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बच्चों द्वारा तैयार बच्चों का नाटक

बच्चों द्वारा तैयार बच्चों का नाटक

बाल नाट्य प्रशिक्षण कार्यशाला 2019
  • अजय आठले

(यह लेख सन् 2006 में इप्टा की संस्थापक सदस्य रेखा जैन द्वारा संपादित पुस्तक ‘बालरंग : बच्चों का रंगमंच : सिद्धांत और व्यवहार’ में प्रकाशित हुआ था।)

हर शहर में, जहाँ रंगमंचीय गतिविधियाँ होती हैं, बाल रंगमंच भी होता है। प्रायः गर्मी की छुट्टियों में जब बच्चों के स्कूल की छुट्टियाँ रहती हैं, रंगमंच से जुड़े लोग बाल रंग शिविर का आयोजन करते हैं। 15-20 दिनों का प्रशिक्षण देने के पश्चात् उसी शिविर में एक-दो नाटक तैयार करवाए जाते हैं और उनका बड़े व्यवस्थित रूप में मंचन भी किया जाता है।

लेकिन शिविर के समापन के बाद साल-भर तक माहौल फिर शांत हो जाता है, अगले शिविर के इन्तज़ार में। इन शिविरों में होनेवाली नाट्य प्रस्तुतियाँ देखने का अवसर मुझे मिला है, सिर्फ अपने शहर में ही नहीं, वरन रायपुर, बिलासपुर, कोरबा आदि अन्य शहरों में भी। कुछ बड़े निर्देशक, जैसे संजय उपाध्याय, सुमन कुमार, अरूण पाण्डेय, अलखनंदन, अंजना पुरी आदि निर्देशकों के काम को नज़दीक से देखने का अवसर भी मिला है।

अंधेर नगरी, निर्देशन – संजय उपाध्याय

इन सभी निर्देशकों की प्रस्तुतियाँ बेहद प्रभावशाली रही हैं मगर एक बात मुझे हमेशा लगती रही कि इन प्रस्तुतियों में निर्देशक हावी रहता है और निर्देशक की अनुपस्थिति में उसकी दूसरी प्रस्तुति उतनी ही प्रभावशाली हो, यह असम्भव-सा हो जाता है। यही वह बिंदु है, जिसके कारण बाल रंगमंच साल भर की गतिविधि नहीं बन पाता और उसका अगले शिविर से तालमेल नहीं हो पाता और यह तालमेल सिर्फ गर्मी की छुट्टियों में ही संभव हो पाता है।

गड़बड़ रामायण

चूँकि बच्चों के समय के अनुकूल हम समय नहीं निकाल पाते और हमारी अनुपस्थिति में बच्चे नाटक नहीं कर पाते इसलिए उनकी नाट्य गतिविधियाँ साल भर नहीं चल पातीं। अपने पुराने नाटकों का पुनर्मंचन भी बच्चे इसीलिए नहीं कर पाते कि इसमें संगीत देने वाले बड़े लोग होते हैं, नाटक की लाइटिंग ऐसी होती है कि इसे कोई बड़ा व्यक्ति ही संभालता है। स्टेज क्राफ्ट और प्रॉपर्टीज़ ऐसी होती हैं कि जिसके लिए बड़ों की ज़रूरत होती है। कई बार नए निर्देशक अपने-आपको प्रदर्शित करने और अपनी पहचान बनाने की भावना के वशीभूत जाने-अनजाने ऐसा कर बैठते हैं।

इप्टा रायगढ़ में एक बार श्री देवेन्द्रराज अंकुर जी ने शिविर लिया था। यह शिविर कहानी के मंचन पर केन्द्रित था। इस शिविर का अनुभव सभी युवा रंगकर्मियों के लिए अद्भुत था। अंकुर जी ने आते ही सबसे पहले सभी लोगों से कहानियाँ पढ़वाईं। फिर लोकतांत्रिक पद्धति से वोटिंग करवाकर आठ कहानियाँ चुनीं और फिर अंततः चार कहानियों का चयन किया। इसके बाद उन्होंने पूछा कि इन चार कहानियों को कौन-कौन निर्देशित करना चाहेगा? चार नाम सामने आए। उन्हें निर्देशक बना दिया और कहा कि अपने पात्र चुन लीजिए और रिहर्सल शुरु कर दीजिए। कोई समस्या आए तो मुझसे पूछ लेना। इसके बाद वे पेन-कागज लेकर एक लेख लिखने बैठ गए। अब जो चारों निर्देशक थे, वे परेशान हो उठे और अपने साथी कलाकारों के साथ मिलकर कहानी की मंचन-प्रक्रिया को लेकर जूझने लगे। अंकुर जी थे कि आराम से बैठकर लेख लिखते रहे। अंत में बुलाकर कहा कि, परसों मैं तुम लोगों का पहला मंचन देखूँगा। स्क्रिप्ट पकड़कर अभिनय करने की छूट दे दी। सभी कलाकार तनाव में थे मगर यह तनाव रचनात्मक था। दो दिनों के बाद पहला मंचन किया गया। हरेक दल का प्रदर्शन देखने के बाद चर्चा शुरु हुई, छोटी-मोटी टिप्स दी गईं। फिर उन्होंने कहा कि अगला मंचन एक दिन बाद होगा और इसमें शहर के बुद्धिजीवियों को भी आमंत्रित किया जाएगा। हम सब परेशान और तनावग्रस्त, कि कैसे मंचन होगा! मगर अंकुर जी बहुत निश्चिन्त! आखिर दूसरा मंचन भी हुआ और अब की बार चर्चा में उपस्थित दर्शकों की भी भागीदारी रही। कुछ सुझाव आए, कुछ मुद्दों पर विशेष चर्चा हुई, इसके बाद कुछ आवश्यक निर्देश देकर अंकुर जी ने घोषणा की कि, अब लगातार दो दिनों तक आप ‘रन थ्रू’ करें, इसके बाद मैं फिर देखूँगा और ज़रूरी हुआ तो कुछ बदलाव के लिए सुझाव दूँगा। हम सब तनावग्रस्त, कुछ अच्छा से अच्छा करके दिखाने की कोशिश में व्यस्त और अंकुर जी मज़े से टेबल पर अपना लेख लिखने में व्यस्त! कोई कुछ पूछने जाता तो हँसकर कहते – ‘तो करिये न!’ हम लोग कभी-कभी अंकुर जी से मज़ाक में कहते – ‘अगर मंचन अच्छा नहीं हुआ तो?’ अंकुर जी हँसकर कहते – ‘मुझे क्या फर्क पड़ेगा? नाटक तुम लोग कर रहे हो। दर्शक जो भी बोलेंगे, तुम लोगों को बोलेंगे। मैं तो वापस दिल्ली चला जाऊँगा।’ ऐसा नहीं था कि अंकुर जी कुछ नहीं कर रहे थे, वे चुपचाप ज़रूर बैठे रहते थे लेकिन सारी स्थितियाँ उनके नियंत्रण में होती थीं। कहानियों के चयन से लेकर मंचन की शैली तक जैसा उन्होंने चाहा, वैसा ही हुआ। उनका हस्तक्षेप नहीं नज़र आया, कलाकारों को भी लगता कि सब कुछ हम ही कर रहे हैं। यही एक रचनात्मक आनंद था, जो अंकुर जी ने कलाकारों को महसूस कराया। जाते-जाते कह गए – ‘डायरेक्टर की क्या ज़रूरत है, तुम लोग तो खुद ही सब कुछ कर लेते हो?’ यह अधूरा सच था।

‘अपना घर’ कहानी का रंगमंच

इस शिविर से मुझे लगा कि ऐसा प्रयोग बच्चों के साथ किया जाए तो यह रचनात्मक आनंद उन्हें भी मिलेगा। इसलिए एक शिविर में मैंने बीस बच्चों को चुना और उनका अलग से वर्कशॉप लिया। पहले दिन उन्हें कहानी सुनाने को कहा। चार-पाँच बच्चों ने कहानियाँ सुनाईं, फिर मैंने उन्हें दो कहानियाँ सुनाईं। शेखचिल्ली की कहानी उन्हें बेहद पसंद आई। सभी बच्चे एकमत से तैयार थे कि शेखचिल्ली की कहानी का मंचन किया जाए। मैंने उन्हें चार दलों में बाँट दिया और कहा कि कल चारों दल कहानी का मंचन करके दिखाएँगे। उन्हें यह कहकर छोड़ दिया कि जाओ, तुम लोग रिहर्सल करो।

दूसरे दिन सभी पूरी तैयारी के साथ आए थे। चारों दलों ने बारी-बारी से कहानी का मंचन किया। उसके बाद उन्हें बिठलाकर उन्हीं से पूछा गया कि शेखचिल्ली का रोल सबसे अच्छा किसने किया था। बारी-बारी से सभी को पूछकर रोल बाँट दिये और उन्हें बताया कि कि हर दृश्य-परिवर्तन में अगर गीत डाले जाएँ तो ज़्यादा अच्छा लगेगा। सभी से कहा कि वे गीत लिखकर लाएँ। दो दिनों की मशक्कत के बाद आखिर उन्होंने धुनें भी बना लीं ओर कोरस में गाने लगे। संवाद उन्हें लिखकर नहीं दिये थे बल्कि हर पात्र को कहानी के अनुसार अपने-अपने संवाद खुद लिखने और बोलने थे। चूँकि उन्होंने खुद ही संवाद गढ़े थे इसलिए याद करने का तनाव उन्हें नहीं था। लिहाज़ा चौथे दिन नाटक फ्लोर पर था। फ्लोर पर नाटक देखने के बाद मुझे लगा कि बच्चों में ग्रुप वर्क और आंगिक गतिविधियों में लय की कमी है। तब फिर उन्हें कुछ ग्रुप एक्सरसाइज़ेस और ताल पर चलने की एक्सरसाइज़ेस करवाईं। इसके बाद रिहर्सल के लिए छोड़ दिया। उसके बाद उन्हें नियमित रूप से ग्रुप एक्सरसाइज़ेस और ताल पर मूवमेंट्स की एक्सरसाइज़ेस कराता रहा लेकिन नाटक की रिहर्सल में हस्तक्षेप नहीं करता था। एक्सरसाइज़ से उनके बॉडी-मूवमेंट्स में सकारात्मक बदलाव आया और नाटक में जो कमी खल रही थी, वह दूर हो गई। हम लोग एक साथ तीन जगहों पर शिविर ले रहे थे, बाकी शिविर के बच्चों को बारी-बारी से बुलवाकर उनके सामने शो करवाए। फिर अंतिम तीन-चार दिन तो मैं दूसरे शिविरों में जाकर देखता रहा और हमारे ग्रुप के सीनियर्स ‘शेखचिल्ली’ की रिहर्सल में केवल उपस्थित रहते थे, रिहर्सल ये बच्चे खुद ही कर लेते थे। अंतिम दिन अन्य नाटकों के साथ ‘शेखचिल्ली’ का अच्छा प्रदर्शन हुआ और बाद में इसके छह प्रदर्शन हुए। तीन प्रदर्शन हमने करवाए, तो तीन प्रदर्शन इन बच्चों ने खुद ही कर लिए।

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आज भी अल्प सूचना पर ये बच्चे खुद ही रिहर्सल कर प्रदर्शन के लिए तैयार हो जाते हैं। अभी जनवरी में रायगढ़ इप्टा के राष्ट्रीय नाट्योत्सव के दौरान संजय उपाध्याय जी अपनी टीम के साथ रूके हुए थे। सुबह बच्चों को बुलाकर पूछा कि, क्या तुम लोग संजय भैया को ‘शेखचिल्ली’ दिखला सकते हो? बच्चे तैयार हो गए। दोपहर में दो रिहर्सल कर रात को पटना के साथी कलाकारों के सामने प्रदर्शन कर दिया, जिसे देखकर पटना के साथी अभिभूत हो गए।

चूँकि इस नाटक को बच्चों ने ही तैयार किया, इसके संवाद भी बच्चों ने ही लिखे, गीत बच्चों ने लिखे, धुनें भी उन्होंने ही बनाईं, नाटक का डिज़ाइन ऐसा बना कि सामान्य प्रकाश-व्यवस्था में कहीं भी खेल सकें, इसलिए इस नाटक के प्रति बच्चे बेहद लगाव महसूस करते हैं और इसका मंचन कभी भी कहीं भी करने के लिए तैयार रहते हैं।

हमारी इच्छा और प्रयास यह है कि आनेवाले वर्षों में बच्चे केवल नाटक ही नहीं, वरन मंच-संचालन से लेकर पूरे कार्यक्रम की रूपरेखा भी बना लें और बड़े लोगों की भूमिका केवल दर्शक की हो, तब शायद बाल रंगमंच अपना सही स्वरूप प्राप्त कर सकेगा।

गड़बड़ रामायण
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अर्पिता
अर्पिता
3 years ago

यह अनुभव बहुत काम आता है, जिस भी चीज में हमारी भागीदारी रहती है उसमें रमना और बसना दोनों हो जाता है। अंकुर जी की कार्यशाला याद है और यह भी याद है कि आपस में बातचीत में यह भी बात होती थी कि आखिर निर्देशक दिल्ली से इतनी दूर आए क्यों हैं, जब कुछ बताना नहीं है तो।
अजय भईया का इस तरह कराना, बच्चों की स्मृति में सदैव दर्ज़ रहेगा, बहुत बढ़िया तैयार हुआ था।
यांत्रिक तरीके से कुछ भी करने से उसकी प्रक्रिया में भी एकरसता रहती है और लगाव का अनुपस्थित होना सहज है।
यह जीवन के हर पहलू में लागू होता है।

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