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बाल रंगमंच और इप्टा

बाल रंगमंच और इप्टा

उषा आठले

नाटक ‘गणित देश’

मनुष्य का बचपन रंगमंचीय गतिविधियों से सराबोर होता है। बच्चे बार-बार किसी न किसी का अभिनय करते हुए अपनी कल्पना की दुनिया को साकार करते रहते हैं। परंतु जैसे-जैसे वे औपचारिक शिक्षा की एक-एक पायदान चढ़ते जाते हैं, उनका यह खिलंदडापन छीजने लगता है। उनकी रचनात्मक सक्रियता दबने लगती है। उनका कुछ न कुछ रचते रहने का उत्साह ठंडा पड़ता जाता है। उन्हीं बच्चों में ये सभी अमूल्य बातें बची रहती हैं, जो बचपन में ही रंगमंच से जुड़ जाते हैं।

बाल रंगमंच तीन प्रकार का दिखाई देता है – बच्चों का रंगमंच, बच्चों के लिए रंगमंच और बच्चों के लिए रंगमंच-शिक्षा। बच्चों का रंगमंच प्रायः एक नियमित गतिविधि के रूप में नहीं दिखाई देता। इसमें किसी संस्था या निर्देशक के साथ जब-जब समय मिलता है, बच्चे रंगमंचीय गतिविधि में संलग्न हो जाते हैं। बच्चों की शाला, परीक्षा और दिनचर्या उन्हें पूर्णकालिक रंगमंच के लिए समय प्रदान नहीं करती। सिर्फ बच्चों को लेकर नाटक करनेवाली रंगसंस्थाएँ नगण्य संख्या में दिखाई देती हैं। ग्रीष्मकालीन या दीपावली-शीतकालीन अवकाश बाल रंगमंच का मौसम होता है। इन अवकाशों में अनेक नाट्य संस्थाएँ बच्चों के लिए नाट्य प्रशिक्षण कार्यशालाएँ आयोजित करती हैं, जिसमें अभिनय की बारीकियों के अलावा रंगमंचीय खेल, अभ्यास एवं गीत-संगीत-नृत्य का प्रशिक्षण भी होता है और प्रायः कार्यशाला के समापन पर एकाध-दो नाटक, समूह गान, नृत्य आदि की प्रस्तुतियों के साथ कार्यशाला समाप्त हो जाती है।

बाल नाट्य प्रशिक्षण कार्यशाला 2019

प्रतिभागी बच्चे इसकी मधुर स्मृतियाँ लेकर अपने घरों और विद्यालयों को प्रस्थान कर जाते हैं, अगले अवकाश की प्रतीक्षा में।बाल रंगमंच का दूसरा प्रकार, बच्चों के लिए रंगमंच अपेक्षाकृत नियमित गतिविधि के रूप में देखा जा सकता है। हमारे देश में ऐसी अनेक नाट्य संस्थाएँ हैं, जो अपने वयस्क कलाकारों के साथ बच्चों के लिए बेहतरीन नाटकों की प्रस्तुति करती हैं। ये संस्थाएँ स्कूली दिनों में अलग-अलग विद्यालयों में जाकर बच्चों की सीखने और समझने की क्षमता को बढ़ाने के लिए नाट्य मंचन करती हैं। ऐसे नाटकों में बच्चों को पसंद आने वाली कहानियाँ और चरित्र बहुत कलात्मकता और सहजता के साथ प्रस्तुत किये जाते हैं। इसतरह की संस्थाएँ प्रायः बहुत गंभीरता के साथ, एकतरह के नैतिक-सामाजिक दायित्व के साथ रंगकर्म करती हैं। इसतरह का रंगमंच प्रायः ‘इंटरेक्टिव’ या ‘पार्टिसिपेटरी’ होता है, बच्चों की ‘लर्निंग प्रोसेस’ को रोचक बनाने के लिए काम करता है। ऐसे नाटकों के प्रदर्शन के दौरान बाल दर्शक एक बिलकुल दूसरी दुनिया में पहुँचकर स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करते हैं, मंच पर चलने वाले क्रिया-व्यापारों से एकरूप हो जाते हैं। वे इन नाटकों का न केवल भरपूर आनंद उठाते हैं, बल्कि उन नाटकों में उठाये गये सवालों को आत्मसात करते चलते हैं।

छत्तीसगढ़ी लोकनृत्य

बाल रंगमंच का तीसरा प्रकार बच्चों के लिए रंगमंच-शिक्षा है। अनेक विद्यालयों में इसे दो स्तरों पर देखा जा सकता है – पहला स्तर अनौपचारिक होता है, जिसमें ड्रामा क्लब जैसी गतिविधि के माध्यम से बच्चों को मंच प्रदान किया जाता है। इसके माध्यम से विद्यालय के वार्षिकोत्सव जैसे अवसरों के लिए कोई रंगमंच में रूचि रखने वाला शिक्षक कोई शिक्षाप्रद या पाठ्यक्रम से संबंधित नाटक करवाता है। यह बच्चों की अभिनय-प्रतिभा को प्रकट होने का एक माध्यम मात्र होता है, इसमें प्रशिक्षण जैसी गंभीरता प्रायः नहीं आ पाती। दूसरा स्तर है – रंगमंच शिक्षा का। एनसीईआरटी ने कक्षा पहली से बारहवीं तक के बच्चों के लिए रंगमंच की शिक्षा का बाकायदा पाठ्यक्रम बना दिया है और विद्यालयों को संगीत, नृत्य, चित्रकला, वादन आदि कलाओं के समान इसे भी लागू करने का प्रोत्साहन दिया है। कुछ इनेगिने विद्यालयों ने ही इसे नियमित पाठ्यक्रम के रूप में लागू किया है परंतु कुछ निजी साधनसम्पन्न विद्यालयों में इसे व्यक्तित्व-विकास के पाठ्यक्रम की तरह भी लागू किया जा रहा है।


बाल रंगमंच के इस वर्तमान परिदृश्य के रूबरू अब हम बात करते हैं इप्टा में बाल रंगमंच की। इप्टा की स्थापना के कुछ वर्षों बाद ही अनेक इकाइयों में ‘लिटिल इप्टा’ का काम आरम्भ हो गया था। इप्टा के सदस्यों के बच्चे और उनके आसपास के तमाम बच्चों को समेटकर इप्टा के सदस्य ही जब-तब नाटक करवाते थे। इनमें से कई बच्चे आजीवन इप्टा के साथ ही रहे, रह रहे हैं परंतु जो बाद में विभिन्न क्षेत्रों में चले गये, वे भी आज तक अपने लिटिल इप्टा के दिनों को याद कर भावुक हो जाते हैं। इप्टा के बाल नाटक भी कभी भी सिर्फ मनोरंजक नहीं होते थे, उनमें कोई न कोई वैचारिक बीज अवश्य होता था, जो कई बार बच्चों के मन में गहरे तक जड़े जमा लेता था।
इप्टा की इकाइयों द्वारा बाल रंगमंच करने की परम्परा आज भी जारी है। बच्चों के ग्रीष्मकालीन रंग शिविर अनेक इकाइयों की वार्षिक गतिविधियों का हिस्सा हैं। आज इप्टा के चौदहवें राष्ट्रीय अधिवेशन के अवसर पर हमें बाल रंगमंच की हमारी परम्परा का पुनरावलोकन करना बहुत ज़रूरी लग रहा है। स्थूल रूप से इन वार्षिक शिविरों में पंद्रह दिन या एक महीने तक बच्चों को अभिनय, गीत-संगीत, नृत्य-चित्रकला, रंगमंचीय खेलों-अभ्यासों के माध्यम से प्रशिक्षित किया जाता है। किसी न किसी प्रकार का शिक्षाप्रद नाटक, कुछ जनगीत और कुछ लोकनृत्य उन्हें सिखाये जाते हैं। बहुत उत्सवधर्मिता के साथ बाल रंगमंच की यह गतिविधि की जाती है।

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समूह गीत ‘पानी रोको पानी रोको पानी रोको भाई रे’

सवाल यह है कि इप्टा के बाल रंग शिविरों से जुड़े बच्चे इप्टा के विचारों, गतिविधियों और आंदोलन को कहाँ तक समझ पाते हैं और आगे तक कितने जुड़े रह पाते हैं!! दूसरा सवाल यह भी है कि इन कार्यशालाओं के माध्यम से हम बच्चों को किसप्रकार की प्रेरणाएँ देते हैं? क्या किसी बनी-बनाई स्क्रिप्ट के संवाद याद करके, उन्हें रंगमंचीय गतियों और दृश्यों में किसतरह अभिनय करना है, उसका निर्देश देकर निर्देशक अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है या बच्चों के दिल-दिमाग को सक्रिय कर उन्हें रंगमंच के माध्यम से मानवीय जीवन जीने का ढंग सिखाता है? इसीतरह जनगीत लिखवाकर बार-बार गवाकर सुर-ताल और जोश भरकर गाना सिखाना ही पर्याप्त है या इसके पीछे की प्रेरणा, विचार और जज़्बे से रूबरू होते हुए बच्चे जनगीत का महत्व समझते हैं? ये सभी सवाल बाल रंगमंच करने वाली इप्टा की सभी इकाइयों के आत्म-मंथन के लिए आवश्यक हैं।

नाटक ‘चोर पुराण’

आज देश में एक ओर जिसतरह का विषाक्त माहौल बनता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर इस माहौल के प्रति प्रतिरोध भी ज़ोर पकड़ रहा है। जो बच्चे इप्टा के साथ जुड़े हैं या जुड़ रहे हैं, उनके लिए हमारी इकाइयों को कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए ताकि बाल मन की कोमल स्लेट पर विषैले अक्षर लिखे जाने की बजाय मानवीय संवेदना के गहरे चिह्न अंकित हो सकें। इस मंच से मैं कुछ सुझाव साथियों के विचारार्थ प्रस्तुत करना चाहती हूँ –

  1. बच्चों की मदद से तात्कालिक परिस्थितियों पर चर्चा करते हुए इम्प्रोवाइज़ेशन के माध्यम से नए नाट्यालेख तैयार किये जाएँ।
  2. प्रतिवर्ष होने वाले नाट्य प्रशिक्षण कार्यशालाओं के लिए एक पाठ्यक्रम तैयार किया जाए, जिसमें स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की भावना पर आधारित रंगमंचीय गतिविधियों के लिए एक लचीला खाका तैयार किया जाए। इप्टा की केन्द्रीय इकाई बने जो इसतरह का पाठ्यक्रम तैयार कर अपनी प्रांतीय इकाइयों को मुहैया कराए।
  1. बच्चों के लिए काम करने वाली अन्य रंगसंस्थाओं से पृथक् एक ‘वैचारिक सेल’ गठित कर बच्चों के वैचारिक प्रशिक्षण को भी रंगमंचीय गतिविधियों का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाय।
  2. बच्चों के लिए रंगमंच शिक्षा के एजेंडे में इप्टा के साथियों को भी प्रशिक्षित होकर प्रवेश करने की ज़रूरत है ताकि सही जगह पर सही समय पर विषाक्त माहौल के प्रतिरोध में हमारा सार्थक हस्तक्षेप हो सके।
    इन उपर्युक्त सुझावों के क्रियान्वयन के लिए सबसे पहले इप्टा के साथियों को लगातार स्वयं को नाट्य गतिविधियों के स्तर पर और वैचारिक स्तर पर ‘अपडेट’ रहना होगा, बच्चों के रंगमंच को हल्कीफुल्की गतिविधि के रूप में न लेते हुए पूरी कार्य-योजना के साथ नियमित गतिविधि के रूप में सक्रिय करने की ज़रूरत है।
नाटक ‘बड़े भाई साहब’
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  • बहुत ही अच्छा आलेख है। सही मायने में बच्चों के द्वारा नाटक का आयोजन सिर्फ एक कार्यक्रम भर नहीं होता; बल्कि मंचन के पूर्व बच्चे सीखने की विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरते हैं। इस दौरान वे नाटक के कथ्य के अतिरिक्त बहुत-सी ऐसी बातें सहजता से सीख जाते हैं जो परंपरागत रूप से चली आ रही सामान्य कक्षा प्रक्रिया में संभव नहीं होती। इससे भाषिक क्षमताओं के साथ-साथ कई सार्वभौम कौशलों का विकास होता है; जैसे- अवलोकन करना, तर्क करना, विश्लेषण करना, अनुमान लगाना, निष्कर्ष पर पहुंचना, सामाजिक यथार्थ से जोड़ पाना इत्यादि। इसके अलावे सामूहिकता, एक जुटता, दूसरों के प्रति आदर का भाव, जैसे मूल्य सहजता से विकसित हो जाते हैं।

  • बच्चों के साथ काम करना अपने आप में चुनौती पूर्ण होता है और लर्निंग बाय doing वाली प्रक्रिया ही सबसे ज्यादा प्रभावी होती है। बने बनाए फ्रेम से जुदा समय, परिस्थिति और स्थान के अनुसार इसमें बदलाव किया जाना जरूरी होता है (सिवाय मूल्यों के)
    आलेख में जिन बिंदुओं पर ध्यान रखने की बात कही है वह बहुत आवश्यक है।

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