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अजय, इप्टा और मैं – दो

अजय, इप्टा और मैं – दो

(अजय इप्टा और मैं की पहली कड़ी के बाद अजय के संस्मरण से 1995 के पहले की गतिविधियों के बारे में पिछले दो एपिसोड्स में दर्ज़ हुआ । इस कड़ी में इप्टा रायगढ़ की पुनर्गठित इकाई का आधार बनाने के लिए आयोजित पहले वर्कशॉप का विवरण है। अजय ने अपने संस्मरण में इस पर दो पैराग्राफ लिखे थे। उसका कुछ हिस्सा मैंने अपने संस्मरण के अंत में मोटे अक्षरों में सम्मिलित किया है। शेष मैंने अपनी स्मृति के आधार पर लिखा है। किस तरह संगठन को खड़ा करने में व्यक्तिगत समस्याओं को सुलझाना होता है और काम जारी रखा जाता है , सांगठनिक समस्याओं को सुलझाने में अपने क्षेत्र के राजनेता-प्रशासनिक अधिकारी, अपने ही दोस्त-सम्बन्धी किस तरह मदद करते हैं , इसकी झलक भी इस कड़ी में दिखाई देगी। इनसे सबक लेकर लगातार सीखने और आत्मनिर्भर होने की प्रक्रिया इसके बाद इप्टा रायगढ़ की जारी रही। – उषा वैरागकर आठले )

अरुण पाण्डेय

इप्टा रायगढ़ की व्यवस्थित इकाई बनाने के उद्देश्य से 1995 की गर्मी की छुट्टियों में हमने एक वर्कशॉप आयोजित करने का विचार किया। विवेचना जबलपुर के निर्देशक अरूण पाण्डेय से मेरा परिचय था, जो उस समय पूरे मध्यप्रदेश में इप्टा की इकाइयों के वर्कशॉप लेते थे। पत्र लिखते ही वे तैयार हो गए। अजय को अचानक पता चला कि दक्षिण मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, नागपुर की निदेशक सुश्री स्वर्णलता रावला हैं, जो पहले रायगढ़ की पोस्टिंग के दौरान हमारे घर के सामने रहा करती थीं। अजय ने उनसे संपर्क किया और उन्होंने अनुदान देना स्वीकार कर लिया। 15 जून से 7 जुलाई 1995 तक यह वर्कशॉप करना फाइनल हो गया।

प्रोफ़ेसर डी.एस. ठाकुर सर

उस समय प्रोफेसर डी.एस.ठाकुर सर पॉलिटेक्निक के प्राचार्य थे। उन्होंने अजय को पढ़ाया था। उन्हें सांस्कृतिक गतिविधियों में भी गहरी रूचि थी। अतः उन्होंने वर्कशॉप के लिए पॉलिटेक्निक का एक बड़ा हॉल हमें उपलब्ध करा दिया।

दिलचस्प वाकया यह हुआ कि, 1995 में अरूण पाण्डेय के आने के बाद ही अचानक मुझे के.जी.कॉलेज रायगढ़, जहाँ मैं 1994 में तबादला करवाकर आई थी, वहाँ से अचानक मेरे खरसिया तबादले की सूचना के साथ पदमुक्ति का आदेश भेजा गया। हम दोनों एकदम भौंचक रह गए। सामने वर्कशॉप था और यह संकट! अजय ने तुरंत तय किया कि उसे भोपाल जाकर मेरा तबादला निरस्त करवाने के लिए कोशिश करनी होगी। वर्कशॉप में बाहरी सहायता करने के लिए प्रमोद सराफ, रविन्द्र चौबे, देवेन्द्र श्रीवास्तव थे ही। मुझे दिन भर वर्कशॉप में सहायता करनी थी। खैर, अरूणभाई ने स्थितियों को समझा। उन्हें दरोगापारा में ही सरस्वती प्रतिमा के पास होटल प्रेसिडेंट में रूकवाया गया था। हमने उन्हें अजय का स्कूटर दे दिया ताकि वे अपनेआप पॉलिटेक्निक पहुँच जाएँ और मैं अपनी लूना से। अरूणभाई ने सबकुछ बहुत सहयोगात्मक तरीके से मैनेज कर लिया था। उन्होंने हमें वर्कशॉप में स्थानीय पुराने रंगकर्मियों को बुलाने के लिए कहा, ताकि प्रतिभागी कलाकारों को रायगढ़ के रंगकर्म का इतिहास पता चल सके। उमाशंकर चौबे, बृजलाल मिश्रा, जगन्नाथ मिश्रा को आमंत्रित कर हमने उनके अनुभवों को बहुत दिलचस्पी के साथ सुना। इस पहले वर्कशॉप में ही अरुणभाई ने हमें शौकिया रंगकर्म के बदले व्यावसायिक या इसके लिए बेहतर शब्द होगा, गंभीर और कलात्मक रंगकर्म की आधारभूत बातें सिखाईं।

लगभग 25 कलाकार वर्कशॉप में थे। दो नाटक चुने गए। अरूणभाई अपने साथ इन दोनों नाटकों की स्क्रिप्ट लाए थे। थियेटर गेम्स, एक्सरसाइज़ेस के साथ वर्कशॉप शुरु हुआ। नाटकों की रिहर्सल भी साथ-साथ शुरु हुई। इप्टा का पुराना साथी दिपक उपाध्याय इस वर्कशॉप में आया था। उसने ‘आगरा बाज़ार’ में हबीब तनवीर के साथ भी काम किया था। उसकी वरिष्ठता और अनुभव को देखते हुए अरूणभाई ने उसे ‘दूर देश की कथा’ में लग्गू की मुख्य भूमिका दी। मगर चार-पाँच दिनों बाद ही वह लंगड़ाता हुआ वर्कशॉप में आया। बारिश की वजह से वह फिसलकर गिर गया था और ‘दूर देश की कथा’ जैसे बहुत गत्यात्मक नाटक में उसका काम करना संभव नहीं था। तब योगेन्द्र चौबे को लग्गू की भूमिका दी गई। लग्गू और भग्गू, दोनों केन्द्रीय पात्रों का गायक होना ज़रूरी था। योगेन्द्र और भग्गू की भूमिका कर रहे रामप्रसाद श्रीवास ‘पूनम’, दोनों अच्छा गाते थे। बहरहाल, रिहर्सल चलती रही। चार कट्टर धर्माधिकारियों के रूप में अर्पिता श्रीवास्तव, अनुपम पाल, दिनेश सिंह और आलोक शर्मा को चुना गया। चार लड़कियाँ थीं – नीतू पंथ, मधु लाल, अनिता लाल और पूनम सिंह। अनिता 1994 में ‘पंछी ऐसे आते हैं’ से जुड़ चुकी थी। उसके साथ उसकी बहन मधु और भाई रवि भी वर्कशॉप में आए थे। कोरस और अन्य पात्रों की भूमिकाएँ निभाई थीं – राजेन्द्र तिवारी, टिंकू देवांगन, जनक पाण्डे, मनोज गोपाल, विनोद बड़गे, यदुनाथ गजभिये, दिवाकर वासनिक, संजय नामदेव, रमेश पाणि, रवि लाल, अखिलेश मिश्रा। इनके अलावा दोनों नाटक संगीतात्मक थे इसलिए संगीत मंडली में हुतेन्द्र ईश्वर शर्मा, जितेन्द्र चतुर्वेदी, विवेक तिवारी, पी.आर.सोनवानी भी जुड़े।

पुरानी टीम का सम्मान : दिवाकर वासनिक (पीछे खड़े में बाएं से पहला), रमेश पाणी (बाएं से तीसरा), टिंकू देवांगन (बाएं से चौथा), प्रमोद सराफ (बीच की पंक्ति में बाएं से छटवां), वृन्दावन यादव (प्रमोद भाई के बाजू में), देवेंद्र श्रीवास्तव (दाहिने से दूसरा) तथा इप्टा रायगढ़ के वर्तमान सदस्य

दूसरे नाटक ‘लोककथा 78’ में पहले नाटक में जिन्हें मुख्य भूमिका दी गई थी, उनकी बजाय अन्य कलाकारों को मुख्य भूमिका दी गई थी। अनुपम पाल सरपंच था, मनोज गोपाल – जगन्या, सावित्री – नीतू पंथ, मुखिया – रमेश पाणि, दामाद – जनक पाण्डे, ग्रामसेवक – आलोक शर्मा, फौजदार – विवेक तिवारी, हवलदार – रवि लाल, गुंडे – टिंकू देवांगन और राजेन्द्र तिवारी, मुकादम – विनोद बड़गे, मास्टरनी – अनिता लाल, पत्रकार – अर्पिता श्रीवास्तव तथा यदुनाथ गजभिए, अन्य सभी कलाकार ग्रामीणों की भूमिका में थे। अलका सिंह को नर्तकी की विशेष भूमिका के लिए आमंत्रित किया था। साथ ही हुतेन्द्र ईश्वर शर्मा ने पंथी जैसे लोकनृत्य तैयार करवाए थे। दोनों नाटकों की रिहर्सल साथ साथ चलती थी।

‘लोककथा 78’ विवेक तिवारी, अलका सिंह, हुतेन्द्र ईश्वर शर्मा

अरूण पाण्डेय ने जबलपुर से संगीत-निर्देशन के लिए अभय सोहले को तथा कला-निर्देशन के लिए अवधेश बाजपेई को भी दस दिन पहले बुला लिया था। हमारे लिए यह वर्कशॉप का पहला प्रशिक्षण एवं अनुभव था। हमने इसमें विशिष्ट प्रकार के मेकअप और कॉस्ट्यूम तैयार करने की ट्रेनिंग ली। ‘दूर देश की कथा’ और ‘लोककथा 78’ के लिए अरूणभाई ने 25 रंगबिरंगे पैजामे-कुर्ते और कुछ बंडियाँ ग्रामीणों के लिए बनवाई थीं। आलोक शर्मा ने अपने घर से इप्टा के लिए कुछ धोतियाँ और गमछे लाकर दिये थे। इस पहले वर्कशॉप के कास्ट्यूम अभी तक इप्टा के उपयोग में आ रहे हैं। अजय नाटकों के मंचन के पहले ही लौट आया था। दक्षिण मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, नागपुर से हमें रू. 15000/- की अनुदान राशि स्वीकृत हुई थी। मगर वह तो हिसाब-किताब भेजने के बाद आती; साथ ही तीन लोगों के रहने-खाने की व्यवस्था, किराया और मंचन के खर्च के लिए यह राशि अपर्याप्त ही थी, इसलिए हमें फिर प्रशासनिक मदद लेनी पड़ी। प्रमोद और रविन्द्र आर्थिक प्रबंधन में लगे रहे। मैं भी कभीकभार उनके साथ चली जाती थी। लौटने के बाद अजय भी इस अभियान में शामिल हो गया।

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इस वर्कशॉप में अधिकांश कलाकार जुटाने का काम योगेंद्र चौबे ने किया था। उसके साथ कॉलेज में सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेने वाले कुछ लड़के-लड़कियों को उसने आने के लिए आमंत्रित किया। हमारे पहले नाट्य समारोह में स्थानीय नाट्य दल के निर्देशक वृंदावन यादव के साथ काम कर चुके लड़कों को वृंदावन ने भेजा, कुछ और लड़के-लड़कियाँ भी आए। शिविर में तीस लोगों ने भाग लिया था। इस शिविर की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि इससे एक टीम तैयार हो गई। इसमें अरूण पांडे का भी बहुत बड़ा योगदान था। अब हम लोगों का ध्यान इस ओर था कि इस टीम को बनाए रखा जाए और सक्रिय रखा जाए। हर शनिवार और रविवार को पत्रकार भवन में हम लोग जुटते और दोनों नाटकों की रिहर्सल करते थे। ‘दूर देश की कथा’ के इस बीच खरसिया और चक्रधर समारोह में मंचन हुए तथा ‘लोक कथा’ का मंचन सीतापुर में किया गया। अर्पिता की बहन अपर्णा, जो वर्कशॉप में कभी कभी आती थी, मगर संकोची होने के कारण उसने नाटक में भाग नहीं लिया था, वह भी सीतापुर के शो में मंच पर उतरी और आज तक जुडी हुई है। योगेन्द्र चौबे, अनुपम पाल, जनक पाण्डे, टिंकू देवांगन, राजेंद्र तिवारी, अपिता श्रीवास्तव, अपर्णा श्रीवास्तव, मनोज गोपाल, अनिता लाल, मधु लाल, रवि लाल, नीतू पंत, भारती पंत, जितेन्द्र चतुर्वेदी आदि बेहद सक्रिय साथी रहे। बाद में पूनम, हुतेन्द्र आदि अपना अलग काम करने लगे। इन नाटकों के बाद हमने एक नया नाटक ‘खेला पोलमपुर’ शुरु किया, (जिसका ज़िक्र ‘अजय, इप्टा और मैं की पहली कड़ी में मैंने विस्तार से किया है) । तब तक अंबिकापुर इप्टा से एक साथी कृष्णानंद तिवारी भी आ गया था, जिसने लंबे अरसे तक अंबिकापुर में काम किया था।(मोटे अक्षरों में अजय का संस्मरण)

‘खेला पोलमपुर’ का एक मंचन करने के बाद दूसरा मंचन नाट्य समारोह में करना तय किया गया। नाट्य समारोह की तैयारी के सिलसिले में जिलाधीश महोदय से मिलने गए तो उन्होंने बेहद उत्साह दिखलाया और बाकायदा एक मीटिंग बुलवाई। स्व. नंदकुमार पटेल (पूर्व विधायक एवं मंत्री) भी उपस्थित थे। उन्होंने पाँच दिन आवागमन की व्यवस्था हेतु दो जीप उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया। आवास व्यवस्था एवं पॉलिटेक्निक सभागार निःशुल्क उपलब्ध करा दिये तथा आर्थिक सहायता का भी आश्वासन दिया गया। हम थोड़े निश्चिंत हो गए। लेकिन अचानक जिलाधीश का तबादला हो गया और वे रायपुर चले गए। हमारे लिए संकट की घड़ी थी। समय बिलकुल भी नहीं था। इस संकट के समय हमारी ही एक साथी कल्याणी मुखर्जी के संबंध काम आए और उन्होंने एक ही दिन में खरसिया से बीस हजार रूपये का चंदा करवा दिया। (मोटे अक्षरों में अजय का संस्मरण)

समारोह निर्विघ्न सम्पन्न हुआ। एक सबक हमें यह ज़रूर मिला कि सरकार पर निर्भर होने की बजाय अपने आर्थिक स्रोत हमें खुद बनाने होंगे। इसके बाद हम लोगों ने तय किया कि घर-घर सम्पर्क कर चंदा करेंगे और प्रति वर्ष नाट्य समारोह के अलावा नाट्य प्रशिक्षण शिविर भी लगाएंगे। (मोटे अक्षरों में अजय का संस्मरण) (क्रमशः)

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