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रंगकर्म के माध्यम से जीवन में बदलाव

रंगकर्म के माध्यम से जीवन में बदलाव

आज अजय का चौंसठवाँ जन्मदिवस है। पिछले पैंतीस साल में यह पहला दिन है, जब हम साथ नहीं हैं। जब तक हम किसी व्यक्ति के साथ रोज़मर्रा की ज़िंदगी जीते रहते हैं, हम उस व्यक्ति के बारे में ज़्यादा नहीं सोचते और न ही उसके कार्यों का समग्रता के साथ अवलोकन करते हैं। आज जब अजय हमारे बीच भौतिक रूप में उपस्थित नहीं है, तब उसके बारे में लगातार सोचते-विचारते हुए मैं बहुत-सी बातों पर गौर कर पा रही हूँ।

जहाँ तक मुझे याद है, अजय 1980 के आसपास प्रगतिशील आंदोलन से जुड़ा। उस समय प्रगतिशील लेखक संघ पूरे देश में बहुत सक्रियता से नई-नई रचनात्मक गतिविधियों में अग्रणी था। लेखकों-पाठकों की नई पीढ़ी बहुत-सी बातों को जानने-समझने को उत्सुक होकर हरेक जिले में प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ रही थी। अपने आसपास की दुनिया को न केवल समझने, बल्कि उसको बदलने का जज़्बा सभी रचनाकारों में ठाठे भर रहा था। अनेक संगोष्ठियाँ, रचना-शिविर, सम्मेलन आयोजित होते थे। एक रचनात्मक माहौल हर पढ़ने-लिखने वाले युवा के लिए मौजूद था। अजय भी अपने पिता के बौद्धिक प्रभाव और अपने जिज्ञासु स्वभाव के कारण ढूँढ़-ढूँढ़कर किताबें, पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने का आदी हो चुका था। रायगढ़ में मुमताज भारती ‘पापा’ के साथ अशोक कुमार झा, ईश्वरशरण पाण्डे आदि साहित्यकार अक्सर मिल-बैठकर चर्चाएँ किया करते थे। अजय और कुछ युवा साथी धीरे-धीरे उसमें शिरकत करने लगे। लगातार नई-नई रचनाएँ पढ़ने और सामूहिक चर्चा करते रहने से, साथ ही एक वैचारिक संगठन से जुड़ने के कारण अजय में भी गंभीरता और समझ बढ़ने लगी थी।

1981 के अंत से ही भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के पुनर्गठन की बयार बहने लगी थी। रायगढ़ में अनेक रंगकर्मी थे, जो अलग-अलग नाट्यदल बनाकर नाटक खेलते रहते थे। मुमताज भारती की पहल पर रायगढ़ में भी इप्टा का गठन हुआ और प्रदेश के अन्य प्रगतिशील रंगकर्मियों के साथ इप्टा का पहला राज्य सम्मेलन रायगढ़ में आयोजित करने का प्रस्ताव मिला।

अजय का रंगकर्मीय जीवन खोडियार सर द्वारा ‘एक और द्रोणाचार्य’ की स्क्रिप्ट दिये जाने और इसी नाटकसंबंधी बैठक में जाने से शुरु हुआ था। वहाँ पापा द्वारा पढ़ी गई मुक्तिबोध की कविता ‘भूल गलती’ के जादुई प्रभाव का ज़िक्र अजय ने अपने लेख में किया है। एक बड़े उद्देश्य के लिए एकसाथ जुड़े लोगों का सामूहिक प्रभाव किसी भी व्यक्ति का वह टर्निंग पॉइंट हो सकता है, जो उसे अपने निजी ज़िंदगी के संकुचित दायरे को धीरे-धीरे फैलाने की प्रेरणा देता है। अजय के साथ वही हुआ। 1982 की शुरुआत में इप्टा रायगढ़ का गठन हुआ और मई 1982 में मध्यप्रदेश इप्टा का पहला राज्य सम्मेलन करने के लिए उसे तैयार कर लिया गया। उस बीच ‘पंछी ऐसे आते हैं’ इप्टा रायगढ़ के बैनर का पहला नाटक मंचित हो चुका था।

राज्य सम्मेलन में प्रदेशभर से आए साथियों और भीष्म साहनी द्वारा समापन के लिए आना, सबके बीच निरंतर संवाद और हिस्सेदारी ने युवा साथियों को उत्साह से भर दिया था। उसके बाद अनेक नाटकों के वाचन के बाद ‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं’ नुक्कड़ नाटक तैयार किया गया, जिसका पहला मंचन 15 अगस्त 1982 को गांधी चौक पर हुआ। उसके अनेक मंचन अनेक गली-मुहल्लों-चौकों में हुए। तब तक इकाई में युवाओं की संख्या बढ़ गई थी और अठारह पात्रों का नाटक ‘एक और द्रोणाचार्य’ सफलतापूर्वक खेला गया। इसके पहले मंचन के बाद ही अजय के सामने रोज़गार संबंधी समस्या खड़ी हो गई। उसके द्वारा तब तक की गई अनेक नौकरियाँ और दो छोटे व्यवसाय ठप्प हो गए थे। अजय नया काम ढूँढ़ने में और उसमें अपने आपको स्थिर करने में जुट गया। इस बीच इप्टा के सदस्यों के बीच कुछ अनबन होने के कारण इकाई को भंग करना पड़ा।

1986 में हमारी शादी तय होने तक मैं इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ की बिलासपुर इकाई में काफी जम चुकी थी। मेरे रायगढ़ आने के बाद 1987 में इप्टा रायगढ़ का पुनर्गठन हुआ और बर्टोल्ट ब्रेख्त का नाटक ‘अजब न्याय गजब न्याय’ खेला गया। उसके बाद ‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं’ के नुक्कड़ मंचन फिर शुरु हुए। 1994 तक हम छोटे-मोटे नाटक, संगोष्ठियाँ, पोस्टर प्रदर्शनियाँ आदि आयोजित करते रहे।

रायगढ़ इप्टा को पुनर्जीवन मिला 1994 में इप्टा के स्वर्णजयंती वर्ष में। पहला पाँच दिवसीय नाट्योत्सव हुआ और उसके बाद यह सिलसिला 2019 तक अबाधित रहा। कोविड-19 के कारण 2021 की जनवरी में वर्चुअल नाट्योत्सव किया गया। 1995 में टीम के विस्तार की योजना के साथ पहला ग्रीष्मकालीन नाट्य प्रशिक्षण शिविर आयोजित हुआ, इसमें सम्मिलित हुए लगभग 10-12 साथी अगले कई वर्षों तक इप्टा रायगढ़ की जड़े सींचते रहे और इप्टा रायगढ़ को राष्ट्रीय स्तर की ख्याति अर्जित करने में हमारे साथ कंधा से कंधा मिलाते हुए चलते रहे। 1996 से बच्चों के लिए भी प्रति वर्ष गर्मी की छुट्टी में कार्यशालाएँ आयोजित होती रहीं। इन कार्यशालाओं में कई बार प्रशिक्षित निर्देशकों को रंगकर्म के विभिन्न पहलुओं को पुख्ता करने के लिए बाहर से आमंत्रित किया जाता रहा और कई बार अजय सहित इप्टा के ही साथी कार्यशाला संचालित करते रहे। आज इप्टा रायगढ़ में तीसरी पीढ़ी अजय के अभाव को महसूस करने के बावजूद उसी रचनात्मक सक्रियता के साथ जुटी हुई है।

माइम एन्ड मूवमेंट कार्यशाला

जब हम दुनिया को समझने की कोशिश करने लगते हैं तो हमें ढेर सारी विसंगतियाँ और विषमताएँ दिखाई देती हैं। संवेदनशील और रचनात्मक व्यक्तियों में इससे एक बेचैनी पैदा होती है कि इस दुनिया की विषमताओं को कैसे समाप्त किया जाए! बीसवीं सदी के दूसरे दशक में रशियन क्रांति के बाद से ही मार्क्सवाद-लेनिनवाद के प्रति लोगों की दिलचस्पी बढ़ गई थी। आज़ाद भारत में भी लेखकों-कलाकारों के अनेक संगठन थे जो इंसानों के बीच तमाम तरह के भेदभाव मिटाने और समानता की स्थापना के पक्षधर थे। आज़ादी के पहले से ही स्थापित प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा भी ऐसे ही संगठन हैं। इन संगठनों से जुड़ने के बाद व्यक्ति और समाज के संबंधों के प्रति दृष्टिकोण बदलने लगता है। अपने-अपने परिवार, जाति, धर्म, लिंग की संकुचित दुनिया से बाहर निकलकर एक विस्तृत दृष्टि से देखने का नज़रिया विकसित होने लगता है। हम दुनिया को समझने और उसे एक बेहतर दुनिया में बदलने के सपने के साथ-साथ स्वयं को, अपने आसपास के माहौल को भी बदलने की कोशिश करने लगते हैं। ये कोशिशें भले ही बहुत छोटी-छोटी होती हैं, परंतु उनके परिणाम दूरगामी होते हैं। कई बार इनसे आनेवाले बदलाव प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देते, परंतु व्यक्ति के व्यक्तित्व और व्यवहार में उसकी झलकियाँ मिलती रहती हैं।

जामिया और जे.एन.यू में हुई हिंसा के विरोध में

थियेटर, जिसे हम हिंदी में रंगकर्म कहते हैं, वह सिर्फ अभिनय करना या नाटक खेलना ही नहीं होता। उसमें नाटक लिखने से लेकर पढ़ने और किसी नाट्यदल द्वारा उस नाटक को कलात्मकता के साथ दर्शकों के सामने प्रस्तुत करने तक की समूची प्रक्रिया आती है। चूँकि इप्टा सिर्फ एक नाट्य दल नहीं, बल्कि एक आंदोलन है इसलिए इप्टा से जुड़े हुए कलाकार के लिए तो रंगकर्म और भी बहुआयामी हो जाता है। हम नाटक क्यों कर रहे हैं, किसी एक स्क्रिप्ट को ही क्यों चुन रहे हैं, उस स्क्रिप्ट की किस बात को हम उभारना चाहते हैं, उसे किसतरह उभार पाते हैं – इन सवालों के बीच नाटक को रिहर्सल की श्रमसाध्य प्रक्रिया से गुज़ारते हुए अभिनेता, निर्देशक तथा सभी बैक स्टेज के कलाकारों के दिल-दिमाग पर, उनकी ज़िंदगी पर क्या असर होता है – यह भी महत्वपूर्ण होता है। विभिन्न सामाजिक-आर्थिक जीवन जीने वाले अनेक रंगकर्मी जब इप्टा-परिवार की छतरी तले इकट्ठा होते हैं, तब उनमें जाने-अनजाने एक इंटरेक्शन शुरु होता है। परस्पर आदान-प्रदान की प्रक्रिया – एकदूसरे की व्यक्तिगत ज़िंदगी से जुड़ना, एकदूसरे की इच्छा-आकांक्षाओं-सपनों को समझना, एकदूसरे के गुण-दोषों को समझना, एकदूसरे की बेहतरी के लिए मदद करना। किसी स्क्रिप्ट, किसी कविता, कहानी, घटना के माध्यम से जब आपस में विचार-विमर्श होने लगता है, उसी के साथ-साथ वहाँ उपस्थित रंगकर्मियों के दिल-दिमाग के रेशे संवेदित होने लगते हैं। कई बार इस बदलाव का अहसास व्यक्ति को स्वयं नहीं हो पाता। मगर वह यह तो महसूस करने ही लगता है कि उसके जीवन की दिशा, उसका उद्देश्य पहले से बदल चुका है। अन्याय और विसंगतियों के प्रति एक गहरी बेचैनी का सहजबोध उसमें विकसित होने लगता है।

स्पीच वर्कशॉप अमित बनर्जी द्वारा

इसी पृष्ठभूमि के साथ मैं अजय के साथ अपने कार्य-अनुभव को कुछ बिंदुओं में साझा करना चाहती हूँ।

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१. स्वयं को और अपनी टीम को बहुआयामी रचनात्मक गतिविधियों से जोड़े रखना

२. रंगकर्म के अनेक पहलुओं का सचेतन रूप से अपने साथियों के साथ विकास करना -स्क्रिप्ट-लेखन, इम्प्रोवाइज़ेशन से स्क्रिप्ट तैयार करना, नाट्य रूपान्तरण, अनुवाद के साथ-साथ नाटक-वाचन, पठन, चर्चा, अभिनय, निर्देशन, लाइट, कॉस्ट्यूम, मेकअप, संगीत, ध्वनि-व्यवस्था आदि के बारे में स्वयं को अपडेट रखना, नई पुस्तकों एवं लेखों का अध्ययन एवं चर्चा।

3 . नाट्यदल-प्रबंधन – कलाकारों के व्यक्तित्व-विकास में शारीरिक फिटनेस का महत्व, एक्सरसाइज़ेस, थियेटर गेम्स, नाटक एवं अन्य साहित्य का अध्ययन, वाचन, पठन और चर्चा, कार्यशालाओं का आयोजन, नाट्य-मंचन, मंचन के लिए आर्थिक एवं अन्य व्यवस्थाएँ – रिहर्सल स्थल, वाद्यों का प्रबंध, दरी, पानी आदि का प्रबंध, प्रॉपर्टीज़ का प्रबंध, टिकिट-बिक्री और ब्रोशर आदि के प्रकाशन का प्रबंध, वार्षिक रख-रखाव हेतु सामान, ऑडिट, टीम को सक्रिय रखने के लिए समय-समय पर कार्यक्रमों का आयोजन – संगोष्ठी, धरना-प्रदर्शन, आपातकालीन मदद, पोस्टर प्रदर्शनी, व्याख्यान, चंदा इकट्ठा करना, कार्यक्रमों का व्यवस्थापन, उद्घोषणा, प्रेस विज्ञप्ति, दस्तावेज़ीकरण – रिपोर्टिंग्स, फोटो, वीडियो, शहर के बाहर मंचनों के लिए यात्रा, रिहर्सल एवं तमाम व्यवस्थाएँ।

खेला पोलमपुर
  • दो-तीन नियमित गतिविधियों/वार्षिक उत्सवों का आयोजन, जिसमें सभी कलाकार-सदस्य अपने को जोड़ सकें। इप्टा रायगढ़ ने 1994 से प्रति वर्ष पाँच दिवसीय राष्ट्रीय नाट्य समारोह के माध्यम से न केवल अपने शहर में अपनी पृथक सकारात्मक पहचान बनाई, बल्कि भारतभर के अनेक नाट्यदलों को आमंत्रित कर अपनी टीम को वृहद रंग-बिरादरी से परिचित होने का अवसर प्रदान किया।
  • इप्टा के संगठन और गतिविधियों में निरंतरता रखने के लिए बच्चों और किशोरों को भी नाट्य-प्रशिक्षण देना, जिससे एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी भी जुड़ सके।
  • टीम में अनुशासन, आपसी मतभेद सुलझाना, कलाकारों की समस्याओं का निवारण, रंग-जगत में विभिन्न रंगकर्मियों, नाट्यदलों से निरंतर सम्पर्क,
  • रंगकर्मियों में बड़े/छोटे पर्दे पर आने की ललक/उत्सुकता/इच्छा-आकांक्षा के शमन हेतु लघु फिल्मों का निर्माण
  • इप्टा के कार्यालय एवं स्टुडियो का निर्माण
इप्टा के स्टूडियो में ईश्वर सिंह दोस्त की कार्यशाला
  • अनेक उपकरणों का क्रय और रखरखाव
  • टीवी शोज़ का निर्माण
  • अनेक फिल्मों में अभिनय एवं निर्माण-सहयोग

इप्टा में निरंतर रंगकर्म करते रहने से व्यक्ति का दृष्टिकोण और उसके संबंधों पर किसतरह का प्रभाव दिखाई देता है –

  1. दो या दो से अधिक कलाकारों का परस्पर प्रभाव
  2. अभिनेता-निर्देशक-अन्य कलाकार-स्क्रिप्ट-दर्शक का परस्पर प्रभाव
  3. नाट्यदल/संगठन के उद्देश्य और गतिविधियों का प्रभाव
  4. व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से पढ़े जाने वाले साहित्य का प्रभाव
  5. समसामयिक स्थानीय, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं पर चर्चा एवं विश्लेषण से वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा विश्व-दृष्टि का विकास
  6. सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सेदारी का प्रभाव
  7. किसी एक नाटक को चुनने से लेकर उसका मंचन होने के बाद तक की समूची घटनाओं का प्रभाव
  8. संगठन के प्रभावशाली परिपक्व साथियों के विचारों, व्यवहार, रचनात्मकता, प्रोत्साहन से युवा साथियों के जीवन में अभिव्यक्ति के नए अवसरों का निर्माण
  9. रचनात्मक और सोद्देश्य काम करने से मिलने वाले सार्थक आनंद का अनुभव
  10. अधिक संवेदनशील, कल्पनाशील, विचारवान और सक्रिय होने के कारण व्यक्ति की सोचने-समझने की शक्ति का विकास
  11. निरीक्षण-शक्ति और तार्किकता का विकास
  12. स्वयं के मनोगत और शारीरिक क्षमताओं की पहचान

अन्य नाट्य दलों से जुड़े हुए रंगकर्मियों के बारे में तो मैं नहीं कह सकती, मगर इप्टा के रंगकर्मियों का जीवन निश्चय ही इंसानियत के जज़्बे और व्यवहार से भरापूरा हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं। मेरा और अजय का जीवन इसी जज़्बे से भरपूर रहा और हम अपने को अधिक से अधिक अपडेट करने की कोशिश करते रहे। अजय ने इप्टा की तीसरी पीढ़ी में भी यह तमीज़ पैदा कर दी है, यह देखकर बहुत संतोष होता है।

बी थ्री
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View Comments (3)
  • प्रशिक्षण के लिए अनिवार्य स्टेप.. पढ़कर अपना समय याद आ गया
    सच में अजय भैया, ग्रुप के लोगों में थिएटर के साथ इंसानी गुणों को विकसित करने की तमीज पैदा कर गए,
    यही उनका हासिल है
    Salute

  • Sahi Kaha bhabhi aapne… Jo bhau ne hamare andar ek vayvhar dall kar gaye hai bhau…wo kabhi khatam nahi hoga.. aur ham wahi swabhav aane wali pidhi ko dete Jayenge….Yad Bahot aate ho aap bhau…

  • उषा जी,नमस्कार,,
    बहुत अच्छा आलेख है,कई दृष्टिकोणों से लिखा गया है,i अजय भाई के रंगकर्म की विकास यात्रा के संबंध पर रोशनी डाली है आपने।ऐसा लगता है इसे और विस्तार देना चाहिए था,और कुछ । क्योंकि अजय की यात्रा सिर्फ इतने भर से पूरी नहीं होती।उनकी यात्रा इससे कहीं अधिक थी ,। आपने रंगकर्म से उत्पादित प्रभाव को भी साथ ही जोड़ा जो ठीक भी है । मैं अपने बारे में सोचताहूं हमने इस विषय को कितने हल्के में 40 वर्षों के अंतराल में समेट लिया जबकि अब इस पर विचार करता हूं है तो लगता है कि यह विषय कितना विशाल है और चुटकियों में हमसे हमारी उम्र ले गया ।ज्यादा नहीं लिख पाऊंगा।सिर्फ यही कि अजय द्वारा रंगमंच पर किए गए समय को आपने एक छोटे से आलेख में समेटने की ईमानदार कोशिश की है।अजय भाई के जन्म दिवस की किन शब्दों में बधाई दूं ,समझ नहीं आ रहा ।उन्हे याद करना और उन से प्रेरणा लेना ही उन्हे बधाई भी और भाव भीनी श्रद्धांजलि भी होगी।

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