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राष्ट्रवाद, नागरिकता और मौजूदा सांस्कृतिक परिदृश्य में स्त्री-स्वर

राष्ट्रवाद, नागरिकता और मौजूदा सांस्कृतिक परिदृश्य में स्त्री-स्वर

उषा वैरागकर आठले

भारत का मौजूदा राजनैतिक-सांस्कृतिक परिदृश्य तीन हिस्सों में बँटा हुआ दिखाई दे रहा है। एक हिस्सा, जो चरम हिंदुत्व को धारण करने वाले मनुवाद के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है, दूसरा हिस्सा, इस अतिवाद के प्रतिरोध में गंगा-जमुनी विरासत को बचाने के लिए दृढ़-संकल्प है, वहीं तीसरा हिस्सा तटस्थ या उदासीन लोगों का है, जो अपने व्यक्तिगत दायरे में ही सिमटा हुआ है। पहला हिस्सा सत्तापोषित है और अपनेआप को राष्ट्रवादी मानता है तथा दूसरे और तीसरे हिस्से से राष्ट्रप्रेम को साबित करने की बार-बार माँग करता है।

पहले हिस्से का राष्ट्रवाद एक नए साँचे में ढलकर सामने आया है, जो एक धर्म, एक रंग के चश्मे से सबको देखता है। सामान्यतः राष्ट्रवाद को किसी देश की भूमि और संस्कृति के प्रति प्रेम और गर्व से सम्बद्ध माना जाता है। यह मामला उस देश की सभ्यता-संस्कृति के इतिहास से संबंध रखता है। ऊपर उल्लिखित पहले हिस्से ने राष्ट्रवाद की परिभाषा विशिष्ट विचारधारा के अनुसार, विशिष्ट धर्म के विशिष्ट कट्टर आयामों के अनुसार गढ़ी है। उसने भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब वाले राष्ट्रवाद के बदले कट्टर हिंदुत्व-वर्चस्व के संकुचित राष्ट्रवाद का नारा बुलंद किया है। यह सिलसिला 1992 में बाबरी मस्जिद के ढहाने से प्रत्यक्ष रूप ले चुका है। इसके लिए बहुत कुशलता के साथ युवा पीढ़ी और नई डिजिटल तकनालॉजी को जोड़कर अनेक प्रकार के ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया जा रहा है। चिंता इस बात की है कि यह काम बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है और इसका ज़हर अनेक परिवारों में फैल चुका है। इसके कारण पारिवारिक सदस्यों, पड़ोसियों और मित्रों के बीच नफरत की दीवारें खड़ी हो गई है। ऐसा 1992 से पहले कभी नहीं हुआ था।

ध्रुवीकरण के विरुद्ध प्रतिरोध

2014 में बहुमत हासिल होने के बाद सत्ता में आई हिंदुत्ववादी शक्तियों को बल मिला है। धीरे-धीरे तमाम महत्वपूर्ण संस्थाओं और शिक्षा संस्थानों के शीर्ष पदों पर कट्टर और संकीर्ण विचारों के लोगों की नियुक्तियाँ हुईं। विरोध में उठने वाली आवाज़ों को ‘अर्बन नक्सल’, ‘आतंकवादी’, ‘देशद्रोही’, ‘माओवादी’, ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ का ठप्पा लगाकर चुप करने की जी-तोड़ कोशिश की जा रही है। 1992 से ही अयोध्या में बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर बनाने की आड़ में हिंदू ध्रुवीकरण की राजनीति को हवा दी गई मगर नवम्बर 2019 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा हिंदू पक्ष में निर्णय दिये जाने पर इस मुद्दे की हवा ही निकल गई। हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का आधार खिसकने लगा, परिणामस्वरूप नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) – 2019 लाया गया। 2019 के चुनाव में भारी जीत के बाद बहुमत के आधार पर लोकसभा और राज्यसभा में भी यह बिल पारित कर उसे अधिनियम बना दिया गया। तुरत-फुरत राष्ट्रपति के हस्ताक्षर करवाकर इसे लागू करने की घोषणा भी कर दी गई। इसमें नए संशोधनों के साथ राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (NRC) और राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी (NPR) को जोड़ दिया गया। माननीय गृहमंत्री द्वारा इन्हें समूचे देश में लागू करने की घोषणा ने काफी उथलपुथल मचा दी। संविधान के अनुच्छेद 14 को तोड़ते हुए धर्म-आधारित नागरिकता प्रदान करने की अधिसूचना से अनेक विश्वविद्यालयों के युवाओं ने विरोध करना शुरु किया। अलोकतांत्रिक तरीके से इसका दमन शुरु हुआ, जिससे पूरा देश हतप्रभ रह गया।

इसी घटाटोप के बीच दिल्ली के शाहीन बाग में कुछ औरतें इस अधिनियम और दमन का प्रतिरोध करने के लिए इकट्ठा हुईं और लगभग तीन महीनों तक चला ‘शाहीन बाग’ शांतिपूर्ण दृढ़ आंदोलन का प्रतीक बन गया। कोविड-19 की महामारी की आड़ में इस आंदोलन को बंद करने में सत्ता सफल रही। मगर इस आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि, इसमें बहुत बड़ी संख्या में ऐसी महिलाएँ शरीक हुईं, जो इससे पहले प्रायः कभी घर से निकलकर किसी आंदोलन का हिस्सा नहीं बनी थीं। चूँकि नागरिक संशोधन अधिनियम 2019 में इस्लाम को छोड़कर हिंदू, सिख, पारसी, बौद्ध, जैन और ईसाई धर्म के उन नागरिकों को नागरिकता देने की बात कही गई है, जो पाकिस्तान, बांगलादेश और अफगानिस्तान में प्रताड़ित हो रहे हैं; इससे भारत के मुसलमान समुदायों में बेचैनी फैली। 2014 के बाद से ही निरंतर देश की मुस्लिम आबादी में अनेक प्रकार से दहशत फैलाने वाली घटनाएँ घटित हो रही थीं, जिनका प्रतिवाद कभी भी देश के प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और सत्ताधारी दल के किसी उच्चाधिकारी ने नहीं किया, फलतः धर्मनिरपेक्ष लोगों में तथा खासकर मुस्लिम लोगों में असुरक्षा की भावना पैदा हो गई। इसके प्रतिक्रियास्वरूप शाहीन बाग में बहुत बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाएँ भी शामिल हुईं और अनेक हमलों के बाद भी, बिना किसी राजनीतिक नेतृत्व के वे लंबी अवधि तक डटी रहीं। इनके साथ अन्य महिलाएँ और जनसमुदाय भी बड़ी संख्या में जुड़ा।

CAA-NRC-NPR का विरोध और प्रतिरोधस्वरूप धरना-आंदोलन समूचे देश में फैल गया था। ‘शाहीन बाग’ एक शानदार ऐतिहासिक प्रतीक के रूप में स्थापित हुआ है।

इस प्रतिरोध का स्वरूप पूरीतरह सृजनात्मक और रचनात्मक था। प्रतिरोध-स्थल पर प्रायः कविताओं, गीतों, पोस्टर्स, कविता पोस्टर्स, चित्रों जैसे अनेक कलात्मक तरीकों से अपनी बात कही जा रही थी। इसीलिए राष्ट्रीयता और नागरिकता के सवालों पर केन्द्रित यह प्रतिरोध राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक चेतना के साथ नए-नए रूपों में सामने आया। अनेक सांस्कृतिक दलों और कलाकारों ने इस आंदोलन में कलात्मक प्रस्तुतियों के माध्यम से अपनी बात को मुखर होकर अभिव्यक्ति दी।

इप्टा के साथ-साथ अनेक रंगमंच मंडलियाँ, साहित्यकार, चित्रकार, समीक्षक, फिल्मकार, सिने-कलाकार स्वतःस्फूर्त होकर इस आंदोलन से जुड़े। इनमें भारत के सभी जाति-धर्म-सम्प्रदायों-उम्र के स्त्री-पुरुष-बच्चे-बूढ़े और भिन्न विशेषताओं के लोग भी अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे थे, जिससे भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब की विविधता और विभिन्नता आंदोलन-स्थलों पर एकजुट दिखाई देती थी।

इस परिदृश्य में संस्कृति-कर्म की चुनौतियों ने स्पष्ट दिशा पकड़ ली थी। देश के संविधान में उल्लिखित स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे को, व्यक्ति की गरिमा को बरकरार रखने के लिए संस्कृतिकर्मी नए सृजन के साथ रोज़-ब-रोज़ सड़क पर, मंच पर, गली-मोहल्ले में, सोशल मीड़िया पर लोकतांत्रिक तरीके से प्रस्तुतियाँ दे रहे थे। उल्लेखनीय बात यह थी कि कई जगह महिलाएँ ही कमान सम्हाल रही थीं या अग्रिम पंक्ति में खड़ी थीं।

शाहीन बाग़ में दादियाँ

पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री का दर्ज़ा पुरुष से नीचे ही माना जाता रहा है। पुरुष के विचारों, मतों और दृष्टि का वर्चस्व स्त्री को अपने अधीन रखने का हथियार होता है। स्त्री की सबसे पहली छवि पारिवारिक स्त्री की है, जहाँ वह किसी की माता, बहन, बेटी, पत्नी या चाची, मामी, बुआ, दादी, नानी आदि होती है। इस छवि के अंतर्गत पारिवारिक संबंधों का निर्वाह, परिवार की इज़्ज़त की परवाह और स्वयं के व्यक्तित्व को नज़रअंदाज़ करके घर-परिवार के दायित्व को निभाना उसकी प्राथमिकता मानी जाती है। इस रूढ़ छवि को शाहीन बाग आंदोलन ने तोड़ा। 13 फरवरी 2020 को शाहीन बाग में फरहत नकवी ने अपनी कविता में कहा,

अब हम कहें और तुम सुनो चाय पे चर्चा
मैं समझाऊँ, पढ़ोगे तुम मेरा भी पर्चा?

उन्होंने आगे कहा,

हमने खून-पसीने से अब तक बहत्तर साल से
इस मुल्क को इसलिए सींचा
कि बराबरी की उम्मीद हमारे संविधान ने हमें दी
बराबरी की तरफ हम बढ़ रहे थे
इस मुल्क में बराबरी हमारा अधिकार हमेशा था,
आज है और हमेशा रहेगा
ये काला कानून वापस जाएगा।
ये जिन्न बोतलों में अब न वापस जाएगा
सुन लो! ये रास्ता चुन लिया है, न बदला जाएगा…।

स्त्री और पुरुष को लेकर मानव सभ्यता के विकास में जेंडरकेन्द्रित अनेक मिथक रचे गये हैं, जो मानसिकता-निर्माण में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं। स्त्रियों का आंदोलनों में शरीक होकर आवाज़ उठाना पितृसत्तात्मक शक्तियों को नागवार गुज़र रहा है। पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं के अनेक शांतिपूर्ण आंदोलन उठ खड़े हो रहे हैं।

‘बातें अमन की’ नामक महिलाओं की शांति-यात्रा दो वर्ष पहले पूरे देश में हुई थी, जिसमें देशभर की महिलाएँ सम्मिलित हुईं। महिलाओं पर होने वाली हिंसा, अत्याचार, अन्याय का प्रतिरोध करते हुए अपने गीतों और अनुभवों के माध्यम से प्रेम, सद्भाव और शांति का संदेश उन्होंने प्रेषित किया। अन्य अनेक कार्यक्रमों के माध्यम से स्त्री की आवाज़ अपनी जगह बनाने लगी है। ‘मी टू’ अभियान ने भी महिलाओं में अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ उठाने की प्रेरणा प्रदान की है।

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इसके अलावा कोविड-19 की बंदिशों के बावजूद ‘अगर अब न उट्ठे तो…’ आंदोलन सोशल मीडिया पर समूची रचनात्मकता और प्रतिकार के साथ अनेक जन-संगठनों ने मिलकर आयोजित किया।

इन आंदोलनों के परिप्रेक्ष्य में जेएनयू, एएमयू, जामिया जैसे विश्वविद्यालयों में युवा-प्रतिरोध के दमन के लिए किये गये क्रूर और अमानवीय हमलों के दौरान महिलाओं की एक नई तस्वीर दिखाई दी। युवा छात्राएँ अपने साथियों को बचाने में जिस बहादुरी से सामने आईं, अपने ऊपर हुए हमलों से भी नहीं डगमगाईं, उसने एक नई मिसाल कायम की है। हर जगह, जहाँ भी महिलाओं पर यौन हमले हो रहे हैं, अब वहाँ महिलाएँ चुपचाप नहीं रहकर एफआईआर करने और सामूहिक दबाव डालने की मिसाल कायम कर रही हैं। गार्गी कॉलेज की घटना ने यह सिद्ध कर दिया है।

स्त्री पर वर्चस्व स्थापित करने का सबसे आसान रास्ता माना जाता है, उसकी देह पर कब्जा करना। उसे इस बात का अहसास कराते रहना कि उसका अस्तित्व या महत्व उसकी देह की पवित्रता तक ही सीमित है। सभ्यता के इस चरण में भी स्त्री की देह को महज़ यौनिक नज़रिये से ही देखा जाता है। स्त्री की देह को मनमाने स्पर्शों या नज़रों से छेड़ना पुरुष का सबसे बड़ा मनोरंजन साबित होता है। सत्तापोषित भीड़ ने विभिन्न शिक्षा संस्थानों पर किये गये हमलों में यह बात उभरकर सामने आई है। इसका भरपूर और मुखर प्रतिरोध महिलाओं और उनके साथियों की ओर से किया गया। मीडिया के सामने भी अब महिलाएँ पूरी शिद्दत के साथ आवाज़ उठा रही हैं। हालाँकि यह जागृति एक छोटे वर्ग तक सीमित है, अभी भी काफी बड़ी संख्या में महिलाएँ हर तरह का अन्याय और अत्याचार सहन करने के लिए बाध्य हैं।

पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के रूढ़ ढाँचे में स्त्रियों को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया जाता। उनकी कार्य-क्षमता, बौद्धिकता या नेतृत्व क्षमता को हमेशा संदेह की नज़र से देखा जाता है, उसे अक्सर हल्के में और परिहासपूर्ण तानों/टिप्पणियों से नवाज़ा जाता है। शाहीन बाग आंदोलन के साथ यही हुआ। पहले इसे सिर्फ मुस्लिम महिलाओं से संबद्ध किया गया, विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा सम्पोषित बताकर बदनाम करने की पूरी कोशिश की गई परंतु जब इसमें हरेक धर्म, वर्ग, क्षेत्र, उम्र, लिंग के लोग शामिल होते गए तो महिलाओं की संघर्ष-क्षमता अपनेआप प्रत्यक्ष होती गई।

यही मिसाल हमें पिछले आठ महीने से जारी किसान आंदोलन में भी दिखाई दे रही है। किसान महिलाएँ पूरी दृढ़ता, क्षमता और वैचारिकता के साथ आंदोलन में शरीक हो रही हैं।

‘लव जिहाद’ जैसी कुंद ज़हनियत के साथ महिलाओं को धर्म के नाम पर विभाजित करने, दबाए जाने की पूरी कोशिश की जा रही है। सुधा भारद्वाज, शोमा सेन जैसी जन-पक्षधर महिलाओं को झूठे प्रकरणों में फँसाकर जेल में बंद कर दिया गया है। मजाज़ का एक शेर है, ‘तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन, तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था।’ इसे महिलाएँ अब अमली जामा पहना रही हैं। उन्होंने घर-परिवार की बागडोर सम्हालते हुए ही अपना परचम बुलंद कर लिया है। इस उठान को रोकने की सत्ताधारी भरपूर कोशिश कर रहे हैं।

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