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भगतसिंह के विचारों को नई सान पर चढ़ाना ज़रूरी

भगतसिंह के विचारों को नई सान पर चढ़ाना ज़रूरी

(“शहीद-ए-आज़म भगत सिंह का 28 सितम्बर को 114 वां जन्मदिन है। उनके लेख तो उनकी समझ और विचारधारा को अच्छी तरह प्रतिबिंबित करते ही हैं, मगर उनके विभिन्न लोगों को लिखे पत्र उनकी जीवन-दृष्टि को स्पष्ट करते हैं। उनके आठ चुने हुए पत्रों को लेकर एक नाटकीय कोलाज बनाने की कोशिश की है। इसका पठन/मंचन कोई भी नाट्य दल कर सकता है। – संपादन उषा आठले)

भगत सिंह जितना पढ़ते थे, उसके नोट्स लेते थे और साथ ही लिखते भी थे। 8 अप्रेल 1929 को सेन्ट्रल असेम्बली में बम फेंकने के बाद वे जेल में ही थे। अपनी फाँसी तक लगभग दो वर्ष की अवधि में उन्होंने नियमित जेल डायरी लिखी तथा अनेक पत्र लिखे, जो उनके देश की आज़ादी तथा क्रांतिसंबंधी विचारों और कदमों का स्पष्ट विवरण देते हैं।

हम सब जानते ही हैं कि 1919 में जालियाँवाला बाग हत्याकांड से महज़ 12 वर्ष की उम्र में भगतसिंह बहुत गहरे तक प्रभावित हुए थे। उनके मन में उसी समय देश को आज़ाद करने का जुनून अंकुरित हो गया था। 1923 में घर में उनके शादी की बात चलने लगी थी। इस बात पर कठोर कदम उठाते हुए भगत सिंह ने अपने पिता के नाम एक पत्र लिखकर छोड़ा और कानपुर जाकर गणेश शंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप’ प्रेस में काम करने लग गए। इस पत्र में उनका दृढ़ इरादा प्रकट रूप से दिखाई दे रहा है –

पूज्य पिताजी,
नमस्ते

मेरी ज़िंदगी मकसदे आला यानी आज़ादी-ए-हिंद के असूल के लिए वक़्फ हो चुकी है। इसलिए मेरी ज़िंदगी में आराम और दुनियावी खाहशात बायसे कशिश नहीं हैं।

आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था, तो बापूजी ने मेरे यज्ञोपवीत के वक्त ऐलान किया था कि मुझे खिदमते वतन के लिए वक़्फ कर दिया गया है। लिहाज़ा मैं उस वक्त की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हूँ।

उम्मीद है आप मुझे माफ़ फरमाएँगे।

आपका ताबेदार
भगत सिंह

इस अभिव्यक्ति से ही समझ में आ जाता है कि भगतसिंह अपनी ज़िंदगी के लक्ष्य के प्रति कितने स्पष्ट और दृढ़ थे!

दस साल के भगत सिंह (कुलबीर सिंह के बेटे के सौजन्य से) (बीबीसी के लेख से साभार)

भगत सिंह का अध्ययन बहुत विस्तृत था। वे विश्व के जन-इतिहास के उदाहरणों से प्रेरणा लेकर अपने देश के युवकों को आज़ादी के लिए संगठित होने के लिए ललकारते थे। उन्होंने इटली के मैजिनी और गैरीबाल्डी द्वारा स्थापित युवक-संगठनों की तर्ज़ पर 1926 में ‘नौजवान भारत सभा’ का गठन किया था। इसकी सहायता से 12 से 16 वर्ष की उम्र वाले स्कूली बच्चों के लिए ‘बाल भारत सभा’ का भी गठन किया गया था। इससे पहले 1925 में ‘साप्ताहिक मतवाला’ में भगत सिंह ने बलवंतसिंह के नाम से युवकों का आव्हान करने वाला एक लेख लिखा था। उसके कुछ अंश इसप्रकार हैं –

संसार के इतिहासों के पन्ने खोलकर देख लो, युवक के रक्त से लिखे हुए अमर संदेश भरे पड़े हैं। संसार की क्रांतियों और परिवर्तनों के वर्णन छाँट डालो, उनमें केवल ऐसे युवक मिलेंगे, जिन्हें बुद्धिमानों ने ‘पागल छोकड़े’ अथवा ‘पथभ्रष्ट’ कहा है। पर जो सिडी हैं, वे क्या ख़ाक समझेंगे कि स्वदेशाभिमान से उन्मत्त होकर अपनी लोथों से किले की खाइयों को पाट देने वाले जापानी युवक किस फौलाद के टुकड़े थे! सच्चा युवक तो बिना झिझक के मृत्यु का आलिंगन करता है, चोखी संगीनों के सामने छाती खोलकर डट जाता है, तोप के मुँह पर बैठकर भी मुस्कुराता ही रहता है, बेड़ियों की झनकार पर राष्ट्रीय गान गाता है और फाँसी के तख़्ते पर अट्टहासपूर्वक आरूढ़ हो जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय क्रांतिकारी युवकों से प्रेरणा लेकर वे अपने देश के युवकों के लिए आगे लिखते हैं –

ऐ भारतीय युवक! तू क्यों ग़फ़लत की नींद में पड़ा बेखबर सो रहा है? उठ, आँखें खोल! देख, प्राची-दिशा का ललाट सिंदूर-रंजित हो उठा। अब अधिक मत सो। सोना हो तो अनंत निद्रा की गोद में जाकर सो रह। कापुरुषता के क्रोड़ में क्यों सोता है? माया-मोह-ममता का त्याग कर गरज उठे –

Farewell Farewell My true Love

The army is on move;

And if stayed with you Love,

A Coward I shall prove.

भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त : जालंधर के देशभगत यादगार हॉल में लगाई गयी तसवीर (चमनलाल के सौजन्य से)

भगतसिंह की क्रांतिकारी कार्रवाइयाँ निरंतर बढ़ती रहीं। अप्रेल 1929 में जेल जाने के बाद भगत सिंह और भी सक्रिय हो उठे थे। सेंट्रल असेम्बली में धुँए वाले बम फेंकने के बाद वे अपनी आतंकी छवि को मिटाकर अपने विचारों को स्पष्टतया लोगों तक पहुँचाना चाहते थे, जिसके लिए वे बहुत योजनापूर्वक पत्र और लेख लिख रहे थे। पंजाब छात्र संघ के दूसरे अधिवेशन के लिए बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह की ओर से एक पत्र भेजा गया, जिसे 19 अक्टूबर 1929 को पढ़कर सुनाया गया। इस अधिवेशन के सभापति थे सुभाषचंद्र बोस। यह लेख 22 अक्टूबर 1929 को लाहौर से प्रकाशित ‘ट्रिब्यून’ में प्रकाशित हुआ था। इस पत्र में क्रांति किसके लिए करनी है और किन्हें सचमुच जगाया जाना ज़रूरी है, इसका स्पष्ट ज़िक्र किया गया है…

इस समय हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठाएँ। आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी अधिक महत्वपूर्ण काम हैं। आने वाले लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस देश की आज़ादी की लड़ाई के लिए ज़बर्दस्त घोषणा करने वाली है। राष्ट्रीय इतिहास के इन कठिन क्षणों में नौजवानों के कंधों पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी आ पड़ेगी। यह सच है कि स्वतंत्रता के इस युद्ध में अग्रिम मोर्चों पर विद्यार्थियों ने मौत से टक्कर ली है। क्या परीक्षा की इस घड़ी में वे उसी प्रकार की दृढ़ता और आत्मविश्वास का परिचय देने से हिचकिचाएँगे? नौजवानों को क्रांति का यह संदेश देश के कोने-कोने में पहुँचाना है – फैक्ट्री-कारखानों के क्षेत्रों में, गंदी बस्तियों और गाँवों की जर्जर झोंपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में क्रांति की यह अलख जगानी है, जिससे आज़ादी आएगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असंभव हो जाएगा।


समानता और शोषणमुक्त समाज की स्थापना का लक्ष्य भगतसिंह के सामने स्पष्ट था। अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद से मुक्ति के अलावा ‘काले पूंजीपतियों’ से भी देश को आज़ाद कर हरेक मनुष्य तक उसका लाभ पहुँचने संबंधी विचारों को वे ज़ोर देकर व्यक्त करते थे।अक्सर भगत सिंह के साथ एक ज़िक्र यह भी आता है कि वे किसी लड़की को चाहते थे। यह बात बहुत स्पष्ट नहीं है परंतु सुखदेव के नाम लिखे एक पत्र में भगत सिंह के सेंट्रल असेंबली में खुद बम फेंकने की ज़िद के पीछे इस विवाद का भी उल्लेख मिलता है। किस्सा यह है कि असेंबली में बम फेंकने की योजना भगत सिंह के नेतृत्व में ही बनी थी परंतु उन्हें दल की ज़रूरत बताते हुए साथियों ने इस काम को सौंपने से इंकार कर दिया था। इस बैठक में सुखदेव अनुपस्थित थे। बाद में सुखदेव ने उन्हें ताना मारते हुए कहा था कि तुम लड़की के कारण मरने से डर रहे हो। इस आरोप से आहत होकर भगत सिंह ने स्वयं बम फेंकने का प्रस्ताव बैठक लेकर पारित करवाया। 8 अप्रेल 1929 को असेंबली में बम फेंकने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त गिरफ्तार कर लिये गये थे और 13 अप्रेल को सुखदेव को गिरफ्तार किया गया। उस समय 5 अप्रेल को लिखा हुआ भगत सिंह का एक पत्र सुखदेव की जेब से बरामद हुआ था, जिसे लाहौर षड्यंत्र केस में सबूत के तौर पर पेश किया गया था। इस पत्र में मुहब्बत के बारे में भगत सिंह के बहुत स्वाभाविक परंतु क्रांति के लिए समर्पित विचार सामने आते हैं। यह पत्र शिव वर्मा ने सुखदेव को पहुँचाया था। प्रस्तुत हैं सुखदेव को लिखे पत्र के कुछ अंश –

प्रिय भाई,
जैसे ही यह पत्र तुम्हें मिलेगा, मैं जा चुका होऊँगा… दूर एक मंज़िल की तरफ। मैं तुम्हें विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि आज बहुत खुश हूँ। हमेशा से ज़्यादा। मैं यात्रा के लिए तैयार हूँ, अनेक-अनेक मधुर स्मृतियों के होते और अपने जीवन की सब खुशियों के होते हुए भी, एक बात जो मेरे मन में चुभ रही थी कि मेरे भाई, मेरे अपने भाई ने मुझे गलत समझा और मुझ पर बहुत ही गंभीर आरोप लगाया – कमज़ोरी का। आज मैं पूरी तरह संतुष्ट हूँ। पहले से कहीं अधिक। आज मैं महसूस करता हूँ कि वह बात कुछ भी नहीं थी, एक ग़लतफ़हमी थी। मेरे खुले व्यवहार को मेरा बातूनीपन समझा गया और मेरी आत्मस्वीकृति को मेरी कमज़ोरी। मैं कमज़ोर नहीं हूँ। अपनों में से किसी से भी कमज़ोर नहीं।

भाई! मैं साफ दिल से विदा होऊँगा। क्या तुम भी साफ होगे? …
खुशी के वातावरण में मैं कह सकता हूँ कि जिस प्रश्न पर हमारी बहस है, उसमें अपना पक्ष लिये बिना नहीं रह सकता। मैं पूरे ज़ोर से कहता हूँ कि मैं आशाओं और आकांक्षाओं से भरपूर हूँ और जीवन की आनंदमयी रंगीनियों से ओतप्रोत हूँ, पर आवश्यकता के वक़्त सब कुछ कुर्बान कर सकता हूँ और यही वास्तविक बलिदान है। ये चीज़ें कभी मनुष्य के रास्ते की रूकावट नहीं बन सकतीं, बशर्ते कि वह मनुष्य हो! निकट भविष्य में ही तुम्हें प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाएगा।

मानव-जीवन में प्यार की महत्ता के ऐतिहासिक प्रमाण देते हुए भगतसिंह ने आगे लिखा –

किसी व्यक्ति के चरित्र के बारे में बातचीत करते हुए एक बात सोचनी चाहिए कि क्या प्यार कभी किसी मनुष्य के लिए सहायक सिद्ध हुआ है? मैं आज इस प्रश्न का उत्तर देता हूँ – हाँ, ये मेज़िनी था। तुमने अवश्य ही पढ़ा होगा कि अपनी पहली विद्रोही असफलता, मन को कुचल डालने वाली हार, मरे हुए साथियों की याद वह बर्दाश्त नहीं कर सकता था। वह पागल हो जाता या आत्महत्या कर लेता, लेकिन अपनी प्रेमिका के एक ही पत्र से वह, यही नहीं कि किसी एक से मजबूत हो गया, बल्कि सबसे अधिक मजबूत हो गया।

जहाँ तक प्यार के नैतिक स्तर का संबंध है, मैं यह कह सकता हूँ कि यह अपने में कुछ नहीं है, सिवाय एक आवेग के, लेकिन यह पाशविक वृत्ति नहीं, एक अत्यंत मधुर मानवीय भावना है। प्यार तो हमेशा मनुष्य के चरित्र को ऊपर उठाता है। सच्चा प्यार कभी भी गढ़ा नहीं जा सकता। वह अपने ही मार्ग से आता है, लेकिन कोई नहीं कह सकता कि कब?

हाँ, मैं कह सकता हूँ कि एक युवक और एक युवती आपस में प्यार कर सकते हैं और वे प्यार के सहारे अपने आवेगों से ऊपर उठ सकते हैं, अपनी पवित्रता बनाए रख सकते हैं। …वह एक अत्यंत आदर्श स्थिति है, जहाँ मनुष्य प्यार-घृणा आदि के आवेगों पर काबू पा लेगा, जब मनुष्य अपने कार्यों का आधार आत्मा के निर्देश को बना लेगा … मनुष्य के लिए अच्छा और लाभदायक है। … मनुष्य में प्यार की गहरी भावना होनी चाहिए, जिसे कि वह एक ही आदमी में सीमित न कर दे, बल्कि विश्वमय रखे।

भगत सिंह की भूख हड़ताल का पोस्टर, जिस पर उनके ही नारे छपे हैं। इसे नेशनल आर्ट प्रेस, अनारकली लाहौर ने प्रिंट किया था। WWW.SUPREMECOURTOFINDIA.NIC.IN से साभार

भगतसिंह में कम उम्र के बावजूद विचारों की स्पष्टता थी। वह जो कुछ करता या कहता था, उसके बारे में पर्याप्त अध्ययन और मनन-चिंतन के बाद ही अपने निष्कर्ष पर पहुँचता था। ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ नारा भगतसिंह के कारण ही भारत में लोकप्रिय हुआ। 1929 में जेल में बंद सभी क्रांतिकारियों ने अपनी माँगों को लेकर भूख हड़ताल कर दी थी, जिसमें 63 वें दिन यतीन्द्रनाथ दास की मृत्यु हो गई। भारतीय जनता ने यतीन्द्रनाथ दास की मृत्यु को शहादत कहकर सम्मानित किया। इस सम्मान और ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ नारे की आलोचना करते हुए ‘मॉडर्न रिव्यू’ के संपादक रामानंद चट्टोपाध्याय ने संपादकीय लिखा, जिसका जवाब देते हुए भगतसिंह ने लिखा,

श्री सम्पादक जी,
मॉडर्न रिव्यू

आपने अपने सम्मानित पत्र के दिसम्बर, 1929 के अंक में एक टिप्पणी ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ शीर्षक से लिखी है और इस नारे को निरर्थक ठहराने की चेष्टा की है। आप सरीखे परिपक्व विचारक तथा अनुभवी और यशस्वी सम्पादक की रचना में दोष निकालना तथा उसका प्रतिवाद करना, जिसे प्रत्येक भारतीय सम्मान की दृष्टि से देखता है, हमारे लिए एक बड़ी धृष्टता होगी। तो भी इस प्रश्न का उत्तर देना हम अपना कर्तव्य समझते हैं कि इस नारे से हमारा क्या अभिप्राय है।

यह आवश्यक है, क्योंकि इस देश में इस समय इस नारे को सब लोगों तक पहुँचाने का कार्य हमारे हिस्से में आया है। इस नारे की रचना हमने नहीं की है। यही नारा रूस के क्रांतिकारी आंदोलन में प्रयोग किया गया है। प्रसिद्ध समाजवादी लेखक अप्टन सिंक्लेयर ने अपने उपन्यासों ‘बोस्टन’ और ‘आईल’ में यही नारा कुछ अराजकतावादी क्रांतिकारी पात्रों के मुख से प्रयोग कराया है। इसका अर्थ क्या है? … क्रांतिकारियों की दृष्टि में यह एक पवित्र वाक्य है। हमने इस बात को ट्रिब्यूनल के सम्मुख अपने वक्तव्य में स्पष्ट करने का प्रयास भी किया था।

इस वक्तव्य में हमने कहा था कि क्रांति (इंकलाब) का अर्थ अनिवार्य रूप से सशस्त्र आंदोलन नहीं होता। बम और पिस्तौल कभी-कभी क्रांति को सफल बनाने के साधन मात्र हो सकते हैं। इसमें भी संदेह नहीं है कि कुछ आंदोलनों में बम एवं पिस्तौल एक महत्वपूर्ण साधन सिद्ध होते हैं, परन्तु केवल इसी कारण से बम और पिस्तौल क्रांति के पर्यायवाची नहीं हो जाते। विद्रोह को क्रांति नहीं कहा जा सकता, यद्यपि हो सकता है कि विद्रोह का अंतिम परिणाम क्रांति हो!

एक वाक्य में क्रांति शब्द का अर्थ ‘प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना एवं आकांक्षा’ है। लोग साधारणतया जीवन की परम्परागत दशाओं के साथ चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार से ही काँपने लगते हैं। यही एक अकर्मण्यता की भावना है, जिसके स्थान पर क्रांतिकारी भावना जागृत करने की आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अकर्मण्यता का वातावरण निर्मित हो जाता है और रूढ़िवादी शक्तियाँ मानव समाज को कुमार्ग पर ले जाती हैं। यही परिस्थितियाँ मानव समाज की उन्नति में गतिरोध का कारण बन जाती हैं।

क्रांति की इस भावना से मनुष्य जाति की आत्मा स्थाई तौर पर ओतप्रोत रहनी चाहिए, जिससे कि रूढ़िवादी शक्तियाँ मानव समाज की प्रगति की दौड़ में बाधा डालने के लिए संगठित न हो सकें। यह आवश्यक है कि पुरानी व्यवस्था सदैव न रहे और वह नई व्यवस्था के लिए स्थान रिक्त करती रहे, जिससे कि एक आदर्श व्यवस्था संसार को बिगड़ने से रोक सके। यह है हमारा अभिप्राय, जिसको हृदय में रखकर हम ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ का नारा ऊँचा करते हैं।

भगतसिंह, बी.के. दत्त
22 दिसम्बर 1929

भगतसिंह के क्रांतिसंबंधी विचार बहुत दृढ़ थे। दुनिया में हुए क्रांतिकारी संघर्षों का ऐतिहासिक अध्ययन करते हुए वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि ‘‘ब्रिटिश सरकार बदला लेने की नीति पर चल रही है व न्याय सिर्फ ढकोसला है।’’ इसीलिए उनके पिता या देश के अन्य नेता भी जब उनकी सज़ा कम करने की कोशिश कर रहे थे, भगतसिंह को यह कोशिश नागवार गुज़र रही थी। 30 सितम्बर 1930 को उनके पिता किशन सिंह ने ट्रिब्यूनल को एक आवेदन किया था, जिसमें उनका बचाव करने का अवसर उपलब्ध कराने का निवेदन किया गया था। भगतसिंह अपने पिता के इस कदम से बहुत नाराज़ हुए थे। उनका मानना था कि ‘‘यदि इस मामले में कमज़ोरी दिखाई गई तो जन-चेतना में अंकुरित हुआ क्रांति-बीज स्थिर नहीं हो पाएगा।’’ उन्होंने 4 अक्टूबर 1930 को अपने पिता को पत्र लिखकर अपना विरोध दर्ज़ किया।

सरदार किशन सिंह

पूज्य पिता जी,
मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि आपने मेरे बचाव-पक्ष के लिए स्पेशल ट्रिब्यूनल को एक आवेदन भेजा है। यह खबर इतनी यातनामय थी कि मैं इसे खामोशी से बर्दाश्त नहीं कर सका। इस खबर ने मेरे भीतर की शांति भंग कर उथल-पुथल मचा दी है। मैं यह नहीं समझ सकता कि वर्तमान स्थितियों में और इस मामले पर आप किसतरह का आवेदन दे सकते हैं?

भगत सिंह का परिवार (विकिपीडिया से साभार)

आगे वे बेबाकी से लिखकर अपने पिता से अपनी असहमति प्रकट करते हैं,

आपका पुत्र होने के नाते मैं आपकी पैतृक भावनाओं और इच्छाओं का पूरा सम्मान करता हूँ लेकिन इसके बावजूद मैं समझता हूँ कि आपको मेरे साथ सलाह-मशविरा किये बिना ऐसे आवेदन देने का कोई अधिकार नहीं था। आप जानते थे कि राजनैतिक क्षेत्र में मेरे विचार आपसे काफी अलग हैं। मैं आपकी सहमति या असहमति का ख्याल किये बिना सदा स्वतंत्रतापूर्वक काम करता रहा हूँ।
आप जानते हैं कि हम एक निश्चित नीति के अनुसार मुकदमा लड़ रहे हैं। मेरा हर कदम इस नीति, सिद्धांतों और हमारे कार्यक्रमों के अनुरूप होना चाहिए। आज स्थितियाँ बिल्कुल अलग हैं। लेकिन अगर स्थितियाँ इससे कुछ अलग भी होतीं तो भी मैं अंतिम व्यक्ति होता, जो बचाव प्रस्तुत करता। इस पूरे मुकदमे में मेरे सामने एक ही विचार था और वह यह कि, हमारे विरुद्ध जो संगीन आरोप लगाए गए हैं, हम पूर्णतया उनकी अवहेलना करने वाला व्यवहार करें। मेरा नज़रिया यह रहा है कि सभी राजनैतिक कार्यकर्ताओं को इनके प्रति उपेक्षा दिखानी चाहिए और उनको जो भी कठोरतम सज़ा दी जाए, हँसते-हँसते बर्दाश्त करनी चाहिए। इस पूरे मुकदमे के दौरान हमारी योजना इसी सिद्धांत के अनुरूप रही है। हम ऐसा करने में सफल हुए या नहीं, यह फैसला करना मेरा काम नहीं। हम खुदगर्ज़ी को त्यागकर अपना काम कर रहे हैं।

भगतसिंह की इन पंक्तियों की क्या हम महात्मा गांधी के फरवरी 1930 में घोषित किये गये सविनय अवज्ञा आंदोलन की अवधारणा से तुलना कर सकते हैं? ‘आरोपों की अवहेलना’ और ‘कठोरतम सज़ा’ को ‘हँसते-हँसते बर्दाश्त करने’ की बात में अंग्रेज़ों के कानूनों की उपेक्षा और बहुत बहादुरी के साथ उनका सामना करने का आह्वान है। गांधी और भगतसिंह दोनों अपने सिद्धांतों के प्रति दृढ़ थे। उनका लक्ष्य एक था मगर रास्ते भिन्न थे।

भगतसिंह ने 3 मार्च 1931 को लाहौर सेन्ट्रल जेल में अपने दो भाइयों कुलतार और कुलबीर मुलाकात के बाद उनको पत्र लिखे। इनमें भगतसिंह का परिवार के प्रति गहरा संवेदनशील प्यार झलकता है। उन्होंने लिखा,

भगत सिंह के भाई कुलबीर सिंह

प्रिय कुलबीर सिंह,
जानता हूँ कि आज तुम्हारे दिल के अंदर ग़म का समुद्र ठाठें मार रहा है। भाई, तुम्हारी बात सोचकर मेरी आँखों में आँसू आ रहे हैं, मगर क्या किया जाए, हौसला रखना। मेरे अज़ीज़, मेरे बहुत-बहुत प्यारे भाई, ज़िंदगी बड़ी सख्त है और दुनिया बे-मुरव्वत। सब लोग बड़े बेरहम हैं। सिर्फ मुहब्बत और हौसले से ही गुज़ारा हो सकेगा। कुलतार की तालीम की फ़िक्र भी तुम ही करना। बड़ी शर्म आती है, अफसोस के सिवाय मैं कर ही क्या सकता हूँ! … अच्छा नमस्कार, अज़ीज़ भाई अलविदा … रुख़सत।
तुम्हारा ख़ैर-अंदेश
भगत सिंह

इसीतरह के दूसरे संक्षिप्त पत्र में उन्होंने छोटे भाई कुलतार को लिखा,

अज़ीज़ कुलतार,
आज तुम्हारी आँखों में आँसू देखकर बहुत दुख हुआ। आज तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था, तुम्हारे आँसू मुझसे सहन नहीं होते।

बरख़ुरदार, हिम्मत से शिक्षा प्राप्त करना और सेहत का ख़याल रखना। हौसला रखना और क्या कहूँ!

भाई कुलतार सिंह को उर्दू में लिखा पत्र WWW.SUPREMECOURTOFINDIA.NIC.IN से साभार

इसके आगे अपने अहसास कुछ शेरों के माध्यम से उन्होंने व्यक्त किये, जो आज तक सबको ज़बानी याद हैं। इनमें अपने विचारों के प्रति दृढ़ता भी वे स्पष्ट करते हैं। दो शेर हैं –

उसे यह फ़िक्र है हरदम, नया तर्ज़े-ज़फा क्या है
हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है!
… … …
हवा में रहेगी मेरे ख़याल की बिजली
ये मुश्ते-ख़ाक है फानी, रहे रहे न रहे।


अच्छा रुख़सत। खुश रहो अहले-वतन, हम तो सफ़र करते हैं। हिम्मत से रहना। नमस्ते।
तुम्हारा भाई
भगत सिंह

भगत सिंह का अपने विचारों के प्रति दृढ़ विश्वास उनके गहन अध्ययन और विश्लेषण का परिणाम था। वे न केवल अच्छे शायर, लेखक एवं वक्ता थे, बल्कि एक चिंतनशील और सिद्धांतों को अपने कार्य में परिणित करने के लिए कृतसंकल्प क्रांतिकारी व्यक्ति भी थे। अपने ‘ख़याल की बिजली’ शहादत के एक दिन पहले अन्य क्रांतिकारी साथियों को सौंपते हुए 22 मार्च 1931 को उन्होंने अंतिम पत्र लिखा,

साथियो,
स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता। लेकिन एक शर्त पर ज़िंदा रह सकता हूँ कि, मैं क़ैद होकर या पाबन्द होकर जीना नहीं चाहता।

मेरा नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है – इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हरगिज़ नहीं हो सकता।
आज मेरी कमज़ोरियाँ जनता के सामने नहीं हैं। अगर मैं फाँसी से बच गया तो वे ज़ाहिर हो जाएँगी और क्रांति का प्रतीक चिह्न मद्धिम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए। लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आज़ादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।


हाँ, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हज़ारवाँ भाग भी पूरा नहीं कर सका। अगर स्वतंत्र, ज़िंदा रह सकता तब शायद उन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता। इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फाँसी से बचे रहने का नहीं आया। मुझसे अधिक भाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतज़ार है। कामना है कि यह और नज़दीक हो जाए।

आपका साथी
भगत सिंह

भगत सिंह का मृत्यु प्रमाण पत्र (विकिपीडिया से साभार)

यह अद्भुत जज़्बा किसी 23 साल के युवक का ही हो सकता है जो स्वयं को आज़ादी के संघर्ष में एक आदर्श के रूप में स्थापित करना चाहता था! मगर खेद यह है कि हिंदुस्तान की अधिकांश माँओं ने कभी आरज़ू नहीं की कि मेरा बेटा भगतसिंह बने, बल्कि यह भावना आम तौर पर क्रांतिकारी विचारों के व्यक्तियों में भी दिखाई देती है कि ‘‘भगतसिंह की आज अत्यंत आवश्यकता है, मगर वह मेरे घर नहीं, पड़ोसी के घर में पैदा हो।’’ भगतसिंह जैसे अनेक विचारकों ने उसी समय यह समझ लिया था कि आज़ादी मिलने के बाद स्थापित लोकतंत्र में साधारण जन को नहीं, बल्कि मुट्ठीभर लोगों को ही आज़ादी के फल चखने का अवसर मिलेगा। इक्कीसवीं सदी के इस दूसरे दशक के उत्तरार्द्ध में ही लोकतंत्र का और भी ज़्यादा संकुचित और ख़ौफ़नाक रूप सामने आ रहा है, जो भगतसिंह के ‘सपनों के भारत’ से एकदम विपरीत है। आज ज़रूरत है, भगतसिंह के विचारों के अद्यतन विकास की और साम्राज़्यवाद से कहीं अधिक क्रूर और अमानवीय विश्व-व्यवस्था को परास्त करने वाले नए आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक हथियारों की। भगतसिंह रोमानी क्रांति नहीं, ठोस यथार्थ धरातल की क्रांति चाहते थे अतः क्रांतिकारी विचारों के प्रति समर्पित लोगों को पुराने औज़ारों के बदले नए औज़ारों को गढ़ना होगा और नए सिरे से शंखनाद करना होगा।

नेशनल लाहौर कॉलेज की फोटो (भगत सिंह दाहिने से चौथे): सौजन्य चमनलाल
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