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बर्टोल्ट ब्रेख्त के नाटक और राजनीति

बर्टोल्ट ब्रेख्त के नाटक और राजनीति

(यह लेख प्रगतिशील लेखक संघ, मुंबई इकाई द्वारा 14 अगस्त 2021 को बीसवीं सदी का महान नाटककार, कवि, विचारक बर्टोल्ट ब्रेख्त विषय पर आयोजित वेबिनार के लिए लिखा गया था।)

जर्मन नाटककार बर्टोल्ट ब्रेख्त ने रंगमंच की दुनिया में न केवल अपनी पृथक नाट्य-शैली स्थापित की, बल्कि रंगमंच से जुड़े अपने विचारों और प्रस्तुतीकरण के माध्यम से दुनिया को बदलने की पुरज़ोर कोशिश की। कार्ल मार्क्स के प्रसिद्ध वक्तव्य को उन्होंने अपने नाट्यकर्म के केन्द्र में रखा कि, सवाल केवल दुनिया को समझने का नहीं है, बल्कि उसे बदलने का भी है।

उनका स्पष्ट मत था कि बिना राजनीति समझे दुनिया को नहीं बदला जा सकता। वे इस बात पर बहुत ज़ोर देते थे कि, राजनीति हरेक व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करती है, इसीलिए राजनीतिक तौर पर शिक्षित होना बहुत ज़रूरी है। उनके इस प्रसिद्ध उद्धरण से यह बात आसानी से समझी जा सकती है –

‘‘सबसे ज़्यादा शिक्षित व्यक्ति वह होता है जो राजनीतिक रूप से अशिक्षित होता है। वह सुनता नहीं, बोलता नहीं, राजनीतिक सरगर्मियों में हिस्सा नहीं लेता। वह नहीं जानता कि ज़िंदगी की कीमत, सब्जियों, मछली, आटा, जूते और दवाओं के दाम तथा मकान का किराया – यह सब कुछ राजनीतिक फैसलों पर निर्भर करता है। राजनीतिक रूप से अशिक्षित व्यक्ति इतना घामड़ होता है कि वह इस बात पर घमण्ड करता है और छाती फुलाकर कहता है कि वह राजनीति से नफरत करता है। वह कूढ़मगज नहीं जानता कि उसकी राजनीतिक अज्ञानता किसतरह एक औरत को वेश्या, एक परित्यक्त बच्चे को चोर बनाती है और एक व्यक्ति को बुरा राजनीतिज्ञ बनाती है, जो भ्रष्ट राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों का टुकड़खोर चाकर होता है।’’ भारत की वर्तमान स्थितियों पर ब्रेख्त की यह टिप्पणी बहुत सटीक बैठती है।

ब्रेख्त की अपनी राजनीतिक समझ का विकास भी धीरे-धीरे हुआ है। 1918 से 1923 तक लिखे उनके आरम्भिक नाटकों में स्पष्ट राजनीतिक दृष्टि नहीं दिखाई देती। 1927 के आसपास वे मार्क्सवादी विचारधारा के सम्पर्क में आते हैं और उनके नाटकों में स्पष्ट राजनीतिक विचारधारा का प्रवेश होता है। हालाँकि, यह भी एक तथ्य है कि ब्रेख्त के नाटक और उनकी कविताएँ तथा कहानियों में भी हमें वैचारिक साम्य दिखता है। गजानन माधव मुक्तिबोध की तरह उनका समूचा रचना-संसार एकसूत्रता में बँधा हुआ है।

ब्रेख्त ने कुल 31 नाटक लिखे। उनकी नाट्य-शैली और वैचारिक विकास के परिप्रेक्ष्य में प्रमुख तीन चरणों में इनमें से कुछ नाटकों का उल्लेख किया जा सकता है।

पहला चरण है, युवावस्था के जोश और कुछ अराजक मनःस्थिति के साथ तत्कालीन परिस्थितियों को उजागर करना। इस चरण में हमें तीन नाटक दिखाई देते हैं – ‘बाल’, ‘ड्रम्स इन द नाइट’ तथा ‘इन द जंगल ऑफ सिटीज़’। ये नाटक क्रमशः 1918, 1919 तथा 1923 में लिखे गए हैं।


इसके बाद दूसरे चरण में उनके उन नाटकों की श्रृंखला दिखाई देती है, जो पूँजीवाद की विसंगतियों पर प्रहार करते हैं। इनमें प्रमुख हैं – ‘अ मैन इज़ अ मैन’’, ‘थ्री पेनी ऑपेरा’, ‘राइज़ एण्ड फॉल ऑफ द सिटी महागोनी’ तथा ‘ही हू सेज़ यस एण्ड ही हू सेज़ नो’।


तीसरे चरण में ब्रेख्त के उन नाटकों को लिया जा सकता है, जिसे कलाकारों और दर्शकों के वैचारिक प्रशिक्षण को केन्द्र में रखकर लिखा और खेला गया था। इनमें ‘द एक्सेप्शन एण्ड द रूल’, ‘द मेजर्स टेकन’, ‘द लाइफ ऑफ गैलीलियो’, ‘द गुड वुमैन ऑफ सैंजवान’ तथा ‘मदर करेज एण्ड हर चिल्ड्रेन’ हैं। इसी विकास का परिपक्व राजनीतिक विकास उनके अंतिम नाटक ‘द काकेशियन चॉक सर्कल’ में दिखता है। बर्टोल्ट ब्रेख्त का एक अन्य महत्वपूर्ण गीति नाट्य है, जिसका प्रसारण रेडियो नाटक के रूप में हुआ, ‘द ट्रायल ऑफ लुकुलस’

इस बात का उल्लेख यहाँ बहुत ज़रूरी है कि ब्रेख्त का अधिकांश नाट्यकर्म प्रथम विश्वयुद्ध से दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के कुछ वर्षों बाद तक व्याप्त है। उनका समूचा साहित्य-संसार ‘फासिज़्म’ को निरस्त कर, उसके खिलाफ संघर्ष की राजनीतिक दृष्टि विकसित करने वाला एक दीर्घ प्रयास रहा है। इसमें उनके व्यक्तिगत जीवन के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक अनुभवों का बहुत बड़ा हाथ रहा है।

विषय-विस्तार न हो, इसलिए हम यहाँ ब्रेख्त के सिर्फ रंगकर्म में निहित राजनीतिक चेतना पर ही अपनी चर्चा केन्द्रित कर रहे हैं।

ब्रेख्त के नाटकों में राजनीतिक चेतना हमें अनेक स्तरों पर दिखाई देती है। ब्रेख्त के नाट्य-अवधारणा का मूल है – नाटक मात्र मनोरंजन का नहीं, सामाजिक और राजनीतिक बदलाव का माध्यम होना चाहिए। रंगमंच दर्शक में विचार करने, उसमें सोचने-समझने की क्षमता विकसित करने तथा स्वयं जाँच-परखकर निर्णय लेने की क्षमता का विकास करने वाला होना चाहिए। नाटक देखने के बाद दर्शक मात्र मनोरंजन करके ही घर न लौटे बल्कि अपने साथ एक विचार लेकर जाए। नाटक से दर्शक में बेचैनी पैदा होनी चाहिए। ब्रेख्त नाटक के माध्यम से समाज के लोगों में राजनीतिक जागरूकता पैदा कर, राजनीतिक व्यवस्था में उनका योगदान सुनिश्चित करना चाहते थे। इसीलिए 1933 में नाज़ी शासन सत्ता स्थापित होने पर उनके लिए स्थितियाँ प्रतिकूल हो गईं और अंततः उन्हें देश छोड़ना पड़ा। 1933 से 1948 तक वे डेनमार्क, स्वीडन, फिनलैंड, सोवियत संघ, अमेरिका, स्विटज़रलैंड, आस्ट्रिया आदि देशों में रहते और निरंतर नाटक लिखते-खेलते हुए वापस 1948 में बर्लिन लौटे।

उनकी नाट्य-अवधारणा का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है, एपिक थियेटर और एलिनेशन इफेक्ट की अवधारणा। ब्रेख्त मंच पर चौथी दीवार की अवधारणा को अपने एपिक थियेटर में तोड़ते हैं। उनका मानना है कि यह चौथी दीवार दर्शक को सोचने-समझने से विरत कर, मंच पर चल रहे अभिनेताओं के क्रियाकलाप और कथा-प्रवाह में उसको डुबो देती है। जो कुछ दिखाया जा रहा है, वह उसे अपना ही जीवन मानकर, उसके कथा-प्रवाह में बह जाते हैं; परंतु ब्रेख्त इस दीवार को हटाकर दर्शक को सतर्क करते हैं।

The 4th wall is the imaginary barrier between the audience and the actors, also it was broken by the actors walking around in the audience and talking to them to keep them interested. The only information for a slide I have is that the 4th wall is the imaginary barrier between the audience and the actors, also it was broken by the actors walking around in the audience and talking to them to keep them interested.

जिसतरह किसी खेल का आँखों देखा हाल हमें ‘जजमेंटल’ बनाए रखता है, वैसी ही टीका-टिप्पणी नाटक देखते हुए भी नाटक के कथा और पात्रों पर की जानी चाहिए। दर्शक को ध्यान में रखना चाहिए कि वे एक नाटक देख रहे हैं। इसके लिए उनके नाटक का कोई अभिनेता अचानक दर्शकों को संबोधित करते हुए कोई बात करने लगता है या कोरस आकर गाना गाने लगता है, जिससे अभिनेताओं और दर्शकों के बीच की ‘चौथी दीवार’ टूटती है। दर्शक को नाटक के कथा-प्रवाह में बहने से रोकने के लिए ही ब्रेख्त ‘एलिनेशन इफेक्ट’ की अवधारणा पर ज़ोर देते हैं।

दर्शक और मंच पर चलने वाली गतिविधियों और पात्रों का अभिनेताओं से स्पष्ट अलगाव दिखाते हैं। अभिनेता को मंच पर किसतरह जागरूकता के साथ एलिनेट होना चाहिए, ताकि वह दर्शकों को भी जागरूक कर सके – ब्रेख्त की एक कविता से इसे समझा जा सकता है –

तुम, अभिनेता
दक्ष बनो अवलोकन में
दूसरी सभी कलाओं के पहले।

बेमानी है तुम कैसे दिखते हो,
लेकिन
तत्व उसी में है –
जो तुमने देखा और दिखा सकते हो।
सार उसी में है –
जो तुम्हारा प्रेक्षण है।
लोग तुम्हें देखेंगे यह देखने के लिए
कि तुमने कितना अच्छा देखा।

अतः तुम्हारी शिक्षा का प्रारम्भ
जीवंत मानव में हो।
तुम्हारा पहला विद्यालय हो –
तुम्हारा कर्मक्षेत्र, तुम्हारा घर, शहर का तुम्हारा कोना।
सड़कें, भूगर्भ रेलें, दुकानें।

परखो हर एक को।
अजनबी को –
गोया वह परिचित हो,
लेकिन परिचित को –
ज्यों वह अजनबी हो बिल्कुल।

प्रेक्षण के लिए
सीखना होगा तुलनात्मक विवेचन।

तुलना करने हेतु
प्रेक्षण आवश्यक है।

प्रेक्षण से ज्ञान उपजता है।

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दूसरी तरफ ज्ञान आवश्यक है प्रेक्षण हेतु।

और
वह कम परख पाता है,
जिसमें ज्ञान का अभाव है।

उसका उपयोग कैसे हो,
जो अवलोकन किया है?
माली सेव के पेड़ को
किसी राहगीर से ज़्यादा
पैनी दृष्टि से परखता है।
पर कोई देख नहीं पाता मनुष्य को – हू ब हू –
जब तक वह नहीं जानता –
मनुष्य का भाग्य मनुष्य ही है।

इस कविता का आशय यही है कि कलाकारों और दर्शकों को अपनी आँखें-कान और दिल-दिमाग खुले रखकर अपनी आसपास की परिस्थितियों का निरीक्षण और विश्लेषण करना सीखना होगा। ब्रेख्त के नाटकों में यह राजनीतिक प्रशिक्षण का हिस्सा है। वर्चस्ववादी राजनीति की वास्तविक विषम शोषणमूलक स्थितियों से निपटने के लिए सभी नागरिकों को जागरूक होना होगा। ब्रेख्त के नाटकों के चरित्र, कथानक, गीत-संगीत आदि में यह बात काफी कर्कशता के साथ कही जाती है। ब्रेख्त का मानना था कि दर्शकों को यह बताया जाना चाहिए कि दुनिया कैसे बदल सकती है! उसका बदलना कितना ज़रूरी है और क्यों? यथार्थ के बारे में सिर्फ सूचना देना या विवरण देना पर्याप्त नहीं होता बल्कि यथार्थ घटनाओं पर वाद-विवाद हो, कार्य-कारण पर बहस हो, यथार्थ की विसंगतियाँ कैसे बदली जाएँ, इस पर बहस हो। नाटक में इनके प्रति रचनात्मक-समीक्षात्मक दृष्टि होनी चाहिए। इसकी दिशा जटिल मानव-समस्याओं के वर्गीय स्वरूप की पहचान करना, वर्ग-चेतना तीव्र करना तथा उसके आधार पर नए जवाब, नए संकल्प सुझाने की होनी चाहिए। ब्रेख्त उद्देश्य एवं दृष्टिकोण की एकता के पक्षधर थे। यही ब्रेख्त के नाटकों का राजनीतिक उद्देश्य था।

इसे ही उन्होंने आगे चलकर ‘द्वन्द्वात्मक रंगमंच’ या ‘डायलेक्टिकल थियेटर’ कहा। अभिनेता और दर्शकों के बीच क्रिया-प्रतिक्रिया हो, इसके लिए उन्होंने अपने नाटकों में अभिनय, मंच-सज्जा, रूपसज्जा, गीत-संगीत, प्रकाश-व्यवस्था, मंच पर पात्रों का प्रवेश और निर्गम, उनकी गतिविधियों में आमूलचूल बदलाव किया। उनके नाट्य-आलेखों और मंचनों में कथा-प्रवाह में बार-बार व्यवधान लाया जाता है। मगर यह व्यवधान बहुत सोच-समझकर लाया जाता है।

प्रसिद्ध मार्क्सवादी विचारक नाटककार गोविंद पुरुषोत्तम देशपांडे ने इसी ‘द्वन्द्वात्मक रंगमंच’ को ‘प्रबोधन रंगमंच’ (डिडेक्टिक थियेटर) कहा है। 16 जून 1984 को लोकमंच द्वारा आयोजित गोपु देशपांडे के व्याख्यान के कुछ अंश मैं यहाँ उद्धृत करना चाहती हूँ ताकि यह समझने में आसानी हो कि, ब्रेख्त अपने नाटकों के माध्यम से किसतरह सूक्ष्म स्तर पर राजनीतिक चेतना जागृत करना चाहते थे।

एपिक थियेटर और डिडेक्टिक थियेटर का फर्क स्पष्ट करते हुए गोपु कहते हैं, ‘‘ब्रेख्त का प्रबोधन नाटक अभिनेताओं तथा नाट्यकर्मियों का प्रबोधन करता है। प्रतिदिन के जीवन-व्यापारों से ही नाटक करने वाले स्वयमेव शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। कोई समस्या, उसका विश्लेषण, उठाए हुए सवाल का सटीक स्वरूप तथा उसके लिए सबसे सही आचार-व्यवहार सम्बन्धी चर्चा प्रबोधन नाटक में नाट्य-गतिविधियों के द्वारा ही सम्पन्न होती है। जनशिक्षा की यह पद्धति एपिक नाटकों से निस्संदेह अलग है, दोतरफा व्यवहार की है। कला के माध्यम से राजनीतिक प्रशिक्षण का यह प्रयास ब्रेख्त को ‘सर्वहारा संस्कृति’ के निर्माण की ओर ले जाता है। ब्रेख्त के नाटकों की घटनाएँ एवं चरित्र उनकी इसी दृष्टि को अलग-अलग पहलुओं में व्यक्त करती हैं। डिडेक्टिक थियेटर का मूल उद्देश्य ही है –

‘‘जो कलाकार अन्य लोगों के प्रबोधन के लिए प्रयासरत हैं, उनका भी प्रबोधन करने की आवश्यकता होती है।’’ यह नाटक अभिनेताओं तथा नाट्यकर्मियों का प्रबोधन करता है।’’

‘‘ब्रेख्त कहते हैं कि ‘प्रबोधन नाटक खेलने वालों के लिए लिखा गया नाटक है अर्थात यह नाटक विशिष्ट वैचारिक स्तर तक पहुँचे लोग ही समझ सकते हैं। जैसे यदि ‘मेजर्स टेकन’ नामक नाटक क्रांति सम्बन्धी बातों की कुछ हद तक सही समझ प्राप्त कर चुके मज़दूरों तथा अन्य लोगों द्वारा खेला जाए तभी उसमें उठाए गए सवाल को ठीक से जज़्ब किया जा सकेगा।’

‘‘एपिक नाटक’ विशिष्ट (बुर्जुआ) विचारधारा, जीवन-पद्धति का पर्दाफाश करता है, उस पर टिप्पणी करता है और प्रबोधन नाटक उस पर्दाफाश हो चुकी विचारधारा का सामना करके, उसमें संघर्ष करके व्यवहार तथा कार्यवाही निश्चित करता है।’’

‘‘ब्रेख्त वर्ग-विभाजन का सिद्धांत मानते थे। क्रांति कला के द्वारा होती है, ऐसी खुशफहमी उन्हें नहीं थी, परन्तु वे मानते थे कि क्रांतिकारियों तथा नाट्यकर्मियों के जीवन-अनुभव को समृद्ध करने के लिए कला उपयोगी सिद्ध हो सकती है तथा क्रांतिकारिता की ओर ले जाने वाला रास्ता दिखला सकती है। ब्रेख्त ने इस बात पर ज़ोर दिया कि प्रबोधन नाटक भी सौंदर्यशास्त्रीय साँचे में ढला हुआ होना चाहिए। उससे मनोरंजन हो तथा वह उबाऊ न हो – नाटक के ये सामान्य नियम प्रबोधन नाटक पर भी लागू होते हैं। विशिष्ट सिद्धांतों का पोथा हाथ में लेते ही कोई व्यक्ति यथार्थ का सही अर्थ-बोध करना नहीं सीख जाता। वैचारिक साहित्य के माध्यम से बौद्धिक स्तर पर यथार्थ-बोध का अन्वेषण किया जा सकता है तथा उसका प्रबोधन हो सकता है। परन्तु कलाकार का कलात्मक स्तर पर भी प्रबोधन हो पाने की आवश्यकता होती है, इसके बिना वह अपना झण्डा कहीं नहीं गाड़ सकता। यह कर सकने वाला नाटक ‘डिडैक्टिक नाटक’ है। नाटककार या अभिनेता कला के माध्यम से ही उसकी समस्याओं का हल प्राप्त कर सकता है, किसी वैचारिक ग्रंथ को पढ़कर नहीं। ब्रेष्ट का विचार था कि कलात्मक समझ विकसित होने के लिए प्रबोधन नाटक में उठाई गई समस्या पर ‘कार्यवाही’ के तौर पर कोई निबन्ध न लिखकर पुनः नाटक ही खेला जाना चाहिए।’’

ब्रेख्त ने अपने ‘एपिक थियेटर’, ‘डायलेक्टिकल थियेटर’ तथा ‘डिडेक्टिक थियेटर’ की जो अवधारणा प्रस्तुत की, वह ‘एजिट-प्रॉप थियेटर’ या भारत में सड़क नाटक के नए रास्ते खोलने में सक्षम रही। साथ ही साथ उन्होंने भारतीय लोकनाट्यों को नए आधुनिक दृष्टि से वैचारिक भूमिका के साथ बरते जाने की भी प्रेरणा प्रदान की। हिंदी में हबीब तनवीर, सफदर हाशमी और मराठी में विजय तेंडुलकर तथा रत्नाकर मतकरी के अनेक नाटक इसके उदाहरण हैं। अन्य भारतीय भाषाओं में भी ब्रेख्त का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।

अंत में गोपु देशपांडे के ही शब्दों में मैं अपनी बात समाप्त करना चाहती हूँ कि, ‘‘ब्रेख्त ने नाट्य-विचार तथा राजनीतिक विचारों में विलगाव न आने देने का जागरूक प्रयत्न किया। उन्होंने नाट्यकर्म तक सीमित रहकर, कलात्मक स्तर पर, कलात्मक पद्धति से ही समस्या से जूझकर, उसके विश्लेषण की प्रक्रिया प्रारम्भ करने के लिए प्रबोधन नाटक की अवधारणा को जन्म दिया तथा गिने-चुने नाटकों का प्रादर्श के तौर पर सृजन किया।’’

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View Comments (2)
  • ज़रूरी आलेख है.
    ब्रेख़्त को पढ़ना और समझना अपने आप में प्रबोधन की प्रक्रिया का हिस्सा है जो हमें सामाजिक और राजानीतिक तौर पर मनुष्यत्व के रास्ते में आगे बढ़ाने में मददगार होती है.

  • अच्छा लेख जो ब्रेख्त की गहरी अंतर्दृष्टि और वर्गीय प्रतिबद्धता को उजागर करता है।

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