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समकालीन रंगमंच : एक पुनर्विचार

समकालीन रंगमंच : एक पुनर्विचार

  • प्रसन्ना
प्रसन्ना

(प्रसन्ना द्वारा लिखित यह लेख अजय आठले द्वारा अंग्रेज़ी से अनूदित किया गया है। हमें इस लेख की मूल प्रति फोटो कॉपी के रूप में ही मिली थी, जिससे अनुमान है कि यह आलेख किसी संगोष्ठी में प्रसन्ना जी ने पढ़ा होगा या यह उनके किसी भाषण का लिप्यंतरण भी हो सकता है। बहरहाल, यह लेख आज भी बहुत महत्वपूर्ण है, भले ही इसमें उठाये गए कुछ मुद्दों पर हमारी असहमति हो । इस अनूदित लेख का प्रकाशन इप्टा रायगढ़ की वार्षिक पत्रिका रंगकर्म के 2006 के अंक में हुआ था। जिस भी साथी को प्रसन्ना जी के इस लेख सम्बन्धी प्रकाशन या प्रस्तुति सम्बन्धी जानकारी हो, कृपया ज़रूर बताएं, ताकि उचित सन्दर्भ दिया जा सके।)

‘हम कौन हैं?’ – यहाँ उपस्थित लोगों के बीच यह सवाल उठाते हुए मैं अपनी बात प्रारम्भ करता हूँ। इसको कुछ इस तरह से भी कहा जा सकता है कि ‘हम क्या नहीं हैं?’ निश्चित ही हम लोक कलाकार नहीं हैं। भारत में लोककला को प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त नहीं है। अपनी ग्रामीण गरीबी वाली सामाजिक स्थिति के कारण इसे स्तरहीन और उपेक्षित माना जाता है। हम मध्यवर्गीय या उच्चवर्गीय हैं। अधिक से अधिक हम लोक समुदाय के समर्थक हो सकते हैं परंतु हम स्वयं लोक समुदाय नहीं हैं।

राजस्थान का लोकनाट्य ख्याल

हम शास्त्रीय रंगकर्मी भी नहीं हैं क्योंकि पिछले कई वर्षों के दौरान भारतीय शास्त्रीय रंगमंच धीरे-धीरे गुज़रे ज़माने की बात होकर रह गया है। यह बात सच है कि हममें से कुछ लोगों ने शास्त्रीय नाट्यपाठों और नाट्यालेखों का अध्ययन किया है तथा संस्कृत नाटकों के प्रयोग भी किये हैं। इसके बावजूद हम शास्त्रीय रंगमंच में निपुण नहीं कहला सकते।

यहाँ तक कि हम पाश्चात्य रंगमंच में भी निपुण नहीं हैं। विदेशी शासन के पतन के अनेक दशकों के बाद भी हममें से कुछ पश्चिम के अनुकर्ता हैं। हममें से अनेकों ने अनेक पाश्चात्य नाटक खेले होंगे या विश्वविद्यालय में पाश्चात्य नाटकों को पढ़ाया होगा। फिर भी यही कहा जा सकता है कि भारत का वर्तमान रंगमंच भारतीय भाषाओं में ही खेला जाता है। इस पर पश्चिम के मृत और दूषित तत्व अवश्य हावी हो गए हैं।

तब फिर हम कौन हैं?

हम निहायत व्यक्तिवादी इंसानों का एक समूह हैं। यदि हममें कोई समानता है तो यही, कि हम सब समकालीन रंगमंच के अध्यवसायी हैं। यदि ऐसा है तो हम इस पर चर्चा क्यों करें? क्या हम पिछले डेढ़ सौ वर्षों में समकालीन रंगमंच की विशेषताओं को नहीं उभारते आ रहे हैं? तब फिर हम क्यों इतने बड़े फलक पर इसकी चर्चा कर रहे हैं? इसलिए कि, अब यह आवश्यक हो गया है।

पिछले कुछ वर्षों से भारतीय रंगमंच पर आलोचनात्मक विमर्श लगभग थम-सा गया है। आलोचनात्मक निर्णय के लिए स्थान-विशेष और भारतीयता से सम्बद्धता ही पर्याप्त मानी जाने लगी है और समकालीनता से चुपचाप नाता तोड़ा जाने लगा है। संयोग से इसी समय भारतीय राजनीति में भी इसी तरह का विचलन दिखाई देने लगा है। धर्मनिरपेक्षता के स्थान पर राष्ट्रभक्ति की पहचान हिंदुत्व के रूप में की जाने लगी है। यहीं से धर्मनिरपेक्षता छद्म होती चली गई और समकालीनता एक पाश्चात्य भावबोध बन कर रह गया है। राजनीति में एक दक्षिणपंथी दल में यह विचलन दिखाई देता है परंतु इसी राजनीतिक परिस्थिति को आज के समकालीन रंगमंच की दशा के लिए ज़िम्मेदार ठहराना बेमानी होगा। हिंदू मूलतत्ववाद की उपस्थिति भारतीय रंगमंच में नगण्य है। हम रंगकर्मी ही रंगमंच की दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार हैं।

यक्षगान

पिछले सत्तर के दशक में शासकीय सांस्कृतिक निकायों ने संरक्षणवाद, पुरस्कार, अकादमिक सदस्यता, विदेश यात्रा, रंगमंडल अनुदान, प्रस्तुति अनुदान और इसी तरह के अनेक प्रलोभनों के माध्यम से भारतीय रंगमंच को ‘भारतीय-जैसा’ (अर्थात हिंदू) दिखने के लिए प्रेरित किया। भारतीय रंगमंच में अनेक प्रस्तुतियों के माध्यम से अभिव्यक्ति के पारम्परिक साधनों, मुद्राओं, श्लोकों एवं हिंदू महाकाव्यों की कथाओं का उपयोग किया गया। संगीत नाटक अकादमी ने एक फतवा जारी करते हुए यह शर्त ही रख दी थी कि अगर शासकीय अनुदान प्राप्त करना है तो बतलाई गई पारम्परिक शैलियों की सूची के अनुसार ही प्रस्तुति शैली अपनाए।

किसी भी भारतीय कलाकार के लिए यह स्वाभाविक बात नहीं है कि वह अलग से भारतीय दिखने की कोशिश करे, या उसे अपनी भारतीयता को सिद्ध करना पड़े। हममें से कुछ भारतीयता का प्रचार करने वाले दलों से जुड़कर कृतार्थ महसूस करते हैं और बहुत से लोग इससे बचने के लिए प्रतिरोध भी करते हैं। सांस्कृतिक आकाओं की पूरी कोशिश होती है कि वे ऐसे ही नाटकों और प्रस्तुतियों को चुनें, जिनमें ‘भारतीयता’ का ‘भाव’ विद्यमान हो।

यह सवाल भी उठ सकता है कि भारतीय रंगमंच को अधिक भारतीय दिखने या दिखाने में गलत क्या है! कुछ भी नहीं। परंतु भारतीय रंगमंच तो हमेशा ही भारतीय दिखता रहा है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हम पहले ही शांता गांधी निर्देशित ‘जसमा ओडन’, हबीब तनवीर निर्देशित ‘आगरा बाजार’ और ‘चरनदास चोर’, इब्राहिम अल्काज़ी निर्देशित ‘आषाढ़ का एक दिन’; शंभु मित्र निर्देशित ‘रक्तकरबी’ मंचित कर चुके हैं।

हमारे पास पहले से ही इप्टा, हिंदुस्तानी थियेटर, पारसी थियेटर, सुरभि थियेटर, कंपनी थियेटर आदि रहे हैं अतः समस्या ‘दिखने’ की उतनी नहीं है, जितनी विचार-बोध की है। दरअसल, यह नव्य-बोध भारतीय रंगमंच को बड़े खतरनाक तरीके से विभाजित कर रहा है।

जब हम पूर्वस्थिति का गहराई से विश्लेषण करते हैं तो स्पष्ट दिखाई देता है कि किन्हें लाभ पहुँचाया गया है और किन्हें वंचित किया गया है! हमें बहुत विचलित करने वाली तस्वीर दिखाई देगी। जिन्हें लाभ पहुँचाया गया है, वे या तो ब्राह्मण हैं या ऊँची जाति के हिंदू हैं और जिन्हें वंचित किया गया है, वे अहिंदू हैं, दलित हैं, महिला निर्देशक हैं, वामपंथी क्रांतिकारी हैं, बोहेमियन्स हैं और इसी तरह के लोग हैं। यदि यह लाभ पहुँचाने की बात सिर्फ योग्यता पर आधारित होती तो भी ठीक था, परंतु ऐसा नहीं है। इस सदी की कुछ श्रेष्ठतम प्रतिभाओं को इस दृष्टि के कारण अलग-थलग कर दिया गया है।

देशी भाषाओं को हाशिये पर ढकेल दिया गया है। लेखक का मूल पाठ भी परे कर दिया गया है। प्रस्तुतियों में सिर्फ कर्मकांड, गीत, ताल और आंगिक गतियाँ होती हैं। चरित्र-विकास, आंतरिक जगत का चित्रण, मनोवैज्ञानिक चित्रण आदि विस्तार को तिलांजलि दे दी गई है। भारतीय युग को लौटाने के लिए भारतीय रंगमंच से पैंट-शर्ट, दाढ़ी और ब्लाउज़ को हटाकर उसके स्थान पर धोती, जनेऊ और ब्राह्मणी विशेषताओं को स्थापित किया गया है। और तो और दलितों को पुनः पुरानी पारम्परिक भूमिका में दिखाया जाने लगा है। ईसाई, मुसलमान, सिख, पारसी, तमिल आदि को हाशिये पर डाल दिया गया है।

इस बात की पुष्टि के लिए हम कुछ उदाहरण देखें, जहाँ वरिष्ठतम लोगों के साथ भी यह व्यवहार हुआ। बादल सरकार को ही लें। सत्तर के दशक के मध्य तक आधुनिक भारतीय नाट्य-लेखन के लिए बादल दा का नाम मोहन राकेश, विजय तेंडुलकर, गिरीश कर्नाड के साथ-साथ लिया जाता था। मोहन राकेश जल्दी चले गए। कर्नाड और तेंडुलकर ने अपनी शैलियों में यथोचित समझौते किये और आगे बढ़ गए। बादल दा ने समझौते से इंकार किया अतः वे केन्द्र से हट गए।

गिरीश कर्नाड

कर्नाड का उदाहरण लें। उन्होंने कुछ उग्र आधुनिक रचनाएँ लिखीं, जैसे – ‘ययाति’, ‘तुगलक’ और ‘अंजु मलिग्गे’। इसके विपरीत उन्होंने अपनेआप को झटके से बदलते हुए ‘हयवदन’ और ‘नागमंडल’ की रचना की। स्व. डॉ. अवस्थी के अनुसार, ‘‘उन्होंने यथार्थ को छला और नाट्यशास्त्र तक पहुँच गए।’’ मुझे नहीं मालूम कि, कर्नाड नाट्यशास्त्र तक पहुँचे या नहीं, लेकिन वे ज्ञानपीठ पुरस्कार तक अवश्य पहुँच गए। उन्होंने धर्मवीर भारती, विजय तेंडुलकर और बादल सरकार को भी प्रोत्साहित किया। कर्नाड के प्रति पूरे सम्मान के साथ यह कहना उचित होगा कि इसके बाद वे भारतीयता की विचारधारा से पीछे हटते चले गए। उनका यह पीछे हटना हिंदुत्व के विरोध में जनपक्षधरता का लिहाज़ करना नहीं था बल्कि रचनात्मक पक्षधरता के कारण था। तेंडुलकर का हिंदुत्व के प्रति आकर्षण थोड़े ही समय के लिए था। उन्होंने एक ही नाटक ‘घासीराम कोतवाल’ लिखा और पुनः सामाजिक नाटकों की ओर मुड़ गए।

बादल सरकार इससे तनिक भी विचलित नहीं हुए बल्कि घटनाओं के परिवर्तन से उग्र हो उठे। अपने पहले के नाटकों को ‘बुर्जुआ’ घोषित करते हुए वे ‘एजिट-प्रॉप थियेटर’ की ओर मुड़े। बादल सरकार एक उदास और कठोर व्यक्ति थे। वे ईसाई और उग्र वामपंथी थे। उनके कार्यों से वामपंथी क्रांतिकारी स्वरूप तो दिखता है, परंतु ईसाईयत नहीं। न तो पूर्ववर्ती और न ही उत्तरवर्ती एजिट-प्रॉप थियेटर के दौर में उन्होंने कभी भी ‘ईसाई भारत’ को प्रतिबिम्बित करने की कोशिश की। वे हमेशा समकालीन भारत की रचना करते रहे। मुझे लगता है कि हमने उनके साथ बहुत बुरा सलूक किया है।

बादल सरकार का तीसरा रंगमंच

और इसके बाद इब्राहिम अल्काज़ी! हममें से बहुत से लोग उन्हें आधुनिक भारतीय रंगमंच का पिता मानते हैं। साठ के दौर की ‘आषाढ़ का एक दिन’ और ‘तुगलक’ की उनकी प्रस्तुतियों ने उन्हें यह सम्मान प्रदान किया है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में उनकी शिक्षकीय नियमबद्धता के कारण उस दौर में रंगमंच में कार्यरत पीढ़ी के सामने वे ‘संस्कृति पुरुष’ जैसे थे। लेकिन उन्हें राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का निदेशक पद छोड़ना पड़ा और इसके साथ ही उन्होंने रंगमंच भी छोड़ दिया।

यह आकस्मिक नहीं था क्योंकि उनकी जगह लेने वाले स्व. ब. व. कारंथ दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी दल के प्रमुख नेता श्री एल.के. अडवानी की ज़ोरदार सिफारिश से आए थे। इसका यह अर्थ नहीं है कि कारंथ जी प्रतिभाशाली नहीं थे। वे बेहद प्रतिभावान थे और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का निदेशक पद सम्हालने के लिए पूरी तरह सक्षम भी थे।

हम यहाँ व्यक्तिगत प्रतिभा की बात नहीं कर रहे हैं बल्कि उन ऐतिहासिक स्थितियों की चर्चा कर रहे हैं, जहाँ कारंथ जी भारतीयता के हरकारे माने जा रहे थे। स्व. सुरेश अवस्थी और नेमिचंद्र जैन ने भारतीयता की वैचारिक भूमि बनाने में उन्हें महत्वपूर्ण सहयोग दिया। उन्होंने नए रंगकर्मियों को यह बतलाने की कोशिश की कि कैसे छद्म यथार्थ की रचना से नाट्यशास्त्र या रंगमंचीय निर्वाण की ओर पहुँचा जा सकता है। रतन थियाम, कावलम नारायण पणिक्कर, ब. व. कारंथ आदि इस नए बोध के रोल मॉडल बन गए। आगामी तीन दशक भारतीय रंगमंच के लिए उत्सवों के रहे। भारतीयता बोध को कभी क्षेत्रीय उत्सवों, कभी राष्ट्रीय उत्सवों और कभी संगोष्ठियों के माध्यम से उभारा गया।

LIEREMBIGEE ESHEI – Directed by Ratan Thiyam

दिल्ली में बैठे इन सांस्कृतिक फरमाबदारों ने असल में अल्काज़ी शैली के रंगमंच को दरकिनार कर उसके स्थान पर हिंदुत्ववादी रंगमंच को स्थापित करने में योगदान दिया। अल्काज़ी को पाश्चात्य मानसिकता का घोषित कर उनसे एक सम्मानजनक दूरी बनाई जा रही थी। अल्काज़ी संयोग से एक अरब मुस्लिम थे।

हबीब तनवीर

अब हबीब तनवीर का उदाहरण लें! जन्म से मुस्लिम, आचरण में कम्युनिस्ट और प्रस्तुति में भारतीय! हबीब साहब का भारतीयता के प्रति आकर्षण सन् पचास से ही रहा है। उन्होंने हमेशा लोकशैली में ही काम किया और हमेशा लोक कलाकारों के बीच ही रहे। प्रतीत हो सकता है कि वे भारतीयतावादी ब्रिगेड का नेतृत्व कर रहे थे। सच पूछा जाए तो अल्प काल के लिए इनके बीच काफी मधुर सम्बन्ध थे। लेकिन शीघ्र ही उन्हें इससे दोहरे नुकसान का अंदाज़ा हो गया और उन्होंने हबीब साहब को इन बातों से परे कर दिया। यह तो हबीब साहब की जिजीविषा थी कि उनको परास्त होना मंजूर नहीं था और अपने दल के साथ उन्होंने अपनी रंगयात्रा जारी रखी। जैसा कि हम सब जानते हैं कि हबीब साहब ने मुस्लिम भारत की रचना नहीं की बल्कि ग्रामीण भारत को रचा।

प्रतिभावान परंतु उपेक्षितों की सूची काफी लम्बी है। फ्रिट्ज़ बेनेविट्ज़, एम.एस.सत्थ्यु, मोहन उप्रेती, एम.के. रैना, गुरुशरण सिंह, बेरी जॉन, अमाल अल्लाना, देवेन्द्रराज अंकुर, रॉबिन दास, नसिरुद्दीन शाह, अरूण मुखर्जी, सत्यदेव दुबे, नादिरा बब्बर, वासवलिंगा, कीर्ति जैन, जी. शंकरा पिल्लै और यदि जोडूँ तो स्वयं मैं भी, साथ में अन्य और लोग भी। कोई भी इनमें से किसी को भी कभी भी उपेक्षित कर सकता है; कभी जन्म को लेकर, कभी राजनीतिक विचारधारा को लेकर या फिर जीवन शैली को लेकर।

हम मुख्य मुद्दे पर लौटें! सर्वप्रथम एक नाट्य-कृति को समकालीन होना चाहिए, बाकी बातें बाद में आती हैं। एक नाट्य-कृति का मूल्यांकन उसकी गुणवत्ता से होना चाहिए, न कि किसी विचारधारा के पूर्वग्रह के तहत। भारत एक विशाल देश है। भारतीय रंगमंच की समृद्ध परम्परा रही है, अतः कोई भी निर्देशक इसकी विभिन्न शैलियों में से किसी को भी चुन सकता है। इसीलिए दिल्ली-दरबार में बैठे कुछ कठमुल्लाओं द्वारा जारी फतवे के अनुसार कार्य करने की बंदिश नहीं होनी चाहिए।

गुरुशरण सिंह

हमने अभी तक अपनी समृद्ध परम्पराओं की ओर ध्यान न देकर कुछ अधकचरी सौंदर्यशास्त्रीय मान्यताओं को स्वीकार कर अपनेआप को मूर्ख बनाया है। रंगमंच को तो स्कूलों में, कारखानों के आसपास, कस्बों और अर्द्धविकसित शहरों में फलना-फूलना चाहिए। जब तक हम ऐसे लोगों को प्रोत्साहन नहीं देते, जो वहाँ रंगकर्म कर रहे हैं, तब तक उनका विकास किसतरह होगा? यदि बेरी जॉन, व्ही.के. शर्मा, के.जी. कृष्णमूर्ति आदि बाल रंगकर्म करना चाहते हैं तो उन्हें सामाजिक और आलोचनात्मक मान्यता मिलनी चाहिए। यदि बादल सरकार, बासवलिंगैया, गुरुशरण सिंह या अन्य लोग एजिट प्रॉप थियेटर करना चाहते हैं तो इसलिए कि, हज़ारों-लाखों लोग सड़कों पर आंदोलन कर रहे हैं। उन्हें भी वही मान्यता मिलनी चाहिए, जो कावलम नारायण पणिक्कर और रतन थियम को मिलती है। यदि बादल सरकार जैसे लोगों ने कभी विदेश-यात्रा या प्रस्तुति-अनुदान नहीं मांगा; रंजीत कपूर यदि शहरी लोकप्रिय रंगकर्म करना चाहते हैं तो उन्हें भी मान्यता मिलनी चाहिए। बी.एम. शाह ने कॉमेडी, मोहन उप्रेती ने संगीतात्मक और डी.आर. अंकुर ने कहानी का रंगमंच किया है अतः इन्हें इन शैलियों के विशेषज्ञ की मान्यता मिलनी चाहिए। यदि कीर्ति जैन, माया राव, अनुराधा कपूर, अनामिका हक्सर और लक्ष्मी लैंगिक समानता पर कार्य कर रही हैं तो उन्हें भी अपने काम को प्रस्तुत करने का पूरा अवसर एवं उचित स्थान मिलना चाहिए।

यहाँ किसी भी एक शैली को रंगमंच नहीं कह सकते। यहाँ बहुत सी शैलियाँ प्रचलित हैं। भारतीय रंगमंच इन विविध रंगमंचीय शैलियों का संघीय स्वरूप है। यहाँ तक कि, सच्चे भारतीय होने के लिए पीछे मुड़कर देखने की बजाय आगे की ओर देखना चाहिए। इसीलिए आइये, हम सब आगे बढ़ें – समकालीन रंगमंच की ओर।

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