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मैं कहता आँखिन की देखि – एक

मैं कहता आँखिन की देखि – एक

अजय आठले

(यह दीर्घ लेख 2011 में लिखा गया है। रायगढ़ इप्टा की वार्षिक पत्रिका ‘रंगकर्म’ के 2011 के अंक में इसी शीर्षक से छपा। अजय के इस लेख को बहुत पसंद किया गया। उसके बाद साथी दिनेश चौधरी ने ‘इप्टानामा’ ब्लॉग में ‘ज्ञानोदय से बाज़ारोदय तक’ शीर्षक से 01 मार्च 2012 के अंक में प्रकाशित किया। संभवतः इसी वर्ष बिलासपुर की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘मड़ई’ में भी यह लेख प्रकाशित हुआ। यह पहला भाग है, दूसरा भाग अगले अंक में दिया जायेगा।)

छत्तीसगढ़ आज से दस वर्ष पूर्व पृथक राज्य बना, तब तत्कालीन मुख्यमंत्री अपने भाषणों में छत्तीसगढ़ की सवा करोड़ जनता को संबोधित किया करते थे। अब दस वर्षों बाद मुख्यमंत्री अपने भाषणों में दो करोड़ चालीस लाख की जनसंख्या को संबोधित करते हैं।

छत्तीसगढ़ की भूमि या मानव संसाधन इतना उर्वर तो कभी नहीं रहा फिर आबादी में यह वृद्धि कहाँ से आई, यह सचमुच शोध का विषय है। पृथक छत्तीसगढ़ के लिए कभी भी झारखण्ड की तरह तीव्र आंदोलन नहीं हुआ। जो कुछ भी छोटे मोटे आंदोलन हुए, वह मैदानी पट्टी तक सीमित रहे। छत्तीसगढ़ को अगर दो प्रमुख हिस्सों में बाँटा जाय तो वह होगा – उत्तर और दक्षिण का पहाड़ी इलाका व पूरब और पश्चिम की मैदानी पट्टी। पृथक छत्तीसगढ़ के आंदोलन का प्रभाव पूरब से पश्चिम की मैदानी पट्टी तक ही सीमित रहा। उत्तर औेर दक्षिण के पहाड़ी इलाके इससे सर्वथा अछूते रहे। अंग्रेज़ों द्वारा रेल लाइन भी पूरब से पश्चिम की पट्टी पर ही बिछाई गई थी।

रेल लाइन बिछाने का जनसंख्या और संस्कृति पर क्या प्रभाव पड़ा, इसका अध्ययन करना दिलचस्प होगा। रायगढ़ में सन् 1986 में ठाकुर साहब डिप्टी कलेक्टर के रूप में पदस्थ थे, उनके पास मेरा आना-जाना प्रायः होता था। एक दिन जब मैं उनके घर पहुँचा, तो वे बहुत से पुराने रिकॉर्ड्स खंगाल रहे थे। उन्होंने बतलाया कि वे जनसंख्या वृद्धि का अध्ययन कर रहे हैं और उन्होंने कुछ दिलचस्प आँकड़े दिखलाये। आँकड़ों से यह पता चलता था कि अंग्रेजों के समय कराई गई जनगणना में रायगढ़ ओैर सारंगढ़ रियासत की जनसंख्या दो दशकों तक करीब-करीब बराबर रही और रायगढ़ में रेल लाइन बिछने के बाद हुई जनगणना में अचानक तीन हजार से पन्द्रह हजार की वृद्धि दर्ज की गई। उस समय रेल ही भारत में औद्योगीकरण का प्रतीक थीं।

इस तरह छत्तीसगढ़ के जिस इलाके में रेल की पटरियाँ बिछीं, वहाँ आबादी बढ़ी और वहाँ शहरीकरण हुआ। यह बढ़ी आबादी निश्चित रूप से दूसरे प्रदेशों से आई थी और यह आबादी अपने साथ अपनी संस्कृति भी लेकर आई थी।

छत्तीसगढ़ में आबादी अन्य प्रदेशों की तुलना में हमेशा विरल रही। आज भी बस्तर का क्षेत्रफल केरल राज्य से ज़्यादा है। ज़मीन की अधिकता थी इसलिए यहाँ पलायन बिहार या उत्तरप्रदेश की तर्ज़ पर नहीं हुआ बल्कि यहाँ लोगों का आगमन ही ज़्यादा हुआ।

पुराना बस्तर जिला

एक और खासियत छत्तीसगढ़ को अन्य प्रदेशों से अलग करती है, वह है ज़मीनी समीकरण। उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे प्रदेशों में जहाँ सत्तर से अस्सी प्रतिशत जमीन सवर्णों के हाथों रही, वहीं छत्तीसगढ़ में ज़मीने प्रायः पिछड़ों और आदिवासियों के पास ही रहीं। यहाँ ज़मींदार और गौंटिया भी पिछड़े ओर आदिवासी जाति के ही रहे। आदिवासी राजाओं की बहुतायत रही। यहाँ तक कि पुराने मंदिरों के पुजारी भी पिछड़ी जातियों के या आदिवासी बैगा ही रहे।

इन समीकरणों के चलते यहाँ की जनता ज़्यादा उदार और शांतिप्रिय रही। जहाँ जीवन में संघर्ष होता है, वहाँ की जनता ज़्यादा जुझारू होती है। खैबर दर्रे से लेकर पंजाब तक का इलाका, जो भारतीय प्रायद्वीप में विदेशी आक्रमण का प्रमुख रास्ता था, वहाँ की जनता ज़्यादा जुझारू रही है। बिहार ओैर उत्तरप्रदेश में जमीनी समीकरण के चलते संघर्ष रहा इसलिए यहाँ की जनता भी ज़्यादा जुझारू रही। पलायन भी यहीं ज़्यादा हुआ और पलायन के कारण इनकी संस्कृति का फैलाव भी पूरे देश में हुआ। यही कारण है कि फिल्म संगीत और गीतों पर सबसे ज़्यादा उत्तर प्रदेश और बिहार के लोकसंगीत का प्रभाव है। गोरी या गोरिया, जो सुन्दर लड़की का प्रतिमान है, वह उत्तर भारत की देन है। छत्तीसगढ़ में सौंदर्य का प्रतीक ‘गोरी’ न होकर ‘कारी’ है। हिंदी फिल्मों में भी जो ग्रामीण भारत दिखलाया गया, उसमें छत्तीसगढ़ न के बराबर रहा है। कारण वही है। उत्तर भारत में पलायन के कारण लोग देश भर में फैले और फिल्म उद्योग का शुरुआती बाज़ार चवनिया टिकट पर आधारित रहा। इसलिए उत्तर भारत का ग्रामीण इलाका फिल्मों में दिखता रहा। आज मल्टीप्लेक्स के ज़माने में तो ग्रामीण जीवन ही गायब हो गया है क्योंकि इसका बाजार ओैर दर्शक वर्ग बिल्कुल अलग है। गिरमिटिया मज़दूर मॉरिशस और फिज़ी तक गये, अपनी मेहनत से वहाँ के समाज में अपनी जगह बनाई और आज भोजपुरी फिल्मों और गीतों का बाज़ार वहाँ तक पहुँच गया। हिंदी फिल्मों में पंजाबी तड़का भी ऐसे ही बाज़ार बनने के कारण लगा।

1972 में हबीब तनवीर के नाटक में गाया हुआ गीत सास गारी देबे।
सौजन्य: छत्तीसगढ़ी गीत संगी

औद्योगीकरण के इस दौर में अब छत्तीसगढ़ से भी पलायन होने लगा है और मज़दूर अब नागपुर से लेकर कश्मीर तक जाने लगे हैं इसलिए ‘‘सास गारी देवे’’ या ‘पीपली लाइव’ में ‘‘माटी के चोला’’ जैसे गीतों को स्थान मिलने लगा है। अब छत्तीसगढ़ी फिल्मों और एलबमों का छत्तीसगढ़ के बाहर भी एक बाज़ार बन गया है। यह चवन्निया टिकिट वालों का बाज़ार है, जो नई टेक्नोलॉजी के कारण लागत में आई कमी के चलते विकसित हुआ है।

छत्तीसगढ़ में पलायन से ज़्यादा आगमन हुआ। दूसरे प्रदेशों के लोग यहाँ आते रहे – नौकरियों में, व्यवसाय में, वकालत और डॉक्टरी से लेकर अन्य पेशों में। इस आबादी ने ही शहर बसाए और ये लोग अपने साथ अपनी संस्कृति भी लेकर आए। शहरी केन्द्रों में छत्तीसगढ़िया की स्थिति घरेलू नौकर जैसी ही रही। इसलिए उसकी बोली को भी वह स्थान प्राप्त नहीं हो पाया। छत्तीसगढ़ी को भले ही आज राजभाषा का दर्ज़ा राजनैतिक कारणों से मिल गया हो, पर वह राज करने वालों की भाषा नहीं बनी। आज भी आपको ऐसे लोग मिल जायेंगे, जो बड़े गर्व से कहते हैं कि उन्हें छत्तीसगढ़ी नहीं आती, जबकि छत्तीसगढ़ में रहते हुए उनकी एक पीढ़ी गुज़र गई। अर्जुनसिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में ही राजनैतिक कारणों से ही सही, लेकिन शहीद वीरनारायण की खोज हुई, गुरू घासीदास को महत्व मिला, सुन्दरलाल शर्मा का मूल्यांकन हुआ और पंडवानी गायिका तीजनबाई को खोजा गया, पंथी नृत्य को महत्व मिला। भारत भवन के माध्यम से सरगुजा से लेकर बस्तर तक शिल्पकारों को स्थान मिला। परन्तु इसका राजनीतिक कारण था शुक्ल बंधुओं के प्रभामंडल को कम करना।

सामाजिक स्तर पर परिस्थितियाँ कमोबेश आज भी नहीं बदली हैं। छत्तीसगढ़ का नागर रंगमंच उन मध्यवर्गीय लोगों के हाथों रहा है, जिनकी अपनी सांस्कृतिक जड़ें कहीं और हैं। यही कारण है कि नागर रंगमंच का छत्तीसगढ़ के लोक मंच से वैसा रिश्ता नहीं बना, जो हमें बिहार, बंगाल, उड़ीसा ओैर महाराष्ट्र के रंगमंच में दिखाई देता है। मराठी की बोलियों से मराठी साहित्य और भाषा का रिश्ता रहा; उड़िया या बंगला की बोलियों से भाषा का विकास हुआ। हिंदी क्षेत्र की स्थिति भिन्न है। हिंदी साहित्य में भी उत्तर भारत की बोलियों का कब्जा रहा। कबीर को हिंदी का कवि माना जाता है, मीरा के भजन हिंदी साहित्य की धरोहर हैं, तुलसी हिंदी के कवि हैं; लेकिन गुरू घासीदास की वाणी छत्तीसगढ़ी है, वह हिंदी साहित्य में नहीं गिनी जाती। इसलिए हिंदी रंगमंच ने लोकतत्व उत्तर भारत के लोक समाज से उठाए, छत्तीसगढ़ के लोकतत्व से रस-ग्रहण नहीं किया। हबीब साहब ने ज़रूर अपने नाटकों में छत्तीसगढ़ी लोकतत्वों का इस्तेमाल कर आधुनिक बोध के नाटक खेले, मगर वहाँ भी उनका वही नाटक ‘चरण दास चोर’ ज़्यादा चर्चित हुआ, जो मूलतः राजस्थानी लोककथा पर आधारित है। ‘हिरमा की अमर कहानी’ या ‘मोर नांव दमांद गांव के नांव ससुरार’ कम ही चर्चित रहे।

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छत्तीसगढ़ के मध्यवर्गीय समाज में छत्तीसगढ़ी बोली के प्रति उपेक्षा के कारण छत्तीसगढ़ी नागर रंगमंच का विकास नहीं हुआ। नागर रंगमंच के नाम पर आज भी हिंदी नाटक ही होते हैं।

भारतीय समाज जातियों में बँटा रहा है और इसमें पेशेगत आधार पर जातियों का निर्माण हुआ। अंग्रेज़ों के आगमन और व्यापारिक पूंजीवाद के उदय से वैश्य समाज ने औरों की तुलना में ज़्यादा तेज़ी से प्रगति की। यह व्यवस्था उनके अनुकूल थी। छत्तीसगढ़ के उत्तरी और दक्षिणी भाग, जो पहाड़ी इलाके हैं और जहाँ आदिवासी और पिछड़ी जातियाँ बहुलता से निवास करती रहीं, वहाँ वणिक जाति तो थी ही नहीं, मैदानी इलाके में भी कृषक समाज ही था इसलिए परिवर्तन का लाभ बाहर से आई हुई जातियों को ही मिला। सवर्ण जातियाँ यहाँ नौकरी में आईं तथा व्यापार पर वैश्य समाज का एकाधिकार रहा। इन्हीं से मिलकर शहरी केन्द्र बने। कालांतर में औद्योगीकरण का लाभ भी इन्हीं समूहों को मिला। बंगाल में बंगाली व्यवसायी मिल जायेंगे, महाराष्ट्र्र में मराठी वैश्य समाज है, उड़ीसा में भी उड़िया वैश्य समाज है मगर छत्तीसगढ़ में आपको ऐसा नहीं मिलेगा।

छत्तीसगढ़ियों ने धान तो उगाया मगर एक भी राइस मिल नहीं खोल पाए; बुनकर समाज ने वस्त्र तो बनाए मगर टेक्सटाइल के डिस्ट्रीब्यूटर नहीं बन पाए; अगरिया समाज ने लोहा गलाया मगर इस्पात का व्यापार उनके हाथों नहीं रहा। यहाँ तक कि मनोरंजन उद्योग भी उनके हाथों में नहीं है। नई अर्थव्यवस्था में ये अपनी जगह नहीं बना पाए और इसीलिए इन समूहों के बीच एक सांस्कृतिक फाँक दिखलाई देती है।

इस नई अर्थव्यवस्था से पूर्व वाले समाज में ज़रूर सांस्कृतिक आदान-प्रदान रहा। मराठा शासकों की फौजों को उड़ीसा जाने के लिए छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाके पैसेज की तरह थे और इन फौजी सिपाहियों की छावनी में मनोरंजन हेतु ‘नाचा-गम्मत’ का विकास हुआ। उत्तर भारत से आये लोगों के सम्पर्क में ‘पंडवानी’ का विकास हुआ, रासलीला ने छत्तीसगढ़ी संस्कृति के सम्पर्क में आकर ‘रहस’ का रूप लिया। ‘भरथरी’ और ‘ढोला मारू’ के विषय में भी यही कहा जा सकता है।

यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान भले ही केवल मैदानी इलाके तक सीमित रहा और आदिवासी इलाके इनसे अछूते रहे पर यह आदान-प्रदान नई अर्थव्यवस्था के पूर्व तक चलता रहा। विजेता की संस्कृति हमेशा हावी रहती है, ऐसी बात नहीं है। वह विजित की संस्कृति से पहले टकराती है, फिर घुल-मिलकर नया रूप धारण करती है। नाचा-गम्मत, पंडवानी, भरथरी, ढोला मारू, रहस आदि इसी घुल-मिलकर बनी संस्कृति के नए रूप हैं। इसलिए सामंत काल तक ऐसी कोई फाँक दिखलाई नहीं देती, परन्तु नई अर्थव्यवस्था के उदय से कुछ केन्द्रों के शहरीकरण से सांस्कृतिक फाँक चौड़ी होती चली गई।

पहला दौर औद्योगीकरण का रेल बिछाने के साथ आया। दूसरा दौर उत्तर औद्योगिक युग का सड़कें बिछाते आया। कच्चा माल ले जाने के पहले दौर के बाद अब दूसरा दौर तैयार माल खपाने का आया। इस दौर के विकास को यदि हम देखें तो कह सकते हैं कि विकास के नाम पर बिहार से दानापुर एक्सप्रेस से मज़दूर छत्तीसगढ़ आया और छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से यहाँ का मज़दूर पंजाब चला गया। छत्तीसगढ़ में नवाखाई या हरेली के मुकाबले ज़्यादा वृहद स्तर पर छठपूजा का मनाया जाना इसी बात का संकेत है। छत्तीसगढ़ी एलबमों का बाज़ार छत्तीसगढ़ से बाहर बनना भी यही दर्शाता है। (क्रमशः)

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  • बेहतरीन लेख। छत्तीसगढ़ के बारे में इतनी बारीकी से विश्लेषण किया है जो बहुत ही महत्वपूर्ण दस्तावेज बन पड़ा है। उषा जी को ढ़ेर सारी बधाईयां 💐

  • छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनैतिक स्थिति का सही आकलन

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