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बर्टोल्ट ब्रेष्ट का एपिक थियेटर

बर्टोल्ट ब्रेष्ट का एपिक थियेटर

(मराठी चिंतक साहित्यकार सुधीर बेड़ेकर की किताब ‘हजार हातांचा ऑक्टोपस’ का यह हिस्सा बर्टोल्ट ब्रेष्ट के नाटक और रंगमंच संबंधी विचारों पर केन्द्रित है। ‘दुनिया बदलने के लिए’ दर्शकों और कलाकारों को जागरूक करने में नाटक और रंगमंच किसतरह सहायक हो सकता है, इस उद्देश्य से ब्रेष्ट ने तत्कालीन रंगमंचीय रूढ़ियों से पृथक अपनी खुद की अवधारणा रची, इसके लिए वे लगातार प्रयोगात्मक नाटक लिखते रहे और उनका मंचन करके पुरानी रूढ़ियों को तोड़ते रहे। समय के साथ अपनी अवधारणाओं में भी परिवर्तन करते रहे। मराठी में लिखे इस लेख का मेरे द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद साहित्य अकादेमी की द्वैमासिक पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य के नवम्बर-दिसम्बर 2010 के 152वें अंक में प्रकाशित हुआ था। यहाँ प्रस्तुत हैं दो कड़ियों में लेख के चुनिंदा अंश – उषा वैरागकर आठले)

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट

आइन्स्टीन ने कहा था कि ‘‘लिफ्ट से ऊपर जाने वाले और प्रकाश किरण के पीछे भागने वाले एक आदमी के बारे में मैं बचपन से सोचता आया हूँ। देखिए, इसी सोच में से आगे किन-किन खोजों ने जन्म लिया।’’ यह उद्धरण देते हुए ब्रेष्ट ने बताया कि ‘‘सवाल सिर्फ दुनिया को समझने का नहीं, वरन उसे बदलने का है’’, उन्होंने इस सूत्र को जीवन भर रंगकर्म के लिए लागू करने की कोशिश की। ब्रेष्ट की कविताओं, कहानियों, नाटकों और उनके सिद्धांतों को समझने के लिए उनकी इस बात को केन्द्र में रखना चाहिए। उन्होंने अपने नाट्य-लेखन में, प्रयोगों और विचारों में और न केवल रंगकर्म में, अपितु आधुनिक कला के व्यापक क्षेत्र में भी आम समस्याओं के हल ढूँढ़ने की कोशिश की। इसीलिए ब्रेष्ट के विचार कला के प्रति प्रतिबद्ध और कलात्मकता को दुनिया बदलने का हथियार मानने वाले और इस दिशा में अग्रसर कलाकारों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।

इस लेख के भाग एक में ब्रेष्ट के एपिक थियेटर की अवधारणा का जन्म और विकास, भाग दो और तीन में इस अवधारणा का विवेचन-विश्लेषण तथा भाग चार में एपिक थियेटर के परिप्रेक्ष्य में अभिनय, रंगमंच, प्रकाश-योजना, संगीत आदि तकनीकी पक्षों पर ब्रेष्ट द्वारा किये गये प्रयोगों की चर्चा की जाएगी। ब्रेष्ट के प्रारम्भिक विचार तत्कालीन जर्मन रंगकर्म के बारे में एक प्रतिभाशाली युवा कलाकार की प्रतिक्रिया के रूप में सामने आते हैं, जिनमें कुछ एकांगिता है।

ब्रेष्ट ने सन् 1927 में मार्क्सवाद का अध्ययन आरम्भ किया, जिससे उनकी समझ अधिक स्पष्ट और पुष्ट होती चली गई। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद उन्होंने अपने एकांगी विचारों को पुनर्गठित कर ‘द्वन्द्वात्मक रंगकर्म’ की अवधारणा प्रस्तुत की। भाग पाँच में इस पर चर्चा की गई है। ब्रेष्ट के सभी उद्धरण जॉने बिनेट की पुस्तक ‘ब्रेष्ट ऑन थियेटर’ से लिये गये हैं।

(एक)

ब्रेष्ट का जन्म 10 फरवरी 1898 को एक उच्चमध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। तत्कालीन धार्मिक परिवेश के कारण उनमें भी नैतिक मूल्यों के प्रति आस्था पैदा हुई, जिसका प्रगतिशील प्रभाव उनके आगामी कामों पर निरंतर दिखाई देता रहा। जर्मनी में वह समय पूँजीवादी क्रूरता और युद्धपिपासु राष्ट्रवाद का था। बिस्मार्क के शासन से लेकर प्रथम विश्वयुद्ध तक की परिस्थितियों का प्रभाव उन पर पड़ा। सन् 1917 में चिकित्साशास्त्र और अन्य विज्ञानों का अध्ययन करने वे म्युनिख पहुँचे। युद्ध समाप्त होने के एक वर्ष बाद सन् 1920 में उन्होंने नाटक की दुनिया में पदार्पण किया। बेरोज़गारी, भूखमरी और युद्ध के कारण विकृत हो चुकी परिस्थितियों के परिणामस्वरूप वे भी विद्रोही हो गए तथा माथे तक बाल काटकर मज़दूरों की तरह कपड़े पहनने लगे। रोजा लक्ज़म्बर्ग और लाइबनिख़्त की शहादत और उस समय की इकलौती कम्युनिस्ट पार्टी की जुझारू भूमिका ने उन्हें आकर्षित किया परन्तु सन् 1930 तक कम्युनिस्ट विचारों के विपरीत उनके भावजगत और नैतिक मूल्यों में एक प्रकार की अराजकता दिखाई देती है।

ब्रेष्ट के ज़माने में जर्मन रंगकर्म आत्ममुग्ध बुर्जुआ प्रवृत्तियों का पक्षधर था। उस समय के नाटकों में मानवीयता, महानता और उदात्तता की भावुक प्रस्तुति का ढोंग रचा जा रहा था। इसके अतिरिक्त ‘विशुद्ध कलात्मक आनंद’ और ‘कला कला के लिए’ जैसी अवधारणाएँ फल-फूल रही थीं। ब्रेष्ट ने अपने एक आरम्भिक लेख ‘क्रीड़ा की प्रमुखता’ में रंगमंच और मुक्केबाज़ी के मंच की परस्पर तुलना की है। उनका कहना था कि, नाटक का उद्देश्य मूलतया दर्शकों को आनंद प्रदान करना या उनका मनोरंजन करना ही होता है। ब्रेष्ट की यह अवधारणा पहली नज़र में सतही लग सकती है, परन्तु इसकी पृष्ठभूमि में बहुत महत्वपूर्ण विचार है। पहले यह माना जाता था कि नाटक में दर्शक की समरसता से उसे एक तन्मयता और आनंदावस्था प्राप्त होती है। दर्शक को सह-अनुभव से गुज़ारकर कुर्सी से चिपकाने की, उसे एक अद्भुत परन्तु भ्रामक दुनिया में पहुँचाकर कला-सौंदर्य के रस में डुबकियाँ लगवाने की कोशिश की जाती थी। ब्रेष्ट ने इस प्रवृत्ति का विरोध किया। उन्होंने दर्शकों को प्रेक्षागृह में धूम्रपान की छूट देने पर ज़ोर दिया। उनके मतानुसार, बालकनी में बैठकर चुरुट पीने वाला दर्शक पूरी तटस्थता के साथ नाट्य-प्रस्तुति का आनंद ले सकेगा क्योंकि बाहर क्लॉक रूम में टोपी और छाते के साथ दर्शक अपना सहज ‘मन’ भी छोड़ आता है और फिर कुछ नया ‘अनुभव’ देखने की तैयारी के साथ कुर्सी पर औपचारिक ढंग से बैठकर नाटक देखता है। जबकि सिगरेट पीने वाला दर्शक कभी भी औपचारिक नहीं रह पाएगा और वह मज़ा लेकर नाटक देखेगा। दर्शक के रूप में वह अपनी स्वतंत्रता बनाए रख सकेगा। आम तौर पर वह अपनी स्वतंत्रता निर्देशक के हाथ में सौंप देता है, जिससे उसका नाट्य-अनुभव सिर्फ ‘हिप्नॉटिक तंद्रा’ या अफीम के नशे जैसा होता है और वह जड़ हो जाता है।

दर्शकों को नाटक पसंद न आये तो …

इस तरह ब्रेष्ट ने ‘सिगरेट पीने वाले दर्शकों के लिए रंगकर्म’ जैसे नए प्रयोग की शुरुआत की। उन्होंने कहा, ‘‘मैं अपने दर्शकों से हमेशा एक दूरी बनाए रखता हूँ। दर्शकों को प्रभावित करने की युक्तियों का इस्तेमाल एक सीमा तक ही करता हूँ। दर्शक की तटस्थता बरकरार रख कर उसे सह-अनुभूति में डूबने का निमंत्रण न देकर, मैं उसे नाटक दिखाता हूँ। दर्शक को यह कभी नहीं लगना चाहिए कि वे नायक की तरह महान और शाश्वत हैं। नाटक में कुछ एकदम अनोखा और आश्चर्यजनक दिखाए जाने पर दर्शक अधिक उच्च कोटि का रस प्राप्त कर सकता है।’’ दर्शक को आँसू बहाने, गहरी-गहरी साँसें छोड़ने, मुट्ठियाँ कसने या मगन कर देने वाली कला के स्थान पर उसकी विवेक-बुद्धि को जागृत करने वाली कला का सृजन करना, ब्रेष्ट का लक्ष्य था। दर्शक में बौद्धिकता, तटस्थता और दिमागी वैचारिक कसरत द्वारा आनंद प्राप्त करने की क्षमता होनी चाहिए और नाटक द्वारा इस तरह की बौद्धिक भूख का शमन होना चाहिए। ब्रेष्ट ने एक साक्षात्कार में कहा है, ‘‘मेरे नाटकों में मैं भावनाओं को प्रवेश नहीं करने देता… अत्यंत शास्त्रीय, तटस्थ और वैचारिक कोटि के नाट्य-प्रयोग में मेरी रूचि होती है। जिन्हें अपने भावुक हृदय को सहलाना अच्छा लगता है, ऐसे दर्शकों के लिए मैं नाटक नहीं लिखता।’’ यहाँ जीवन एवं कला के प्रति एक विशिष्ट दृष्टिकोण दिखाई देता है। इन दोनों के बीच स्वस्थ्य संबंध बनाने के लिए ब्रेष्ट प्रयत्नशील थे। उस समय कला का उद्देश्य एक वायवीय दुनिया में पलायन करना ही था। ब्रेष्ट ने इस तरह के उद्देश्य का विरोध किया। उन्होंने इस विचार-सूत्र की रचना की कि जीवन-संघर्ष का मजबूती से खुलकर सामना करने, समस्याओं को हल करने की दिशा में सोचने से ही सच्ची कला का सृजन होता है। दर्शक को झूठी कहानियाँ दिखाने से उनकी विचार शक्ति जागृत नहीं हो सकती, उन्हें उनके आसपास की वास्तविक दुनिया का साक्षात्कार करवाना ज़रूरी है। यदि नाटक में दुनिया की विलक्षण, जटिल घटनाओं का चित्रण ही हो तो दर्शक उसे सुलझाने की काशिश करेगा और उसको उसमें ही आनंद आने लगेगा। ‘‘मैं दर्शकों के सामने तटस्थ होकर घटनाओं को प्रस्तुत करता हूँ ताकि उन्हें स्वतः सोचने का अवसर मिले। मेरे पात्र परकाया-प्रवेश के लिए नहीं होते, बल्कि वे इस तरह प्रस्तुत होते हैं कि दर्शक उन्हें समझने की कोशिश करे।’’ इसीलिए ब्रेष्ट ने अपने आसपास की सामाजिक घटनाओं का उपयोग विषयवस्तु के रूप में किया। जैसे – पेट्रोलियम-खानों में मज़दूरों का जीवन, कारखाने और युद्ध में मनुष्य के परस्पर संबंध आदि। ‘दिव्य’, ‘महान’, प्रेम और त्याग’ पर आधारित तत्कालीन नाट्य-जगत के लिए यह एक नया प्रयोग था।

A performance of Berthold Brecht’s and Kurt Weill’s ‘Die Dreigroschenoper’ or ‘The Threepenny Opera’, which opened at the Theater am Schiffbauerdamm in 1928. (Photo by Erich Auerbach/Getty Images)

मनुष्य के लिए इस जन-जीवन को समझने की दृष्टि प्राप्त करने की आवश्यकता वे क्यों महसूस करते हैं? इसका एक ही जवाब था कि नाटक से दर्शक का मनोरंजन भी हो और साथ ही इसके माध्यम से वह दुनिया को समझकर बदल सके। अलौकिक कलात्मक आनंद में लिप्त रंगकर्म को मुक्त कर उसे सृजनशील, रचनात्मक प्रवृत्तियों की ओर अग्रसर करना ब्रेष्ट का उद्देश्य था। उन्होंने लिखा था, ‘‘वर्तमान में लिखे जाने वाले अधिकांश नाटक एपिक थियेटर की परिकल्पना पर आधारित हैं। यह दृष्टि समाजशास्त्रीय दृष्टि के समानांतर है। हालाँकि इस दृष्टि से परिचित इने-गिने लोगों को ही इन नए नाटकों का निहितार्थ और शैली समझ में आएगी, परन्तु अपने आसपास की घटनाओं के प्रति जिज्ञासा पैदा करने, उनकी तहें खोलकर समझाने, उनमें तारतम्य और संगति स्थापित करने और उनके रास्ते की बाधाएँ दूर कर उन्हें दिशा दिखाने के लिए नए लेखक लिख रहे हैं।’’

ब्रेष्ट का हाफ कर्टेन, जिसमें मंच के पीछे का दृश्य भी दर्शक को दिखे और वे सतर्क रहें कि मंच पर नाटक चल रहा है, उसमें डूबे नहीं, बल्कि विचार करें।

एपिक थियेटर की अवधारणा ब्रेष्ट के दिमाग में आरम्भ से ही बीज रूप में विद्यमान थी। ‘जागरूक अभिनय’, ‘भावनाहीन तटस्थ वृत्ति’ आसपास की नई और जटिल सामाजिक गतिविधियों का वर्णन’ और ‘दुनिया बदलने की इच्छा’ – इन चार सूत्रों पर ब्रेष्ट के नाटक संबंधी विचार विकसित हुए। सन् 1927 के आसपास उन्होंने सर्वप्रथम मार्क्स को पढ़ा और लिखा, ‘‘पूँजी पढ़ने के बाद मुझे अपने नाटक और अच्छी तरह समझ में आने लगे। हालाँकि इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि मैंने अनजाने में ढेरों मार्क्सवादी नाटक लिख मारे हैं। मगर मुझे लगा कि मार्क्स मेरे नाटकों के योग्य दर्शक हो सकते हैं। मेरे नाटक उनकी बुद्धि के लिए अच्छी खाद्य सामग्री हो सकते हैं।’’

इस प्रारम्भिक और स्थूल विवेचन की कुछ बातों को आगे चलकर ब्रेष्ट ने सूक्ष्मता और कलात्मक गहराई प्रदान की। इसमें उन्हें मार्क्सवादी दर्शन से सहायता मिली। सन् 1928 में उन्हें अपने नाटक थ्री पेनी ऑपेरा से बहुत प्रसिद्धि मिली। उस समय पूँजीवादी विश्व में मंदी और फासिस्ट ताकतों के हावी होने के कारण ब्रेष्ट कम्युनिज़्म की ओर बढ़े। इसी वर्ष हेलेन वीगल नामक अभिनेत्री से उनका विवाह सम्पन्न हुआ। फासिस्ट शासन ने गोर्की के माँ उपन्यास पर आधारित इसी नाम के नाटक के मंचनों और उनकी पुस्तकों पर पाबंदी लगा दी। सन् 1933 से 1945 तक वे जर्मनी से बाहर रहे। इसी दौरान उन्होंने गैलीलियो और मदर करेज जैसे प्रसिद्ध नाटक लिखे।

(दो)

‘‘मनोरंजन के उद्देश्य के तहत यथार्थ या कल्पित घटनाओं के बीच मनुष्य के परस्पर संबंधों का चित्रण ही नाटक कहलाता है।’’ नाटक की यह परिभाषा देते हुए ब्रेष्ट आगे लिखते हैं, ‘‘अन्य कलाओं की तरह रंगकर्म का पहला और आखिरी उद्देश्य लोगों का मनोरंजन करना ही होता है। नाटक करने के लिए किसी दूसरे लाइसेंस की आवश्यकता नहीं है।’’

ब्रेष्ट की मनोरंजन और शिक्षा संबंधी अवधारणा को अच्छी तरह समझ लेना ज़रूरी है। मज़ा आना, मनोरंजन होना, अच्छा लगना – इसे वे सतही मनोरंजन से अलग मानते हैं। कला का मूल उद्देश्य कैथार्सिस या शुद्ध कलानंद प्रदान करने जैसा अप्राकृतिक नहीं होता। कला जीते-जागते मनुष्य के जीवन का एक हिस्सा होती है। कला का उद्देश्य और जीवन में उसके विशिष्ट स्थान को स्वीकार करते हुए भी उसको जीवन से पृथक अमानवीय या अलौकिक नहीं माना जा सकता। स्वस्थ और स्तरीय मनोरंजन के माध्यम से व्यक्ति के भीतर अवस्थित मानवीयता और रसिकता में विशेष संतुलन स्थापित होता है। इंद्रियजनित या भावनाओं को उत्तेजित करने वाले मनोरंजन की बात ब्रेष्ट नहीं करते बल्कि उनका मानना है कि आवश्यक तटस्थता बनाए रखकर बौद्धिक और व्यंग्यात्मक दृष्टि से कलाकृति को देखने वाला दर्शक उससे अधिक रस-ग्रहण कर पाएगा, अधिक आनंद प्राप्त कर पाएगा। पहेलियाँ हल करने में शौकीन, चित्र देखकर समझने वाले बुद्धिमान और सुसंस्कृत मनुष्य का मनोरंजन ही ब्रेष्ट चाहते थे। उनका मानना था, ‘‘जिसतरह संभोग के माध्यम से प्रेम की भावना अधिक गहरी, जटिल और समृद्ध रूप धारण करती है, आत्मीय संवाद स्थापित करती है और तीव्र अंतर्विरोधों को हल कर रचनात्मक बनाती है, उसी तरह नित्य प्रति की भावनाएँ अच्छे नाटकों से रचनात्मकता की ओर अग्रसर होती हैं और जटिल, बौद्धिक आनंद को जन्म देती हैं।’’ संक्षेप में, एक ओर पाशविक सुख और दूसरी ओर तथाकथित अलौकिक और दैवीय आनंद दोनों अतियों का विरोध कर ब्रेष्ट ने ‘कला, रसिक मनुष्य के लिए’ जैसा सरल-सीधा सूत्र प्रस्तुत किया।

आज के विज्ञान-युग में उच्चस्तरीय मनोरंजन किस तरह का हो सकता है? विज्ञान ने भौतिक जगत बदलने और अधिक अच्छी तरह उत्पादन करने की क्षमता मनुष्य में पैदा की है। साथ ही दुनिया को समझ लेने की प्रवृत्तियाँ भी मनुष्य में विकसित की है। इस ‘समझ को बदलने की दृष्टि’ के अंतर्गत विज्ञान का उपयोग शासक और शोषक पूँजीपति वर्ग ने सिर्फ भौतिक जगत तक सीमित रखा। समाज-व्यवस्था और इंसानों की मानसिकता बदलने के लिए इस सक्रिय, प्रयोगशील और तार्किक समीक्षा-दृष्टि का उपयोग वे नहीं होने देना चाहते। यही कारण है कि वैज्ञानिक विचार-पद्धति एवं तदनुरूप भाव-जीवन जीने की सही शैली अब तक जन-सामान्य तक नहीं पहुँची है। मार्क्स ने इस वैज्ञानिक दृष्टि को सामाजिक विचारों और व्यवहारों में उतारने की कोशिश की। मार्क्स के इसी काम को नई कला आगे बढ़ाएगी और जन-सामान्य में इस अत्याधुनिक और सुसंस्कृत प्रवृत्ति को आत्मसात करने की शिक्षा देगी। अर्थात, ‘‘विज्ञान और कला की यह संयुक्त नींव है, जिससे मानव-जीवन सुखी हो सकता है। आने वाले समय में विज्ञान-प्रदत्त प्रवृत्तियों का उपयोग कला द्वारा मनोरंजन के लिए होगा… और इसतरह की कला सर्वोच्च आनंद प्रदान करेगी।’’

एपिक थियेटर दर्शक को भावनाओं के तूफान में उड़ा ले जाने और लपेटने की बजाय रंगमंच पर दिखने वाले यथार्थ से स्वयं को बदलने की इच्छा पैदा करने वाला है, यह दर्शक को कुर्सी में मोहाविष्ट होकर बैठाने के स्थान पर स्वयं संघर्ष करने और क्रियाशील होने की प्रेरणा देने वाला रंगकर्म होगा। मनोरंजन के साथ-साथ एक नए प्रकार का जीवन जीने की शिक्षा प्रदान करेगा। ब्रेष्ट एक स्थान पर कहते हैं कि आज के विज्ञान-युग में आनंद-प्राप्ति के बिना सच्ची शिक्षा संभव नहीं है। इसके विपरीत कुछ नया सीखने के दौरान ही सुसंस्कृत मनुष्य को खुशी होगी। किसी अजनबी, अनोखी वस्तु का प्रयोग या आविष्कार अथवा रचना ही मनुष्य को बहुत कुछ सिखा जाती है और इसी में उसे सृजनात्मक आनंद भी प्राप्त होता है। शालेय शिक्षा की भयप्रद स्मृतियों के विपरीत हम कला में विशुद्ध आनंद प्राप्त करने की कोशिश करते हैं परन्तु यह पलायन है; यह कला न होकर नशा लाने वाली गाँजे की चिलम है। मनुष्य को सुसंस्कृत बनाने के लिए अब हिमालय पर जाकर तपस्या करने, समाधिस्थ होने या स्वयं को किसी चौखट में बाँधने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि संघर्ष करने से मिलने वाली खुशी और आनंद की ओर मनुष्य का ध्यान आकर्षित किया जाना है। नाटक क्रांति की शिक्षा देने वाला समाजशास्त्रीय प्रस्तुतीकरण नहीं है बल्कि आनंद प्रदान करने के कला के मूल उद्देश्य को शिक्षा के साथ सम्मिलित कर प्रदर्शित करता है। विषयवस्तु के साथ रसिक को समरस करने वाली, कलात्मकता का छिपाकर इस्तेमाल करने वाली कला दर्शक को तदाकार कर लेती है, उसे प्रशंसात्मक उद्गार व्यक्त करने के लिए बाध्य करती है; इसके विपरीत ब्रेष्ट कला की कलात्मकता का खुलकर उपयोग कर, रसिक को कलात्मक क्रीड़ा में शामिल कर उससे बौद्धिक संवाद कायम करके एक अलग प्रकार का आनंद देने वाली नई कला का जनक है।

पूँजीवादी कला ‘‘प्रेक्षागृह के दर्शक को उसके आसपास के सच्चे, संघर्षपूर्ण यथार्थ के स्थान पर एक झूठा, सुसंगत प्रति-जगत दिखाकर लुभाती है।’’ यह कला दर्शक को एक सुंदर ‘सपना दिखाकर’ वापस भेज देती है। रंगमंच पर शिवाजी का अभिनय देखकर प्रेक्षागृह में हज़ारों शिवाजी तात्कालिक रूप में जन्म लेते हैं, जो नाटक समाप्त होने के बाद वहीं खत्म हो जाते हैं। उन्हें नहीं बताया जाता कि दुनिया कैसे बदल सकती है। ब्रेष्ट पूछते हैं, ‘‘ऐसी स्वप्नवत व्यक्तिरेखाएँ, जो जड़ आत्मा को अंधेरे में रखकर शरीर द्वारा चमकदार रंगमंच पर अभिनय करती हैं, उनमें कब तक परकाया-प्रवेश होता रहेगा?’’ शिक्षा का विषय क्या हो? किस आधार पर मनोरंजन किया जाना चाहिए? यह स्पष्ट करने के लिए आसपास के खुरदुरे यथार्थ का प्रस्तुतीकरण कला द्वारा अवश्य किया जाना चाहिए।

प्लेकार्ड का उपयोग – समसामयिक समस्याओं पर सीधे ध्यान आकर्षित करने के लिए

सामाजिक जीवन के पारस्परिक मानव-संबंधों को नाटक का विषय बनाया जाना चाहिए। इस कला की दिशा जटिल मानव-समस्याओं के वर्गीय स्वरूप की पहचान करना, वर्ग-चेतना तीव्र करना तथा उसके आधार पर नए जवाब, नए संकल्प सुझाने की होनी चाहिए। ब्रेष्ट उद्देश्य एवं दृष्टिकोण की एकता के पक्षधर थे। अतः दर्शक की सोच को तटस्थ और स्वतंत्र रखकर उसे यथार्थ संबंधी मनोरंजन और शिक्षा देने के लिए किस नए शिल्प को चुना जाना चाहिए? यह नया शिल्प एपिक थियेटर का हो सकता है। ब्रेष्ट कहते हैं, ‘‘मुझे यह विनम्रता के साथ कहना पड़ रहा है कि आज किसी सामान्य समाचार पत्र की किसी खबर पर नाटक तैयार करने के लिए शेक्सपियर या इब्सन की शैली अपर्याप्त होगी।’’

ब्रेष्ट का योगदान है – रंगकर्म के क्षेत्र में एक नई पद्धति के अन्वेषण को प्रयोगों द्वारा प्रस्तुत करना। उन्होंने ‘एपिक थियेटर’ और ‘ड्रामेटिक थियेटर’ – इन दो परस्पर विरोधी अवधारणाओं की तुलना प्रस्तुत की थी। ब्रेष्ट काफी दिनों तक अपनी पद्धति को ‘नॉनएरिस्टॉटेलियन’ कहते थे। महाकाव्य में अनेक स्वतंत्र कथानक श्रृंखलाबद्ध रूप में पिरोए जाते हैं, जिनमें कोई वास्तविक सीधा संबंध नहीं होता। संपूर्ण महाकाव्य में सिर्फ एक ही कथानक नहीं होता, न ही सभी तत्वों को व्यवस्थित रूप में सूत्रबद्ध किया जाता है। रामायण या महाभारत की अनेक उपकथाओं के आधार पर हम यह कह सकते हैं। इन उपकथाओं में वर्णन या विवरण पूर्ण होते हैं। इसके विपरीत नाटक या उपन्यास में घटनाओं के द्वारा एक सूत्र विकसित किया जाता है तथा अंत में उसे एक ऊँचाई पर पहुँचा दिया जाता है। रंगकर्म संबंधी अपनी अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए ब्रेष्ट, एपिक और ड्रामेटिक थियेटर में अंतर करते हैं :

एपिकड्रामेटिक
१. वक्तव्यपरक१. कथानक महत्वपूर्ण
२. दर्शक को रंगमंच पर घटित घटनाओं का निरीक्षक बनाया जाता है।२. रंगमंच पर घटित घटनाओं में दर्शक बह जाता है।
३. उसमें सक्रिय सोच की क्षमता पैदा की जाती है।३. उसमें सक्रिय सोच की क्षमता की गुंजाइश नहीं होती।
४. निर्णय लेने की क्षमता विकसित होती है।४. संवेदनाओं को मात्र उद्दीपन प्रदान किया जाता है।
५. दुनिया को चित्रित करती है।५. अनुभवों को दिखाती है।
६. दर्शक यथार्थ का सामना करने के लिए तैयार होता है।६. दर्शक उलझ जाता है।
७. वाद-विवाद उत्पन्न होता है।७. सूचना भर दी जाती है।
८. स्वाभाविक भावनाओं की पहचान तक उन्हें बाहर निकाला जाता है।८. भावनाओं को भीतर ही भीतर दबाया जाता है।
९. मनुष्य का विश्लेषण किया जाता है।९. मनुष्य की यथास्थिति को स्वीकार किया जाता है।
१०. यह अहसास जगाना कि मनुष्य बदलने और बदलाव लाने में सक्षम है।१०. मनुष्य अपरिवर्तनीय या शाश्वत है।
११. पूरी प्रक्रिया समझने पर ज़ोर।११. अंतिम निष्कर्ष पर ज़ोर।
१२. प्रत्येक घटना स्वयंपूर्ण और स्वतंत्र।१२. एक घटना दूसरी को जन्म देती है।
१३. सर्पिल विकास१३. सीधी रेखा में विकास
१४. छलाँगों के साथ परिवर्तन१४. उत्क्रांति पर आधारित भाग्यवाद
१५. मानव : एक प्रक्रिया में विकसित१५.मानव : एक स्थिर बिंदु
१६. सामाजिक अस्तित्व के अनुसार चेतना का विकास१६. चेतना के अनुसार अस्तित्व का अहसास
१७. विवेक-बुद्धि की प्रमुखता१७. भावना की प्रधानता

ब्रेष्ट की इस अवधारणा पर कुछ सवाल उठाए गए हैं – क्या इस तरह विचार-शक्ति एवं वक्तव्यों पर बल देना ठीक है? नाटक को महाकाव्य का रूप देना कहाँ तक सही है? खासकर तब, जब ऐतिहासिक विज्ञान और बुर्जुआ उपन्यासों की सौ-डेढ़ सौ वर्षों की सम्पन्न परम्परा हो? इस स्थिति में महाकाव्यात्मक नाटक को समर्थन कैसे मिल पाएगा? उपर्युक्त तालिका के नीचे दी गई पाद टिप्पणी में ब्रेष्ट लिखते हैं, ‘‘दोनों के बीच का फर्क सिर्फ इसलिए दिखाया गया है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि ज़्यादा ज़ोर किन बातों पर दिया जाए! ऐसी बात नहीं है कि मेरे नाटकों में कथानक नहीं होते या मैं भावना का प्रदर्शन नहीं करता।’’

उनके इस वक्तव्य के बावजूद यह बात सच है कि उन्होंने एकांगिता को पुनर्विचार द्वारा दूर किया तथा ‘द्वन्द्वात्मक रंगकर्म’ की अवधारणा समग्रता के साथ प्रस्तुत की।

(अगले अंक में जारी…)

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  • बहुत ही अच्छा लेख। नयी तरह की जानकारी मिली। 🙏🏼

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