा बेड़नी’ अलखनंदन लेकर आ रहे थे, दूसरा वे खुद कर रहे थे, तीसरा हमारा नाटक तय हो गया। नाटक अब तैयार हो गया था। यह तय हुआ कि इसके लगातार दो शो होंगे, फिर तीसरा शो बिलासपुर में होगा। इसके बाद बाल रंग शिविर और बाल श्रमिक परियोजना का वर्कशॉप होगा।
18 मई 1997 को रायगढ़ पॉलिटेक्निक में ‘गगन घटा घहरानी’ का पहला मंचन हुआ और 19 को दूसरा। पहला मंचन एक घंटा पैंतालिस मिनट का हुआ। दूसरे दिन इसे काटा-छाँटा गया और एक घंटा पैंतीस मिनट तक लाया गया। इतनी गर्मी में पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम जैसे सुविधाविहीन हॉल में दर्शकों को लाना वैसे भी टेढ़ी खीर था। लिहाजा, दोनों दिन 40-50 से ज़्यादा दर्शक नहीं आए। संजय भाई इस बात से बेहद निराश थे। हमने उन्हें समझाने की कोशिश की कि हमारे यहाँ गर्मी में दर्शक नहीं आते मगर चक्रधर समारोह में नाटक को बहुत दर्शक मिलते हैं। उनका कहना था, ‘‘क्या फायदा? हम तो देखने के लिए नहीं रहेंगे। लेकिन जब हम शो करने बिलासपुर पहुँचे, उनकी यह शिकायत दूर हो गई। बिलासपुर शो में उन्हें भरपूर दर्शक भी मिले और आधे पेज की रिपोर्टिंग भी छपी उनके इंटरव्यू भी छपे।
बच्चों का वर्कशॉप शुरु हो गया। सुबह का वक्त बच्चों के लिए तथा शाम का वक्त बाल श्रमिक परियोजना के प्रोजेक्ट के लिए रखा गया था। इस प्रोजेक्ट में हुतेन्द्र ईश्वर शर्मा, तरूण बघेल के अलावा इप्टा रायगढ़ के साथी योगेन्द्र चौबे, युवराजसिंह आज़ाद, कृष्णा साव, रामकुमार अजगल्ले, पवन चौहान, सुगीता पड़िहारी, अनुपम पाल, टिंकू देवांगन ने भी भाग लिया था। इसमें बाल श्रम पर दस गीत एवं एक छोटा सा नाटक ‘बाल श्रम महायज्ञ’, जो कि सुमन कुमार ने ही लिखा, तैयार करवाया गया। सुगीता, जो केवल गाने के लिए आई थी, उसने नाटक करना स्वीकार कर लिया।
तीन तिलंगे तीन तिलंगे
सुबह बच्चों के साथ कार्यशाला जारी थी। दो दिनों में ही तस्वीर बदल चुकी थी। जो बच्चे गुमसुम से चुपचाप खड़े रहते थे, वे अब खुल गये थे। सुमनभाई बीच में बैठे रहते, दो बच्चे उनके कंधे पर चढ़े हुए, दो बच्चे पीठ पर लदे हुए, कोई उनके बाल नोंच रहा है … इसतरह हुडदंग का माहौल बन चुका था। हम निश्चिंत हो गए कि अब नाटक अच्छे से हो जाएगा। इस शिविर में सुमनभाई पच्चीस बच्चों को लेकर पंचतंत्र की तीन कहानियों पर आधारित एक नाटक ‘तीन तिलंगे’ इम्प्रोवाइज़ कर रहे थे तथा संजयभाई करीबन पैंसठ बच्चों को लेकर ‘अंधेर नगरी’ कर रहे थे।
इस बीच संजयभाई का आग्रह था कि उनके रहते ‘गगन घटा घहरानी’ के और शो हो जाएँ ताकि नाटक पक्का हो जाए। लिहाजा, इसके और तीन शो किये गये। एक शो तो अनाथालय में ही बच्चों के सामने किया गया, दूसरा शो रामकुमार अजगल्ले के मोहल्ले में, जो शहर के बाहरी इलाके में था, किया गया। यह बिलकुल नया अनुभव था। सड़क के किनारे एक घर के बरामदे में स्ट्रीट लाइट के सहारे किया गया, यहाँ माइक की सुविधा भी नहीं थी। दर्शक एकदम हमारे सामने बैठे थे। मैं भी दर्शकों के बीच बैठा था क्योंकि मेरा रोल नाटक के अंत में था। तभी मैंने सुना, एक महिला दूसरी को बुला रही है, उस महिला ने आते ही पूछा, नाटक कहाँ तक हो गया! पहली महिला ने नाराज़ होते हुए छत्तीसगढ़ी में कहा कि इतनी देर क्यों लगा दी, कबीर की तो शादी भी हो गई।
यह मेरे लिए सचमुच आश्चर्य की बात थी कि वह महिला ऐसे कठिन नाटक को किसतरह अपने ढंग से समझ रही थी। शायद हम लोग लोक-मनस को अपने ही फ्रेम से देखने की भूल करते हैं, जबकि लोक कथाएँ, हमारा पूरा एपिक ही एकरेखीय नहीं है और कथा में से कथा निकलते जाती है। लोक नाटकों में भी हमें एकरेखीयता नहीं दिखलाई पड़ती और अचानक कोई पात्र काल को तोड़कर वर्तमान में आकर टिप्पणी कर जाता है। यही कारण है कि लोक-मनस ऐसी कहन शैली से जल्द ही तादात्म्य स्थापित कर लेता है। जबकि हम लोग एक तय फ्रेम में देखने के आदी हो जाते हैं। इस नाटक को लेकर डॉ. राजेश्वर सक्सेना जी की टिप्पणी थी कि यह विखंडनवाद के प्रभाव में है तथा उन्होंने इसे उत्तर आधुनिकता से जोड़ा था। मैं उनके इस कथन से सहमत नहीं हो पाया क्योंकि मुझे लगता है कि यह कहन शैली हमारे लोक में पहले से ही मौजूद रही है।
बच्चों के नाटक और बाल श्रम परियोजना के नाटक अब अंतिम चरण में थे। बच्चों के लिए एक से कॉस्ट्यूम सिलवाने का सुझाव संजय ने दिया ताकि बाद में ये दूसरे नाटकों में भी काम आ सकें। सभी के लिए काले पैजामे और उम्र के अनुसार सफेद, गुलाबी, नारंगी और मैरून रंग के कुर्ते सिलवाए गए। अलग-अलग चरित्रों के लिए विभिन्न प्रकार के हेड गियर और मुखौटे बनाए गए। टिंकू देवांगन इस काम में पहले से ही सिद्धहस्त था, फिर उसने अरूण पाण्डेय जी के सान्निध्य में क्राफ्ट में महारत हासिल कर ली थी। संजयभाई के नाटक में संगीत पर ज़ोर था और अनुशासित कोरियोग्राफी की गई थी, वहीं सुमनभाई ने बहुत सी ध्वनियाँ, विभिन्न प्रकार की सीटियों के माध्यम से बच्चों द्वारा ही निकलवाई थीं। बच्चों द्वारा उन्मुक्त रूप से किया गया खुजली डांस दर्शकों द्वारा बेहद पसंद किया गया। शिविर के समापन के बाद सुमनभाई को पासपोर्ट के सिलसिले में तुरंत दिल्ली निकलना पड़ा, उन्हें इंग्लैण्ड में थियेटर की उच्च शिक्षा के लिए फैलोशिप मिल गई थी।
चार दिन बाद बाल श्रमिक परियोजना के शिविर का समापन पॉलिटेक्निक सभागार में रखा गया था। जिलाधीश भी आए थे। संजय के साथ उनकी बातचीत के दौरान पता चला कि दोनों एक ही गाँव के हैं। शिविर की समाप्ति के बाद संजयभाई को विदा करने सारे लोग पहुँचे थे। माहौल बहुत भावभीना हो गया था। संजयभाई भी बहुत भावुक हो गये थे। कह रहे थे कि यहाँ से जाने का मन ही नहीं हो रहा है। उनकी आँखें भर आई थीं। उन्होंने वादा किया था कि जल्द ही दिल्ली में शो करवाएंगे।(क्रमशः)