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आनंद पटवर्धन के वृत्तचित्रों में प्रतिरोध

आनंद पटवर्धन के वृत्तचित्रों में प्रतिरोध

आनंद पटवर्धन

(यह शोध पत्र इंडियन सोसाइटी फॉर थिएटर रिसर्च की 2018 में जयपुर में आयोजित कांफ्रेंस में प्रस्तुत किया गया था)

सिनेमा भी कला की अन्य विधाओं की तरह ही समाज की समीक्षा करता है। जिसतरह वह समाज के उजले पहलुओं को उभारता है उसीतरह समाज के अंधेरे पक्षों की आलोचना भी करता है। यह आलोचना दो प्रकार की होती है – प्रतिशोध और प्रतिरोध के रूप में। प्रतिशोध का विकल्प उस समय उभरकर सामने आता है, जब व्यक्ति के पास अपने ऊपर होने वाले अन्याय का मुकाबला करने का कोई रास्ता नहीं बचा रहता या उसमें बदले की भावना बहुत प्रबल होती है, उस समय वह अन्यायी व्यक्ति या पक्ष के लोगों की हत्या करने जैसा असंवैधनिक रास्ता अपनाता है। वहीं प्रतिरोध करने में एक प्रकार का व्यक्तिगत और सामूहिक विश्वास निहित होता है कि गलत बातों का विरोध करने से कहीं न कहीं उन पर नियंत्रण किया जा सकता है। हम सिनेमा में प्रतिरोध की बात करेंगे। सिनेमा में प्रतिरोध की परम्परा काफी पुरानी रही है। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों के प्रतिरोध के रूप में सैकड़ों फिल्में इसके प्रमाण हैं।

सिनेमा का एक बहुत गंभीर प्रकार वृत्तचित्र होता है। इसमें यथार्थ को पूरी तथ्यात्मकता और तार्किकता के साथ प्रस्तुत करने की कोशिश की जाती है। भारतीय वृत्तचित्रकारों में आनंद पटवर्द्धन का नाम बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है। लगभग चार दशकों से विभिन्न प्रकार की विसंगतियों पर तथा उनके खिलाफ होने वाले जन आंदोलनों पर वे वृत्तचित्र बना रहे हैं। उनकी फिल्मों में बहुत स्पष्ट मानवकेन्द्रित राजनैतिक-सामाजिक प्रतिबद्धता दिखाई देती है। उन्होंने आवासहीनों के लिए घर का अधिकार, साम्प्रदायिक सद्भाव, संतुलित विकास, धार्मिक मूलतत्ववाद या कट्टरतावाद के कारण सामाजिक न्याय की उपेक्षा, निजीकरण, वैश्वीकरण, परमाणु राष्ट्रवाद आदि विषयों पर वृत्तचित्र बनाए हैं। वे सामाजिक-राजनीतिक और मानवाधिकारकेन्द्रित प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते हैं। दमन के राजनीतिक इतिहास पर बात करते हुए उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा है –

“My films are rarely stopped for obscenity and nothing like that. They always stopped for political reasons and that is happened almost. No matter which government is in the power. So it is happened during Congress time, it is happened during United front time and it is happened obviously in BJP time. But during BJP times, it is even more often. As you can imagine the reasons for that. Of course there was the time under the Congress, when emergency had declared in 1975. So you could argue that that was the worst period for freedom of expression and that’s correct. Emergency was an outright kind of military rule. People could be arrested for just talking on the street and many of those kind of arrest to place. But what we have today is kind of undeclared type of emergency. Because it’s not the state is declared the emergency but still the state is pretending theirs freedom of expression. But in fact, the freedom is highly restricted and perhaps there is same mode of expression of freedom for more people who are middle class and from the upper classes, because they can make a noise. But when it comes to the Working class, Dalits and Adivasis, the freedom is completely restricted and people were killed for speaking and later on being stopped for speaking…” Interview “The politics of Freedom of Expression” 1

उनकी डॉक्यूमेंट्रीज़ हैं – 1974 में बनाई गई बिहार के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पर केन्द्रित ‘क्रांति की लहरें’, 1978 में प्रदर्शित आपातकाल की आलोचना करती ‘ज़मीर के कैदी’, 1985 में बनी मुंबई की झोंपड़पट्टी के निवासियों के जीवन-संघर्ष पर आधारित ‘बंबई मेरा शहर’, 1992 में बाबरी मस्जिद के तोड़े जाने से धार्मिक उन्माद पर केन्द्रित ‘राम के नाम’, पितृसत्तात्मक समाज, पौरूष का रूपक तथा साम्प्रदायिक हिंसा के अंतर्सम्बंधों को स्पष्ट करने वाली 1994 में बनाई फिल्म ‘पिता, पुत्र और धर्मयुद्ध’, सरदार सरोवर बाँध के विरोध में खड़े हुए नर्मदा बचाओ आंदोलन पर केन्द्रित 1995 में ‘नर्मदा डायरी’, 2002 में भारत, पाकिस्तान, जापान और अमेरिका के परमाणु परीक्षण और युद्धनीतियों की समीक्षा करने वाली ‘जंग और अमन’, जातिवादी राजनीति तथा भारतीय दलितों के प्रतिरोध के रूप में गीत-संगीत परम्परा को रेखांकित करती फिल्म ‘जय भीम कॉमरेड’, (इस वृत्तचित्र को 14 वर्षों तक शोध और दस्तावेजीकरण करने के बाद 2012 में जारी किया गया) तथा 2018 में आई है ‘विवेक’, जिसमें किसतरह धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र धार्मिकता के मुद्दे पर बाँटा जा रहा है, अंधविश्वास के खिलाफ लड़ने वाले तथा इन घटनाओं से असहमति जतानेवाले नरेन्द्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, कलबुर्गी तथा गौरी लंकेश की हत्या, दलित संघर्ष, धार्मिक अतिवादियों का आतंकवाद, भीड़ की हिंसा को हवा दी जा रही है, इसका तार्किक चित्रण किया गया है।

उन्हें अपनी लगभग हरेक फिल्म को जारी करने के लिए राज्य सेंसरशिप से मुठभेड़ करनी पड़ी तथा कट्टरपंथियों के क्रोध का शिकार भी होना पड़ा। बावजूद इसके, वे हमेशा सही मुद्दों को लेकर न्यायालय और सार्वजनिक मंचों पर गए और अंततः उनकी जीत हुई। मज़े की बात यह है कि उनकी ‘पिता, पुत्र और धर्मयुद्ध’, जंग और अमन’ जैसी फिल्में न्यायालय के निर्णय के बाद बिना किसी ‘कट’ के दूरदर्शन पर दिखाई गईं।

यहाँ हम उनकी प्रमुख फिल्में ‘पिता, पुत्र और धर्मयुद्ध’, ‘राम के नाम’ तथा ‘जय भीम कॉमरेड’ पर बात करेंगे। ‘पिता, पुत्र और धर्मयुद्ध’ के पोस्टर पर ही फिल्म का उद्देश्य लिखा है – पुरुष, धर्म और हिंसा के अंतर्सम्बन्धों की पड़ताल। इसमें प्रमुख हिंदु और इस्लाम धर्म में पितृसत्तात्मक वर्चस्व के रूढ़िबद्ध मिथकों के गहरे प्रभावों को दिखाया गया है। तमाम विज्ञापन, फिल्में, पुराकथाएँ और समाज में प्रचलित व्यवहार पुरुष द्वारा संचालित हैं। यहाँ स्त्रियाँ उनके द्वारा बना दिये गये नियमों और मान्यताओं की अनुगामिनी हैं। पुरुष अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए सती-प्रथा का पक्षपोषण करते हैं। कुछ स्त्रियाँ, जो अपने विवेक का इस्तेमाल करती हैं, वे इनीगिनी हैं। देवराला में रूपकुँवर के सती होने वाली घटना पर आनंद पटवर्धन ने विभिन्न लोगों से बातचीत की, कुछ दृश्यों की चर्चा से बात साफ होती है। एक दृश्य में एक स्त्री विवेकपूर्ण तर्कशीलता से अपना मत व्यक्त करती हुई कहती है –

‘‘सती तो नहीं होना चाहिए। सारे कानून-कार्रवाई और नियम औरत के लिए ही हैं क्या? औरत-आदमी का प्रेम होता है इसलिए औरत सती हो जाती है तो क्या आदमी का प्रेम नहीं होता औरत के ऊपर? औरतें भी बहुत मरती हैं। आदमी को भी तो कभी ‘सता’ होना चाहिए!! वो क्यों नहीं होता? ये तो घोर अत्याचार हो रहा है। ये नहीं होना चाहिए। अगर आदमी मर भी गया तो औरत को खुद मजबूत होना चाहिए। अपनेआप कमाने की शक्ति रखना चाहिए। अपना कमाकर खाना चाहिए और जीना चाहिए। मरने से क्या होगा? सभी थोड़े ही सती कहलाती हैं! सती तो उसे ही कहना चाहिए कि जहाँ औरत-आदमी प्रेम से रहते हों। आदमी की आज्ञा का पालन करना चाहिए और आदमी को भी औरत की बात माननी चाहिए। तो जब गाड़ी के दोनों पहिए बराबर चलते हैं तो गाड़ी भी बराबर चलती रहेगी। जब बड़ा-छोटा होता है तो बात खतम हो जाती है। तो हम तो गलत ही समझते हैं इस बात को। लेकिन चक्कर ये है कि मेरे गलत समझने से क्या? सौ को पूछोगे तो दो औरत गलत बताएगी और अट्ठानबे औरतें सही बताएंगी।’’2

इसके विपरीत दूसरी औरत, जो वाकई सौ में से अट्ठानबे औरतों का प्रतिनिधित्व कर रही है, उसके अंधविश्वास की दृढ़ता भी देखने लायक है। उसकी बात सवाल-जवाब की शैली में है। आनंद पटवर्धन उससे सवाल करके उसे यथार्थ कारण-कार्य संबंध के प्रति सचेत करना चाहते हैं परंतु उसके हाथ में सती रूपकुँवर की फोटो है, जिसके प्रति पूरी श्रद्धा से भरकर वह चित्र का विवरण देते हुए अपनी समझ से आध्यात्मिक बखान करती है –

‘‘ स्त्री – इसमें किरण आ रही है भगवान की। इसकी किरण से ही इसका चिता जलता है। जब इसमें सती जलती है तो वह ऐसे ही नहीं जलती है।
सवाल – क्या आपको नहीं लगता कि यह फोटो नकली है?
स्त्री – नहीं, नकली नहीं है। जो सती हुई है, उसी की सूरत है। वह अपने पति को लेकर बैठी है। वही है।
सवाल – देखिए, उस फोटो को अच्छी तरह देखिए, दो फोटो को जोड़कर बना है।
स्त्री – नहीं।
सवाल – भगवान सिर्फ उसी को दिखता है, औरों को नहीं?
स्त्री – हाँ।
सवाल – तो यह बताइये कि फोटो में कैसे दिख रहा है?
स्त्री – फोटो में तो आएगा। सामने से किरण फेंकते हैं तो जब फोटो खींचते है न तो किरण में आएगा। इसीलिए तो पता चलेगा कि भगवान है। नहीं तो कैसे पता चलेगा?
सवाल – फोटो में भगवान कैसे आएंगे, जब वे औरों को नहीं दिख रहे हैं?
स्त्री – लोगों को नहीं दिखेगा पर फोटो में ज़रूर आएगा। भगवान तो पेड़ों पर रहते हैं न, पास में, तो वो फोटो में खिंच जाता है। पता नहीं चलता फोटो वालों को भी, कि इसमें भगवान हैं। वो तो अपनेआप आ जाएगा। जितना इनका मंदिर है, वो भी आ जाएगा। फोटो में जो भगवान हैं, वो भी सारे आ गए। देखो, चिता सारे जल रहे हैं, वो भी तो दिख रहे हैं न? उसमें किरण आ रही है भगवान की। किरण से ही इसका चिता जलता है।’’3

देवराला में और उसके आसपास इसतरह के अंधविश्वास का प्रभाव इतना तगड़ा है कि इसके विरोध में जिन्होंने भी जुलुस निकाला, उन्हें अत्यधिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। यहाँ तक कि उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। रूपकुँवर के भाई का भी इंटरव्यू लिया है आनंद पटवर्धन ने। वह तो अपने को बहुत गौरवान्वित महसूस कर रहा है कि उसकी बहन ने उसके खानदान का नाम रोशन किया। इस फिल्म में समाज में ‘मर्दानगी’ की अवधारणा को पुष्ट करते हुए फिल्मों के पोस्टर, बिकने वाले यौन उपकरण और दवाइयाँ, माने जाने वाले टोटके, आयोजित की जाने वाली पुरुषों की ‘बॉडी बिल्डिंग’ प्रतियोगिताएँ, साथ ही मानव सभ्यता के इतिहास में पितृसत्तात्मकता के उदय और विकास की भी तथ्यात्मक चर्चा आनंद पटवर्धन करते हैं।

दूसरा वृत्तचित्र है ‘राम के नाम’। 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने, राम मंदिर निर्माण के लिए रथयात्रा का राजनीतिक इस्तेमाल और फैलाये गये भयानक उन्माद को यह वृत्तचित्र बहुत सूक्ष्मता से प्रदर्शित करता है। रथयात्रा के दौरान किये गये भाषण तथा शिवसेना प्रमुख द्वारा मुस्लिमों के खिलाफ दिये गये जहरीले भाषणों और लेखों ने किसतरह जनसामान्य को, खासकर युवाओं को अतार्किक और कट्टरवादी बना दिया है, परदे पर देखकर हम दहल जाते हैं। यह संकुचित प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़कर किसतरह 2018 तक देश में एक भयानक अफरातफरी का माहौल बना चुकी है, ‘राम के नाम’ इसकी पूर्वसूचना के रूप में देखा जा सकता है। राजनीति के साम्प्रदायिक इस्तेमाल ने देश के युवाओं की अर्द्धशिक्षित मानसिकता को किसतरह जकड़ दिया है, इसका अक्स हमें कुछ युवकों की इस बातचीत में दिखाई देता है, जिनके हाथों में भारतीय जनता पार्टी और बजरंग दल का बैनर है। प्रश्नोत्तर शैली में बातचीत चल रही है।

‘‘- बजरंग दल क्या है, पूछे जाने पर एक युवक ने बताया ; इस फिल्म के सबटाइटल्स अंग्रेजी में हैं अतः यहाँ वही दिये जा रहे हैं

First the Sangh was formed the R.S.S. then came the Vishwa Hindu Parishad (VHP) then Bajrang Dal was created for the Ram Janmbhoomi… It’s a youth wing of the VHP. VHP, BJP and Bajrang Dal are a joint family. Bajrang Dal represents the united youth power of Hindus. We’re like Lord Rama’s Monkey Army.

What work do you do?
I am studying Law…
What?
Studying to be a lawyer
And you? (to another youth)
I’m an electrician. I have an electrical goods shop.
Why have you come here?
To deal with whoever opposes the VHP. We can do anything to them!
Like what?
Like if we have to beat them up, we will… If just talking to them suffices, we’ll do that. Otherwise we’re ready for a fight.
Who will you fight?
Whoever opposes our Hindu religion.
Such as…?
Such as …there are some Muslims…and some of our own Hindus, who try and create obstacles for us and for the Hindu cause.”4
महंत लालदास

खेदजनक बात यह है कि रामजन्मभूमि मामले को लेकर मतभेद के परिप्रेक्ष्य में कोर्ट द्वारा सन् 1983 में महंत लालदास नामक पुजारी की नियुक्ति की थी, मगर लालदास द्वारा विश्व हिंदु परिषद के कट्टर हिंदुत्ववाद का विरोध करने पर उन्हें 1 मार्च 1992 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने हटा दिया। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहा दी गई और 16 नवंबर 1993 को महंत लालदास की गोली मारकर हत्या कर दी गई। आनंद पटवर्धन इससे पहले ही ‘राम के नाम’ के लिए उनका साक्षात्कार ले चुके थे, जिसे वृत्तचित्र में विस्तार से दिखाया गया है।

“Anand Patwardhan asked a question to Mahant Laldas –

  • What do you think of the Vishwa Hindu Parishad’s plan to built a temple?

He said – This is a political game played by VHP. There was never a ban on building a temple. Besides, according to our tradition, any place where idols of God are kept , is a temple. That’s the Hindu custom. Any such building is considered a temple. And even if they wanted to build a separate temple, why demolish a structure, where idols already exists ? Those who want to do these are actually more interested in creating tensions all over India in order to cash in of the Hindu vote. They don’t care about the genocide that will occur how many will be killed how much destroyed or even about what will happen to Hindus in Muslim majority areas.”

“Since 1949 no one Muslim created any trouble here. But when these people began to shout: ‘The sons of Babar must pay with their blood’, then the whole nation was engulfed in roits and thousands killed. Still they felt no remorse for the tensions they had created. Till now Hindu-Muslim unity existed in our country. Muslim rulers granted land for temples… like Janki Ghat and parts of Hanumangarhi were built by Muslims. Muslim rulers donated all this property to temples. Also Amir Ali and Baba Ramcharan Das made a pact of harmony between Hindus and Muslims dividing the Janmbhoomi so Muslims could pray in one part and Hindus in the other. Now all this effort has been laid to waste.”5

‘जय भीम कॉमरेड’ वृत्तचित्र भारत के जातिआधारित समाज की तीखी समीक्षा के रूप में देखा जाना चाहिए। हालाँकि इस फिल्म में प्रमुख रूप से डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के ‘शिक्षित हो, संगठित हो और संघर्ष करो’ इस आह्वान का दलितों पर पड़ा प्रभाव अनेक आयामों में दिखाया गया है परंतु उसके बरअक्स शिवसेना द्वारा फैलाया गया कट्टर हिंदुत्ववाद किसतरह भारतीय एकता को तहसनहस करने लगा था, इसका भी गहरा विवेचन किया गया है। आज़ादी के बाद संविधान में प्रदान किये गये समानता के अधिकारों ने दलितों में कुछ बदलाव लाए, परम्परागत तरीके से उनके साथ सवर्ण जातियों द्वारा किया जाने वाला विषम व्यवहार संवैधानिक रूप में संभव नहीं रह गया था परंतु वर्चस्ववादी मानसिकता वर्ग और जातिगत विषमता और ऊँच-नीच को बनाए रखने की हरसंभव कोशिश करती ही है। 1997 में रमानगर दलित हत्याकांड से आरम्भ होती फिल्म दलित प्रतिरोध के तमाम आयामों को खोलती चलती है। रमानगर में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की मूर्ति पर चप्पल-जूतों का हार पहनाया गया तथा विरोध होने की संभावना में निहत्थे मोहल्लेवासियों पर गोलीचालन किया गया। अनेक लोग निरपराध मारे गये। दलित महिलाओं के आक्रोशभरे परंतु मार्मिक सवाल थे –

‘‘बाबासाहेब की प्रतिमा पर चप्पलों का हार पहनाकर, उनका अपमान कर क्या मिला उन्हें? हमने गांधी की प्रतिमा पर कभी चप्पलों का हार पहनाया? या शिवाजी को पहनाया? हम ऐसी हिम्मत भी नहीं करते। हम क्रूर नहीं हैं। हिंदू धर्म के लोग क्रूर हैं।’’6

दलितों द्वारा वर्ग-चेतना के विकास के कारण पहले दलित पैंथर का उदय और बाद में सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना ने एक नई क्रांतिकारी धारा को जन्म दिया, महाराष्ट्र के शाहीर विलास घोघरे, संभाजी भगत और कर्नाटक के गदर आव्हान मंच से उसका प्रतिरोध करते हैं। यह प्रतिरोध की शाहिरी परम्परा वामनराव कर्डक से लेकर अण्णाभाऊ साठे से होती हुई वृत्तचित्र के अंत में कबीर कला मंच की तत्कालीन शाहीर शीतल साठे आदि के भूमिगत होने पर उनके हकों की लड़ाई लड़ने के लिए गठित समिति के आह्वान से होती है।

विलास घोघरे

इस वृत्तचित्र में सफाई कामगारों की अमानवीय अवस्था पर भी बहुत बारीकी से सवाल उठाए गए हैं। रमानगर के पास ही देवनार डम्पिंग यार्ड है। वहाँ की गंदगी और उस गंदगी में काम करने वाले कर्मचारियों, जो अधिकतर दलित जातियों के ही हैं, पर फोकस करते हुए एक कर्मचारी से हुई बातचीत का अंश है –

‘‘हम कई साल से कॉन्ट्रेक्ट पर काम कर रहे हैं तो अब हमारी नौकरी पक्की होनी चाहिए। …घर-पिछवाड़ों के कचरों में तो संडास ही होता है। जब हम उसे उठाते हैं तो वह हमारे मुँह और शरीर पर गिरता है। हमारे पास मास्क तक नहीं होता। दस-बारह साल से काम कर रहे हैं। पहले तो न केवल हाथ-पैर साफ करने के लिए, बल्कि पीने के लिए भी हमें पानी नहीं मिलता था। हमें न तो होटल में खाने के लिए घुसने देते थे और न ही बस में चढ़ने देते थे क्योंकि हमारे गंदे कपड़ों से बदबू आती थी। पहले डम्पिंग मैदान में भी पानी नहीं था, हमने 2-3 साल पहले अपनी यूनियन बनाई है तो स्थिति थोड़ी सुधरी है। हाईकोर्ट का आदेश है कि हमें गमबूट, टोपी, मास्क और रेनकोट दिया जाए। अगर ठेकेदार नहीं तो म्युनिस्पल को देना होगा। मगर म्युनिस्पल इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई। वह वकील को रोज 65000 रू. फीस दे सकती है, मगर 2000 कर्मचारियों को गमबूट, रेनकोट नहीं दे सकती।’’7

‘जय भीम कॉमरेड’ में साम्प्रदायिक दंगों की सुनियोजित और क्रूर साजिश को भी मजबूत तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया गया है। बाबरी मस्जिद को ढहाने के बाद मुंबई में हुए दंगों की जाँच के लिए गठित श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट में स्पष्टतया कहा गया था – ‘‘जनवरी 1993 के दंगे हिंदुत्ववादी ताकतों ने कराये थे, खासकर बालासाहेब ठाकरे ने; जिसने अपने कार्यकर्ताओं को मुस्लिमों के जानमाल पर हमला करने का आदेश दिया। जब ये हमले हो रहे थे तब बंबई की पुलिस चुपचाप खड़ी तमाशा देख रही थी या दंगों में शामिल थी।’’ इस क्लिप के बाद की अगली क्लिप में श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट पर केन्द्रित एक सभा में मानवाधिकार कार्यकर्ता पुष्पा भावे ने स्पष्ट किया था, ‘‘ये मुंबई की मिलीजुली संस्कृति पर एक हमला था। मुंबई के बेरोजगार और हताश युवाओं को शिवसेना ने गुमराह करके इस्तेमाल किया है। युवाओं को समझाया गया कि उनकी इस हालत का जिम्मेदार बाहरी और दूसरे धर्म के लोग हैं, जिन्होंने उनका रोजगार छिना है। उन्हें कभी नहीं बताया गया कि उनका असली दुश्मन कौन है!’’8

आनंद पटवर्धन के वृत्तचित्रों की विशेषता है कि ‘नरेशन’ की अपेक्षा दृश्य-श्रव्य क्लिपिंग्स ही बहुत कुछ कह जाती हैं। वे जो कुछ दिखाना चाहते हैं, उसे ‘क्लिपिंग्स’ के माध्यम से दर्शक स्वयं समझे, तर्क करे और कारण-कार्य की संगति बैठाए। साथ ही दर्शक स्वयं समझे कि दिखाए जा रहे साक्षात्कार, भाषण, वक्तव्य या गतिविधि का समाज के पूरे तानेबाने पर क्या प्रभाव पड़ रहा है! वे घटनाओं के पक्ष और विपक्ष के विभिन्न व्यक्तियों को खुलकर अपना मत व्यक्त करने की छूट देते हैं। उदाहरण के लिए, ‘पिता, पुत्र और धर्मयुद्ध’ में रूपकुँवर के सती होने की घटना के संदर्भ में बहुआयामी गतिविधियों की ‘क्लिप्स’ दिखाई गई हैं। दर्शक उन बातों का खुद विश्लेषण करे, अपना विवेक जागृत करे – पटवर्धन इसकी खुली छूट देते हैं। उनकी दृष्टि साफ है पर वे ‘नरेशन’ के माध्यम से अनेक सवाल खड़े करते हैं, अपनी दृष्टि दर्शक पर नहीं थोपते। इसी वृत्तचित्र में किसतरह ‘पौरूष’ के मिथ ने समूचे बाज़ार को अपनी चपेट में ले लिया है और बचपन से ही बच्चों के दिल-दिमाग किसतरह इस दृष्टि से तैयार होते हैं, वे पुरुष द्वारा की गई हिंसा या मिथ्या श्रेष्ठत्व को किसतरह स्वीकार लेते हैं, स्त्रियों के प्रति एकप्रकार की तिरस्कार या तुच्छता का बोध कैसे विकसित किया जाता है, इसे वे छोटे-छोटे चित्रों के माध्यम से स्पष्ट करते हैं। आज़ादी के सात दशकों के बाद भी स्त्रियों, दलित-आदिवासियों को स्वाभिमान और आत्मसम्मान के साथ जीने के अवसर और वातावरण नहीं मिला है। बल्कि पिछले कुछ वर्षों में वातावरण और ज़्यादा तंग हुआ है।

शीतल साठे

‘जय भीम कॉमरेड’ में लोकगायक विलास घोगरे, संभाजी भगत, शीतल साठे के गीतों के माध्यम से इस विसंगति की बारीकियों को उभारा गया है तथा दलितों के प्रति किये जानेवाले भेदभाव, हिंसा और अन्याय का विरोध अनेक घटनाओं, साक्षात्कारों तथा आंदोलनों के माध्यम से किसतरह मुखर हुआ है तथा वर्चस्ववादी शक्तियाँ किसतरह इसका दमन कर रही है, आनंद पटवर्धन इसे पूरी शिद्दत से प्रदर्शित करते हैं। ऐसे दलित शिक्षित व्यक्ति, जो जातिगत अन्याय के अलावा वर्गगत अन्याय का विरोध करने के लिए एक नया वैचारिक संघर्ष छेड़ चुके हैं, वे किसतरह ब्राह्मणवाद के शिकार हो रहे हैं, विलास घोगरे और शीतल साठे-सचिन माली के दमन के माध्यम से हम देख सकते हैं। आज इसी श्रृंखला में आनंद तेलतुंबडे तक के अनेक बुद्धिजीवी सत्ता के दमन का शिकार हो रहे हैं। आनंद पटवर्धन में प्रतिरोध की सामाजिक-राजनीतिक चेतना आरम्भ से ही प्रखर रही है। उनका सबसे पहला वृत्तचित्र, जो जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति पर आधारित था ‘क्रांति की लहरें’ (1974), इसे देखने के बाद ‘फ्रंटियर’ में प्रब्रित दास महापात्रा ने लिखा था कि, “In India, we have no Joris Evens who had a film making career that took him around the globe where he and his camera were always at the right place at the right time. Political consciousness is a rare thing among our film makers; and in this context Anand Patwardhan is both a new nam and a new trend in Indian Film.”9

क्रांति की लहरें

एक अत्यंत सजग और मनुष्य तथा मनुष्यता के प्रति समर्पित आनंद पटवर्द्धन जैसा वृत्तचित्रकार असहमति और प्रतिरोध की आवाज़ सिर्फ वृत्तचित्र बनाकर ही नहीं बुलंद करता, बल्कि निरंतर उन फिल्मों को दूरस्थ गाँवों के साथ-साथ राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रदर्शित करने और संवाद स्थापित करने में भी बहुत सक्रिय हैं। आनंद पटवर्धन की फिल्में उनके ‘एक्टिविज़्म’ से जन्मी हैं। ‘द हिंदू’ नामक पत्र में उनके वृत्तचित्रों की पृष्ठभूमि में निहित इस विचार को रेखांकित किया गया है – “One problem with our democracy is that a rigid class and caste hierarchy coupled with gross gender inequality has kept large sections of our population traditionally without a voice. But having no voice does not mean having no brain! On the contrary the voiceless have much to say and we can learn so much from their ways of seeing and thinking. Feeling of humanity seem to survive much better amongst the powerless than among the affluent and powerful.”10

आनंद पटवर्धन ने वृत्तचित्र-विधा को एक नया आयाम दिया है। उन्होंने न केवल अपने वृत्तचित्रों के माध्यम से इस विषम और अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के काले पन्नों को खोला है, बल्कि उनमें लिखी इबारत से गहरी संवेदनात्मक सोच को कुरेदा है। ये वृत्तचित्र मानवता के पक्ष में इतनी दृढ़ता और तथ्यात्मकता के साथ खड़े होते हैं कि इनकी खिलाफत करने वाली राजनीतिक शक्तियाँ अनेक कोशिशों के बाद भी इनका प्रसारण नहीं रोक पातीं। बेहतर दुनिया की चाह रखने वाले अनेकानेक व्यक्ति और संस्थाएँ आनंद पटवर्धन को आर्थिक, नैतिक और अन्य प्रकार की सहायता देने के लिए तैयार रहते हैं। प्रतिरोध का यही सकारात्मक पहलू एक सुंदर मानव समाज का सपना देखने और उसे व्यावहारिक रूप देने में सक्षम हो सकता है।

Reference :

1. Interview with Documentary Filmmaker Anand Patwardhan – BOOM, Published on Feb 26, 2015 – “The politics of Freedom of Expression – 00.37 to 02.07 – http://www.youtube.com/watch?v=hBNES-NmePU

2. Father, Son and Holy War – Part – 1 – Anand Patwardhan – Published on Dec 12, 2018 – https://www.youtube.com/watch?v=jlxZ03nAaXQ – 18.27 to 19.38

3. Father, Son and Holy War – Part – 1 – Anand Patwardhan – Published on Dec 12, 2018 – https://www.youtube.com/watch?v=jlxZ03nAaXQ – 53.07 to 54.27

4. In The Name Of God (With English Subtitles) – Anand Patwardhan – Published on Mar 29, 2016 – https://www.youtube.com/watch?v=k4v0om4fqgw – 20.42 to 22.38

5. In The Name Of God (With English Subtitles) – Anand Patwardhan – Published on Mar 29, 2016 – https://www.youtube.com/watch?v=k4v0om4fqgw – 12.22 to 15.03

6. Jai Bheem Comrade – Anand Patwardhan – Published on Dec 4, 2018 – https://www.youtube.com/watch?v=rrQVkpYKaYs – 5.44 to 5.57

7. Jai Bheem Comrade – Anand Patwardhan – Published on Dec 4, 2018 – https://www.youtube.com/watch?v=rrQVkpYKaYs – 20.23 to 22.08

8. Jai Bheem Comrade – Anand Patwardhan – Published on Dec 4, 2018 – https://www.youtube.com/watch?v=rrQVkpYKaYs – 31.25 to 33.07

9. Waves Of Revolution – Anand Patwardhan – Review – Prabrit Dasmahapatra – Frontier – www.patwardhan.com/wp/?page_id=231

10. Krithika R. Interview with Anand Patwardhan – Filmmaker as Activist – The Hindu – May 16, 2004 – http://www.thehindu/thehindu/mag/2004  

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  • इसमें से कई वृत्तचित्र नहीं देखे हैं, पढ़कर देखने का मन हो गया. जल्द देखूंगी.. फिल्मों का विश्लेषण पढ़ने के बाद देखने फ़िल्म की बारीकी पता चली

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