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हम लड़ेंगे साथी…

हम लड़ेंगे साथी…

(छत्तीसगढ़ इप्टा का पाचवाँ राज्य सम्मेलन 23 से 25 दिसम्बर 2017 को रायगढ़ में हुआ था। सम्मेलन का उद्घाटन प्रसिद्ध कवि एवं नाटककार राजेश जोशी ने किया था। 23 दिसम्बर 2017 की शाम इप्टा के झंडोत्तोलन के बाद सांस्कृतिक रैली की शक्ल में इप्टा के तमाम सदस्य तथा रायगढ़ की सांस्कृतिक संस्थाओं के कलाकार पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम पहुँचे, जहाँ उद्घाटन समारोह सम्पन्न हुआ था। आयोजक इकाई के स्वागताध्यक्ष के रूप में अजय आठले ने जो स्वागत भाषण दिया था, वह प्रस्तुत है। इसमें अजय द्वारा उठाए गए कई मुद्दे आज भी प्रासंगिक हैं।)

उद्घाटन से पहले हँसी ठट्ठा करते हुए राजेश जोशी, अजय, दिनेश चौधरी और राकेश

साथियो,

छत्तीसगढ़ इप्टा के पंचम राज्य सम्मेलन में पधारे सभी वरिष्ठ एवं नौजवान साथियों का इप्टा रायगढ़ की ओर से स्वागत है।

यह एक संयोग ही है कि रायगढ़ को अविभाजित मध्यप्रदेश का प्रथम एवं पंचम राज्य सम्मेलन आयोजित करने की भी ज़िम्मेदारी मिली थी। तब से लेकर आज तक की परिस्थितियों में बेहद बदलाव आ चुका है। जब छत्तीसगढ़ का पहला राज्य सम्मेलन हुआ, उस समय आठ इकाइयाँ बेहद सक्रिय थीं। आज हमारी सक्रियता में कमी स्पष्ट नज़र आ रही है। किसी भी आंदोलन का ग्राफ कभी भी एकरेखीय नहीं होता, वह हमेशा बदलता रहता है। एक उच्च अवस्था को प्राप्त करने के बाद थकान की ओर बढ़ता है।

यह भी सच है कि, इस बीच सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिस्थितियों में बहुत बदलाव आ गया है। खासकर 2013 के बाद दक्षिणपंथी उभार ने वैज्ञानिक और प्रगतिशील सोच रखनेवाले हम जैसे समूहों को हाशिये पर धकेलना शुरु कर दिया है। यह देखकर बड़ा अजीब लगता है कि दक्षिणपंथी विचार वाले लोग, जो पूरे समाज को अवैज्ञानिकता की ओर ले जाना चाहते हैं, अपने विचारों का प्रचार-प्रसार करने में वैज्ञानिक खोज से प्राप्त तकनीक का सबसे ज़्यादा उपयोग कर रहे हैं और जिनके लिए वैज्ञानिकता ही जीवन के केन्द्र में रही, वे ही लोग वैज्ञानिक खोजों से प्राप्त तकनीक का इस्तेमाल करने में सबसे पिछड़े साबित हुए।

सांस्कृतिक रैली का समापन जनगीत के साथ

सैक्यूलर शब्द का अर्थ उन्होंने बदल दिया है। अब इसे गाली की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। यह सचमुच चिंता का विषय है। शब्दों को प्रतीकों में बदलने और इस्तेमाल करने में वे हमसे ज़्यादा माहिर साबित हुए हैं। आदिवासी को वनवासी बनाकर उन्हें मूल निवासी के दर्ज़े से हटाकर अपने में समाहित कर लिया, बाबरी मस्जिद को एक विवादित ढाँचे में बदल दिया। हमें भी सोचना होगा कि हम कहाँ पर चूक गए! सैक्यूलरिज़्म, यूरोप में आई औद्योगिक क्रांति से उपजा शब्द था, जिसने चर्च की सत्ता को चुनौती दी, हमने उसका भारतीयकरण ‘सर्व-धर्म-सम-भाव’ में कर डाला इसलिए आज इसे गाली के रूप में प्रयुक्त करने में सुविधा हो गई। ऐसा ही एक भ्रामक शब्द है – गंगाजमुनी संस्कृति, जो यह बताता है कि संगम तक तो गंगा और जमुना अलग हैं मगर संगम के बाद जमुना को भी गंगा में विलीन हो जाना होगा। यही ब्राह्मणवादी संस्कृति है, जिसने सबको गंगा की तरह लील लिया। इसने महावीर, बुद्ध, गोरखपंथ को पचा लिया। कबीर को ब्राह्मण की संतान बना दिया। आज गोरखपंथी समूह का प्रमुख, मुख्यमंत्री के तौर पर हिंदु धर्म का सबसे बड़ा ध्वजावाहक है।

उद्घाटन समारोह में राजेश जोशी, राजेश श्रीवास्तव, वेद प्रकाश अग्रवाल, शैलेन्द्र, सीताराम सिंह

हमसे यह भी चूक हुई कि हमने दलितों के प्रश्नों को केवल आर्थिक नज़रिये से देखा और सोचा। यह मान लिया कि आर्थिक प्रश्न हल होते ही सारी समस्याएँ खुद-ब-खुद दूर हो जाएंगी। नेहरू जी ने भी ऐसा ही सोचा था कि औद्योगीकरण से धर्म को हटाकर विज्ञान जगह ले लगा और यही सार्वजनिक उपक्रम आधुनिक भारत के तीर्थ होंगे। क्या हुआ, हम सब जानते हैं। आज कन्हैया कुमार के उस प्रतीक को याद रखना होगा, जिसमें वे जेल में मिली थाली में नीली और लाल कटोरे की बात करते हैं। महाराष्ट्र में चल रहे आंबेडकरी और मार्क्सवादी आंदोलन के एका की कोशिशों को देखना होगा और धीमी गति से हो रहे इसके हिंदी पट्टी में प्रसार को देखना होगा और अपनी भूमिका भी तय करनी होगी। यह बहुत सुकून देने वाली बात है कि रायगढ़ में आयोजित होने वाले राज्य सम्मेलन में एक सत्र दलित विमर्श और रंगमंच पर चर्चा के लिए रखा गया है।

‘नाटकों में दलित विमर्श’ संगोष्ठी में उषा आठले, राजेश कुमार, शैलेन्द्र

आज सरकारें लोक संस्कृति को प्रश्रय देने के नाम पर क्या कर रही हैं? कैसे पूरी की पूरी एक जीवन पद्धति को केवल नाच और गाने तक सीमित कर दिया है। ब्राह्मणवादी वर्चस्व की संस्कृति ने किसतरह कल्चरल हेजीमनी के तहत प्रतिरोध की धार को भोंथरा कर समर्पण की धारा खड़ी कर दी है। रामलीला, रासलीला और पूराण कथाएँ इसका अच्छा उदाहरण हैं, लोक-मनस में गहरे तक पैठा दी गईं। हमें लोक संस्कृति के उन तत्वों को खोजना होगा, जो प्रतिरोध की धारा को तेज़ करते हों, उन प्रतीकों और बिम्बों का इस्तेमाल हमें अपनी रचनाओं में लाना होगा, जो समर्पण के विरुद्ध प्रतिरोध के रूप में खड़े हो सके। यह एक अच्छी बात है कि इस राज्य सम्मेलन में एक सत्र लोक संस्कृति पर विमर्श के लिए रखा गया है।

‘इप्टा और लोकसंस्कृति’ संगोष्ठी में निसार अली, तनवीर अख्तर, जयप्रकाश, राजेश जोशी, राकेश, शैलेन्द्र, वेदा जी, राजेश श्रीवास्तव

हमें अपनी नकार की आदत से अब बचना होगा। हमने कम्प्यूटर के प्रति नकारात्मक भाव रखा, हमने इंटरनेट को नकारा, हमने सोशल मीडिया को नकारा, हमने टी.वी. को नकारा, हमने सिनेमा को नकारा, हमने पॉप कल्चर को नकारा, उनके नृत्य और संगीत को नकारा और हम अलग-थलग पड़ गए। एक अच्छा खासा युवा वर्ग हमसे दूर हो गया। हमें इन सभी क्षेत्रों में हस्तक्षेप करना चाहिए था, जो हम नहीं कर पाए। अभी भी वक्त है, इस पर हमें सोचना-विचारना होगा और अपने लिए सही कार्य-योजना और क्रिया-प्रणाली गढ़नी होगी। उम्मीद है कि, इस राज्य सम्मेलन के संगठन सत्र में हम इन बातों पर गंभीरता से विचार-विमर्श करेंगे।

छत्तीसगढ़ इप्टा की नयी कार्यकारिणी

यह सच है कि परिस्थितियाँ संगीन होती जा रही हैं। घने स्याह बादल छाए हुए हैं मगर ऐसे वक्त पाश बहुत याद आते है।

हम लड़ेंगे साथी
उदास मौसम से
हम लड़ेंगे साथी
कि लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता
लड़ते हुए जो मर गए
उनकी याद ज़िंदा रखने के लिए
हम लड़ेंगे साथी…

रायगढ़ इप्टा के साथी
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View Comments (3)
  • वास्तव में बहुत ही गम्भीर मुद्दे उठाए हैं।

  • यादें ताज़ा हो गईं. भइया का गंगा जमुनी संस्कृति का विश्लेषण एकदम नया है 👍

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