उषा वैरागकर आठले
(यह संस्मरणनुमा लेख 2003-2004 में लिखा गया है। उन दिनों मैं रायगढ़-खरसिया अप-डाउन करती थी। उस समय ट्रेन में पहली बार तृतीय लिंगियों से सामना हुआ था। उस समय के विचार और अनुभव इस लेख में प्रस्तुत हैं। लगभग दो हफ्ते पहले जब मैं यूट्यूब खंगाल रही थी, अचानक मेरी नज़र महाराष्ट्र की एक कवयित्री दिशा पिंकी शेख के साक्षात्कार पर पड़ी। प्रसिद्ध मनोविज्ञानी डॉ. आनंद नाडकर्णी के कार्यक्रम ‘फ्लॉप टू टॉप’ में दिशा पिंकी शेख को देखा और सुना। मुझे महसूस हुआ कि अब धीरे धीरे परिस्थितियाँ बदल रही हैं। (सुप्रीम कोर्ट द्वारा 15 अप्रेल 2014 को तृतीयलिंगियों को भी नागरिक की श्रेणी में शामिल कर उन्हें शिक्षा और रोज़गार के अधिकार दिए गए थे ।) दिशा जी की स्पष्ट और खुली सोच अगर उन दिनों हम उन तृतीयलिंगी दोस्तों के सामने रख पाते तो शायद उनके जीवन में कुछ सार्थकता आ सकती थी।)
‘‘आज तो हम आठले मैडम से दिवाली का ईनाम लेकर ही जाएंगे, छोड़ेंगे नहीं।’’ इस मर्दाना आवाज़ के साथ उभरी खिलखिलाहट से चौंककर मैंने किताब से नज़रें ऊपर उठाईं। दो थर्ड जेंडर के व्यक्ति सजे-धजे स्त्री की वेशभूषा में मेरे सामने खड़े होकर मुस्कुरा रहे थे। रोज़ रायगढ़-खरसिया अप-डाउन के दौरान रेलयात्रा में कभी किसी पुरुष का गाल सहलाते, कभी ठुमका लगाते, कभी छेड़खानी करते हुए ये लोग अक्सर दिखते। हम चार-पाँच सहेलियाँ इनकी हरकतों और पुरुष यात्रियों की प्रतिक्रियाओं पर कई बार चर्चा करते थे परंतु इनसे आमना-सामना पहली बार ही हुआ था। मैं हड़बड़ाई, मेरी सहेलियाँ भी। अचानक मुझे सूझा,
‘अरे, आप लोग मेरा नाम कैसे जानते हैं?’
एक ने मीठी मुस्कुराहट के साथ कहा – ‘आप तो इप्टावाली हैं न? हमने आपका नाटक देखा है।’
मैं बुरीतरह चौंकी और उत्सुक भी हुई। ‘अच्छा कौनसा?’
‘नाम तो याद नहीं है पर जिसमें आप लाल स्कर्ट पहनती हैं।’
‘नेक्स्ट मिलेनियम था वह। कैसा लगा था आप लोगों को?’ मैं एक अभिनेत्री के रूप में अपनी प्रशंसा सुनने का लोभ संवरण नहीं कर पाई थी।
‘अच्छा लगा था।’ निरपेक्ष भाव से उत्तर मिला।
मेरा उत्साह फुस्स हो गया। ‘आप लोग करेंगे हमारे साथ नाटक?’ अचानक मेरे मुँह से निकला।
पहले ने झिझकते हुए कहा – ‘हम कर सकेंगे?’
‘क्यों नहीं?’ मैंने कहा।
दूसरे ने तटस्थता से बात काटकर कहा, – ‘ठीक है, समय मिलेगा तो आएंगे।’ और वे दोनों आगे बढ़ गए।
इन लोगों पर मेरा ध्यान गया था एक यात्रा के दौरान ही। किसी पुरुष यात्री ने एक की खुली कमर पर चुटकी काट ली थी और वह उस यात्री पर बुरीतरह बरस रही थी । मेरे साथ मेरी दो सहेलियाँ भी थीं। हम इस घटना से उतने ही आहत हुए थे, जितना किसी स्त्री के साथ छेड़खानी का दृश्य देखकर होते। इस घटना के बाद हम अक्सर चर्चा करते इनके बारे में। प्रकृति की एक जैविक चूक के कारण एक बड़ा समूह इंसान की सामान्य श्रेणी से पृथक कर दिया जाता है। क्या हम किसी आँख-कान-पाँव-हाथ खोये हुए व्यक्ति का मज़ाक उड़ाया जाना स्वीकार करेंगे? यदि नहीं, तो इन लैंगिक विभिन्नता वाले इंसानों के साथ यह फूहड़ मनोरंजन क्यों जुड़ा हुआ है? इसका विरोध क्यों नहीं होता? इन्हें छेड़ते हुए किसी के मन में तनिक अपराध-बोध क्यों नहीं पनपता? इस तरह की फूहड़ हरकतें करने से आखिर किसतरह की संतुष्टि पाई जा सकती है? हमारे मन में निरंतर सवाल पर सवाल उठते जा रहे थे। आखिर इन्हें अलग बिरादरी बनाकर रहने की ज़रूरत क्यों पड़ती है? ऐसी कौनसी मजबूरी होती है, जिसके तहत माता-पिता या परिवारजन अपने लैंगिक विभिन्नता वाले बच्चे को थर्ड जेंडर समूह की झोली में डाल देते हैं! इसतरह के अन्य लोगों को कैसे पता चलता है कि कौनसा और किनका बच्चा उन जैसा पैदा हुआ है? यदि माता-पिता और परिवारजन ऐसे बच्चे की भिन्नता को जाहिर न होने दे तो क्या वह एक साधारण इंसान की ज़िंदगी जी सकता है जबकि उसमें दिमागी और अन्य शारीरिक अक्षमता नहीं होती? इसप्रकार के सवालों और तर्कों के साथ हम आपस में चर्चा करते और सोचते रहते कि क्या इन्हें किसी सृजनात्मक काम से नहीं जोड़ा जा सकता!
इसके बाद सिलसिला शुरु हुआ उनसे हमारे संवाद का। वे जब भी दिखते, हम उनका हालचाल पूछते, कुछ खा-पी रहे होते तो उन्हें भी देते। एक दिन मेरी एक सहेली को बस-यात्रा के दौरान उनमें से एक व्यक्ति मिला, जिसका नाम बीना (काल्पनिक नाम) था। संयोग से सहेली के पास की सीट खाली थी। सहेली ने उसे अपने पास बैठाया, बातचीत चलने लगी, सहेली ने बैग में रखी मिठाई निकालकर उसे खिलाई। सहेली ने हमें बताया कि, मिठाई उसके गले से नीचे नहीं उतर रही थी, आँसुओं से उसका चेहरा भींग गया था। सहेली के पूछने पर उसने कहा, ‘‘दीदी, हमें हमारी बिरादरी से बाहर इतने अपनेपन से कोई नहीं बैठाता, न ही कोई प्यार से बोलता है, न ही इसतरह खिलाता-पिलाता है। हमें इसकी आदत नहीं है।’’ और उसने सहेली को ढेरों दुवाएँ दीं। इस घटना के बाद हमें महसूस हुआ कि वह और उसके साथी जब भी हमें देखते या हमसे बातें करते, उनका नकली हावभाव और फूहड़पन एकदम गायब हो जाता और वे एक सामान्य इंसान की तरह हमसे बातचीत करते, उनकी भाषा भी बदल जाती। हम उनके घर-परिवार के बारे में पूछते, उनकी दिनचर्या के बारे में पूछते। धीरे-धीरे हम उन्हें उकसाने लगे कि, वे लोग क्यों न मिलजुलकर कोई काम-धंधा शुरु करते? मुंबई में किसी ने अपना सलून खोल लिया है, कुछ गाने-बजाने के शौकीन लोगों ने आर्केस्ट्रा शुरु किया है – इसतरह के समाचार हम उन्हें देते।
इसी बीच मुझे मौका मिला एक पाठ्यक्रम के सिलसिले में बनारस हिंदु विश्वविद्यालय वाराणसी जाने का । पाठ्यक्रम ‘महिला अध्ययन’ पर केन्द्रित था। उसमें एक व्याख्यान हुआ स्त्री और पुरुष मनोविज्ञान पर। मेरे दिमाग में अचानक विचार आया तृतीयलिंगी मनोविज्ञान को लेकर! व्याख्यान के बाद मैंने प्राध्यापक महोदय से समय लेकर थोड़ा झिझकते हुए पूछा – ‘‘सर, क्या आप तृतीयलिंगी व्यक्तियों के मनोविज्ञान के बारे में कुछ बता सकेंगे?’’ वे चौंके, उन्होंने स्वीकार किया कि इस पर उनका कोई अध्ययन नहीं है। मैंने उनसे जानना चाहा कि कया इस पर किसी ने शोध किया है! उन्होंने आश्वासन दिया कि पता लगाकर बताएंगे। बात आई-गई हो गई। संयोग की बात देखिये कि दो दिन बाद के अखबार के मुखपृष्ठ पर ही खबर छपी थी कि तृतीयलिंगियों का अखिल भारतीय सम्मेलन वाराणसी में कल से शुरु हो रहा है। सैकड़ों प्रतिनिधि शहर में पहुँच चुके हैं और शहर के लोगों की उत्सुक और जिज्ञासु भीड़ आयोजन-स्थल के आसपास मंडरा रही है। अप्रिय घटना की आशंका से प्रशासन ने भारी पुलिस बल आयोजन-स्थल के आसपास नियुक्त कर दिया है। समाचार पढ़ते ही मुझे लगा कि शायद मेरे सारे सवालों का जवाब मुझे अब मिल सकता है। विश्वविद्यालय जाने पर मुझे वहाँ और तीन प्राध्यापिका मिल गईं, जो तृतीयलिंगियों के बारे में जानने के लिए उत्सुक थीं। उनमें से एक संगीत की प्राध्यापिका थीं, जिन्होंने गणिकाओं की गायन पद्धति पर शोध किया था। वे स्थानीय थीं और साहसी भी। दैनिक व्याख्यानों की समाप्ति पर हम चारों कार्यक्रम-स्थल पहुँचे। पुलिस की रोकटोक के बाद बड़ी मुश्किल से उनमें से एक व्यक्ति से बातचीत हुई, जो बाहर खड़ा था। उसने भीतर जाकर हमारे बारे में बताया। हमें दूसरे दिन शाम चार बजे का समय दिया गया।
मैं उस आयोजन का वर्णन-विवरण नहीं देना चाहती। जब दूसरे दिन हम नियत समय पर वहाँ पहुँचे, तो दो लोग बातचीत के लिए तैयार बैठे थे। उनमें से पहले व्यक्ति ने, जो दिखने में बहुत सुंदर युवती ही लग रही थीं, गाना सीखने की बात बताई। हम सबके आग्रह पर उन्होंने एक गीत सुनाया, जिससे माहौल थोड़ा खुल गया। बहुत मीठा गला और गाने में पूरी तन्मयता! हम सब अभिभूत! अब बातचीत कहाँ से और कैसे शुरु करें कि, हमारी कोई बात उन्हें बुरी न लगे! मैंने धीरे से पूछा,
‘‘आप लोग सिर्फ एक शारीरिक भिन्नता को छोड़कर पूरे स्वस्थ इंसान हैं, तो क्यों नहीं हम जैसा नौकरी-धंधा करते? आप लोगों ने जीविका का यह अलग रास्ता क्यों चुना?’’
‘‘कोई अपनी मर्जी से यह रास्ता नहीं चुनता, काम-धंधे में स्त्री और पुरुष होने की पहचान देनी पड़ती है, हम क्या दें?’’
हम स्तब्ध रह गए। उन्होंने अपनी कहानी सुनाई।
‘‘मेरे माता-पिता ने मेरी भिन्नता को मेरी पैदाइश से ही छिपाकर रखा, नज़दीकी रिश्तेदारों के अलावा कोई कुछ नहीं जानता था। पढ़ने की उम्र होने पर मुझे दिल्ली के एक हॉस्टल में रखकर पढ़ाया-लिखाया। मैं वहाँ बीएस.सी. अंतिम वर्ष तक पढ़ती रही। अचानक हमारे परिवार में ज़मीन-जायदाद को लेकर विवाद हो गया और वह इतना बढ़ गया कि मेरी बुआ ने बदला लेने की नीयत से तृतीयलिंगियों के समूह को मेरे बारे में बता दिया। पता लगते ही वह समूह मुझे ले गया। मैंने बहुत हाथ-पाँव पटके परंतु बदनामी के डर से मेरे परिवार ने भी मेरी कोई मदद नहीं की। उन्होंने मेरी ओर से मुँह फेर लिया। मुझे बहुत दुख हुआ। मगर धीरे-धीरे मुझे इनका बहुत प्यार मिलने लगा। इन्होंने मुझे जिसतरह से सम्हाल लिया, अब तो ये लोग ही मेरा सब कुछ हैं।’’
उनकी यह आपबीती सुनकर हम सुन्न हो गए। कुछ क्षणों के मौन के बाद मैंने अपनी मूल जिज्ञासा की ओर लौटते हुए पूछा,
‘‘आप तो बीएस.सी. तक पढ़ी हुई हैं। दिखती भी स्त्री जैसी हैं, तो आपने अपने को स्त्री बताते हुए क्या नौकरी के लिए कोशिश नहीं की?’’
उन्होंने तुर्शी के साथ कहा – ‘‘असलियत खुलने पर क्या होता? हमारे छुपाने पर भी लोगों को कहीं न कहीं से पता चल ही जाता है और हमारी ओर देखने की नज़र बदल जाती है। बाकी लोगों की बात छोड़िये, क्या आप लोग अपने घर में मुझे काम देंगे?’’ हमने तुरंत हामी भर दी। इस पर वह व्यंग्य और उदासी से भरकर मुस्कुराई। बोली, ‘‘हाँ कहना सरल है। हो सकता है, आप और आपका परिवार हमें अपना भी ले, पर अड़ोसी-पड़ोसी, रिश्तेदारों और परिचितों का आप क्या करेंगी? वे हमें लेकर फूहड़ और अश्लील बातें करेंगे, आप लोगों पर भी कीचड़ उछालेंगे और आपका जीना हराम कर देंगे।’’
हममें से एक ने जानना चाहा – ‘‘आप लोग जो नाच-गाकर जीविका चलाते थे, वह तो फिर भी बेहतर था पर अब जो ट्रेन में यात्रियों को परेशान करके उनसे पैसे वसूले जाते हैं, वह तो ठीक नहीं!’’
उनका उत्तर था, ‘‘यह सच तो है, मगर अब फैमिली प्लानिंग का ज़माना आ गया है। पैसेवालों के घर में कम बच्चे पैदा होते हैं इसलिए हमें बधावा वगैरह कम मिलता है । फिर भी बता दें कि जो इसतरह माँगने का काम करते हैं, वे वास्तव में हमारी बिरादरी के नहीं होते।’’
हम चौंके। उन्होंने स्पष्ट किया, ‘‘दरअसल जो लड़के बचपन से नाचा-नौटंकी में औरतों का रोल करते हैं, उनके हाव-भाव और चालढाल में फर्क आ जाता है। जब इन ‘लौंड़ों’ की दाढ़ी-मूँछ उग आती है, आवाज़ भारी होने लगती है तो इन्हें औरतों के रोल मिलने बंद हो जाते हैं। समाज के लोगों द्वारा चिढ़ाने के कारण और उन्हें भी अपनी उसी वेशभूषा या रंगढंग में मज़ा आने के कारण वे हमारी बिरादरी में घुसपैठ करते हैं पर वे तृतीयलिंगी नहीं, लड़के ही हैं।’’
इतनी ही बात हो पाई थी कि उनके गुरु ने, जो उत्तरप्रदेश में कहीं विधायक थे और इसे पढ़ा-लिखा जानकर अपना पी.ए. बना लिया था। उसे हमसे और बातें न करने का आदेश दिया और हम वहाँ से चुपचाप लौट गए।
इस साक्षात्कार से मेरी बेचैनी और बढ़ी। रायगढ़ लौटकर मैंने अपनी सहेलियों को सारी बातें बताईं। इस दौरान महिला एवं बाल विकास विभाग के अंतर्गत महिलाओं के स्व-सहायता समूह तेज़ी से बन रहे थे। हमने सोचा कि क्यों न इनका भी एक स्व-सहायता समूह बनवा दिया जाए। हम रोज़ाना की यात्रा के दौरान उनकी प्रतीक्षा करते कि, उनसे उचित समय देखकर बात करेंगे। शुरु में मिले दो लोग एक दिन दिखे। हमने बुलाकर बात की। ‘‘ठीक है दीदी, हम लोग बाकी लोगों से बात करेंगे। पर हम क्या कर सकेंगे? हमें तो कुछ आता नहीं!’’ हमने कहा, ‘‘आप लोग पहले तैयार तो होइये, हम लोग कुछ न कुछ ढूँढ़ निकालेंगे। इस बात को चार महीने बीत गए। वे अब भी हमें दिखते हैं, पर इक्के-दुक्के, मिलते ही आदर और स्नेह से बात करते हैं पर काम की बात आते ही टाल जाते हैं। हमने अपनी एक अन्य सहेली को तैयार कर लिया था कि वह अपनी पॉलिप्रिंटिंग की फैक्टरी में उनको काम सिखाएगी।
इसका एक पहलू ये भी है कि बिना मेहनत के इसतरह की कमाई करने की उन्हें आदत पड़ गई है इसलिए वही सजधज, वही नाज़नखरे, वही नकली ज़िंदगी उन्हें अच्छी लगने लगी है। बेरोज़गारी की अंधी दौड़ में उन्होंने अपना यह ‘ग्लैमरयुक्त’ व्यवसाय चुन लिया है और वे उससे बाहर आने के लिए, अन्य क्षेत्र में मेहनत करने के लिए आसानी से तैयार नहीं हैं। जिसतरह समाज का दृष्टिकोण बदलना कठिन है, उसीतरह उनकी भी वर्षों से बनी मानसिकता को बदलना काफी मुश्किल है। मगर उन दो लोगों पर हमारी उम्मीद टिकी हुई है कि शायद देरसवेर हमारी बातों का उन पर असर हो जाए, शायद वे कोई काम शुरु करके अन्य लोगों के सामने उदाहरण प्रस्तुत कर सकें। आखिर उम्मीद पर ही तो दुनिया टिकी हुई है!
समाज से प्रताड़ित और उपेक्षित वे लोग जो मनुष्य ही हैं… पर गहरी संवेदना से आपने यह लिखा है। मैं यह महसूस कर रहा कि मेरी भी आँखों में आँसू भर आए हैं।
समाज इन्हें सम्मान की नज़र से देखता तो शायद इनके घर वाले भी अपने से अलग नहीं करते.
पोस्ट ग्रेजुएशन के दौरान मैं तृतीयलिंगों पर एक अध्ययन किया था तब से बहुत जिज्ञासा रहती है कि कैसे इनके जीवन में बदलाव लाया जाये ? चूंकि मैं शिक्षा के क्षेत्र में काम करता हूं मैं हमेशा वकालत करता हूं कि जब हम कक्षा में लिंग भेद की बात करते है तो इनको भी शामिल किया जाये। प्रयाह: देखा जाता है को सिर्फ स्त्री पुरूष के बीच की असमानता की बात होती है। ये लेख पढ़ कर कुछ सवालों के जवाब मिल पाये। आपका बहुत बहुत धन्यवाद ।