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ज़रूरी खुली चर्चाओं का दौर : बरास्ते प्रितपालभाई

ज़रूरी खुली चर्चाओं का दौर : बरास्ते प्रितपालभाई

(अंबिकापुर इकाई के वरिष्ठतम प्रतिबद्ध साथी प्रितपालसिंह अरोरा ने पिछले दिनों अजय आठले का एक पत्र उपलब्ध कराया था, जो जनवरी 1997 के तीसरे सप्ताह का हो सकता है। इसे प्रितपालभाई के 16 जनवरी 1997 के पत्र के जवाब में लिखा गया था। दिसम्बर 1996 में रायगढ़ में मध्यप्रदेश इप्टा का पाचवाँ और अंतिम राज्य सम्मेलन सम्पन्न हुआ था। रायगढ़ इप्टा का 1994 में पुनर्गठन के बाद नए सिरे से काम शुरु हुआ था। 1996 में अपने तीसरे पाँच दिवसीय नाट्य समारोह के साथ इप्टा की ही तमाम इकाइयों के नाटकों के प्रदर्शन के साथ तीन दिन का राज्य सम्मेलन आयोजित हुआ था। इस सम्मेलन में इप्टा की विभिन्न इकाइयों की भिन्न-भिन्न कार्यशैली पर देश-प्रदेश की परिस्थितियों के बरअक्स काफी खुलकर बातचीत हुई थी। हम कुछ साथी इस सम्मेलन में उठाये गये महत्वपूर्ण मुद्दों पर बाद में भी पत्रों के माध्यम से चर्चा करते रहे। उसी कड़ी का यह लम्बा पत्र आज भी अनेक मुद्दों पर पुनर्विचार करने की माँग करता है। इसलिए इसे टंकित कर विचारार्थ प्रस्तुत किया जा रहा है। वर्तमान परिस्थितियों में हम सभी बहुत चिंतित हैं और वैकल्पिक नए रास्तों की तलाश में हैं। अतः इस पत्र में उठाए गए कुछ प्रासंगिक मुद्दों पर फिर से चर्चा की गुंजाइश है। – उषा वैरागकर आठले)

प्रिय भाई प्रितपाल,
मेरे और उषा के नाम संयुक्त रूप से लिखा पत्र आज ही प्राप्त हुआ। हालाँकि पत्र आपको उषा ने ही लिखा था, उसके अपने विचार थे। वैसे मैं खुद ज़्यादातर बहस-मुबाहिसों में नहीं पड़ता और काम पर ही ज़्यादा ध्यान देता हूँ लेकिन आपके पत्र से ऐसा लगा कि कुछ बातों पर वाकई चर्चा होनी चाहिए।

जहाँ तक मेरा अपना मत है, किसी भी कला और उसके प्रभाव को स्थूल के बजाय सूक्ष्म रूप में देखा जाना ज़रूरी है। कोई भी कला समाज को सूक्ष्म रूप से ही प्रभावित करती है। मैं यह नहीं मानता कि कला या नाटक के जरिये समाज में कोई क्रांति हो सकती है या नाटकों के जरिये हम कोई हरावल दस्ते का निर्माण कर सकते हैं। मेरी नज़र में ऐसा सोचना ही दुस्साहसपूर्ण होगा, यदि ऐसा है तो फिर चित्रकला को हम कैसे जनवादी या यथास्थितिवादी खेमे में बाँटें? क्या कोई कलाकृति अगर लघुपत्रिका में मुफ्त में छपे तो जनवादी और महंगे में बिक जाए तो पूँजीवादी होगी? निश्चय ही ऐसा नहीं हो सकता। रायगढ़ में हम लोगों ने भाऊ समर्थ को आमंत्रित किया था। वे यहाँ तीन दिन रहे। उसी दौरान चित्रकला पर, रंगों पर, टेक्श्चर पर, चित्रकला में चल रहे विभिन्न आंदोलनों पर काफी कुछ जानने और सीखने मिला था। भाई अवधेश वाजपेई यहाँ रंग शिविर के दौरान आए थे, वे बहुत अच्छे चित्रकार हैं और विचारों से बहुत रेडिकल, उनसे भी काफी चर्चा हुई थी। इन्हीं चर्चाओं के बीच एक छोटी-सी बात उठी थी, जिसका निचोड़ इसप्रकार है,

रंगों का प्रभाव मन पर पड़ता है, यह तो निश्चित ही है। धूसर रंग जहाँ व्यक्ति की चेतना को निष्क्रिय करते हैं, वहीं चटख रंग उद्वेलित करते हैं। यही कारण है कि विकसित देशों द्वारा सूक्ष्म राजनीति के तहत महँगी कलादीर्घाओं के माध्यम से, पुरस्कारों के माध्यम से धूसर रंगों की कलाकृतियों का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है ताकि आम जनता की चेतना को सुप्त ही रखा जाए। चटख रंगों को खारिज किया जा रहा है। यह बात हास्यास्पद लग सकती है, मगर कला के क्षेत्र में ऐसे ही सूक्ष्म स्तर के प्रभाव होते हैं व राजनीति खेली जाती है।

दूरदर्शन को मैंने कभी ख़ारिज नहीं किया। मेरा मानना है कि अपनी तमाम कमज़ोरियों, सरकारी भोंपू, भ्रष्टाचारी के बावजूद दूरदर्शन में दिखाये जा रहे कार्यक्रमों में बहुतायत में ऐसे हैं, जिनमें केन्द्रबिंदु आम आदमी रहा है। यह सरकारी दूरदर्शन ही है, जिसके कारण हमें गालिब और कबीर जैसे सीरियल देखने को मिले हैं। मगर जब से विदेशी चैनलों की बाढ़ आई है, एक राजनीति के तहत सीरियलों में से आम आदमी गायब होता चला गया है और उसकी जगह आए हैं ‘खानदान’, ‘परम्परा’ वगैरह सीरियल, जिसमें केवल उच्चवर्गीय लोगों की समस्याएँ और चिंताएँ ही पूरीतरह ग्लोरीफाई करके दिखाई जा रही हैं। इसका असर यह है कि हमारी पीढ़ी तक युवावर्ग पैसे वालों को कभी भी अच्छी नज़र से नहीं देखता था मगर आज का युवा इन सारी बातों से प्रभावित होता जा रहा है – बड़े बड़े बंगले, आलीशान ड्रॉइंगरूम में कॉर्डलेस फोन पर डिस्कशन करते पात्र और उनकी चिंताएँ उसे लुभाती हैं और वह परोक्ष रूप से ऐसा ही बनने को अपना लक्ष्य समझता है। वह अनजाने ही उन जीवन-मूल्यों, जिन्हें जीवन-मूल्यों की बजाय अनैतिकता कहना ज़्यादा उचित होगा, को समर्थन देकर सामाजिक स्वीकृति ही प्रदान करता है। और यह सब काम बिना किसी नारे या प्रचार के, बिना कोई नुक्कड़ नाटक खेले, बड़ी तेज़ी से हो रहा है। यही हाल भारतीय सिनेमा का है। इस विषय पर बेहतर होगा कि ‘पहल 52’ में प्रभुनाथ सिंह आज़मी द्वारा सिनेमा पर छपे लेख को पढ़ा जाए! बहुत अच्छा लेख है यह। उसमें बहुत-सी चीज़ें सामने आ रही हैं।

मुझे हमेशा लगता है कि नाटक मंचित करके हम दर्शकों में या समाज में कोई बदलाव ला पाते हों या नहीं, लेकिन ईमानदारी से यदि हम रंगकर्म कर रहे हैं तो हम रंगकर्मी ही सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं, ज़्यादा मानवीय हो जाते हैं। मैंने यह महसूस किया है कि इप्टा रायगढ़ की इकाई में जुड़े हमारे साथी, जो अब लगातार तीन वर्षों से नाटक के क्षेत्र में सक्रिय हैं, वो अब पहले से ज़्यादा गंभीर, ज़िम्मेदार और मानवीय हो गए हैं। हरेक सदस्य एकदूसरे के प्रति बहुत संवेदनशील है, अपने परिवार के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी महसूस करता है, दूसरे सदस्यों की पारिवारिक समस्या को अपनी समझ, उसकी सहायता के लिए जितना हो सके, कोशिश करता है। एकदूसरे के प्रति सभी सदस्य चिंतित रहते हैं। मुझे लगता है, यही हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है, जो ये लोग बिना कोई पोथी पढ़ाए नाटकों के माध्यम से सीख रहे हैं। मुझे लगता है, कला-माध्यमों से हम इसीतरह के सूक्ष्म बदलाव ला सकते हैं और जनता के बीच समझ बढ़ा सकते हैं। हमारी राजनैतिक पार्टियों, खासकर सीपीआई के साथ यह कमज़ोरी रही है कि उसने cadre base पर ही ज़्यादा ध्यान दिया है, mass base पर कम। cadre base के द्वारा regimentation को ही बढ़ावा मिलता है, जबकि आज के इस नए दौर में यह लगता है कि अब तानाशाही किसी की नहीं चलेगी, चाहे पूँजीवादियों की तानाशाही हो या सर्वहारा की। लोकतंत्र के इस दौर में cadre base ही नहीं, mass base पर भी ज़्यादा काम होना चाहिए। इसीलिए पार्टी में भी कल्चरल पॉलिटिकल लीडरशिप होनी चाहिए।

मुझे ऐसा लगता है कि इप्टा की भूमिका एक रिसोर्स सेन्टर की तरह होनी चाहिए, किसी पार्टी या ट्रेड यूनियन के कलाजत्थे की तरह नहीं। मुझे यह कभी भी सही नहीं लगता कि इप्टा के कलाकारों को किसी फैक्टरी गेट पर जाकर नाटक करना चाहिए या किसी ट्रेड यूनियन की सभा में जनगीत गाना चाहिए या फिर किसान सभा में जाकर नाटक खेलना चाहिए। क्यों नहीं हज़ारों की सदस्यता वाली मिल मज़दूर यूनियन के 10-12 सदस्यों को इप्टा के साथी प्रशिक्षित करें? वे अपना नाटक खुद खेलें। इप्टा के साथी उन्हें जनगीत सिखलाएंगे। वे अपने जनगीत खुद गाएँ। अगर ऐसा होगा तो उनकी यूनियन खुद-ब-खुद ज़्यादा मजबूत होगी। अपनी समस्याओं पर वो खुद नाटक लिखेंगे, खुद खेलेंगे और खुद चर्चा-बहस करेंगे। ऐसा होने पर उनका शिक्षण अपनेआप होगा। गाँवों में जाकर नाटक करने के खिलाफ मैं नहीं हूँ पर इस मुगालते के साथ जाना ठीक नहीं कि हम उन्हें कुछ देने जा रहे हैं, कुछ नया सिखा रहे हैं। मुझे लगता है कि गाँव ज़्यादा समृद्ध हैं और हम उनसे कुछ सीख ही सकते हैं। लोकशैलियाँ, लोककथाएँ, गायन-नृत्य हम उन्हें क्या सिखाएंगे, उनसे तो हमें ही सीखना पड़ेगा; और फिर चाहकर भी हम उनके जैसा नहीं कर सकते क्योंकि गाँव का व्यक्ति बेहद उन्मुक्त वातावरण में रहता है और उसी के अनुरूप उसका अंग-संचालन भी बेहद सहज और उन्मुक्त होता है; जबकि हम शहरी लोग इतने उन्मुक्त नहीं होते। घर पर वस्तुओं की भरमार और सड़क पर रिक्शा, साइकिल, टेम्पो, मोटरगाड़ियों से लगातार बचने और सतर्क रहकर चलने की आदत से हमारी उन्मुक्तता खत्म हो चुकी होती है। इसलिए हम गाँव जाएँ, उसकी बजाय गाँवों में ही इकाई गठित हो और वे लोग ही अपने ढंग से नाटक करें तो ज़्यादा ग्राह्य और प्रभावी होगा। गाँववालों के नाटक आप देखें तो वो अपनी गम्मत, नाचा या पाल्हा शैली में भी ऐसे चुटीले व्यंग्य आज की वर्तमान स्थितियों पर करते हैं कि हम-आप चाहकर भी उस शैली में वैसे नाटक न लिख पाएंगे, न उतना प्रभावशाली मंचन कर पाएंगे।

हमें अपना mass base बढ़ाना है तो हमें किसी से भी कोई परहेज नहीं करना चाहिए और हर जगह जहाँ भी संभव हो, अपनी घुसपैठ बनानी चाहिए। रायगढ़ इप्टा के साथी ऐसा करते भी हैं। इधर कुछ NGO’s की बाढ़-सी आई हुई है। सरकार से पैसे लेकर ये तरह-तरह की योजनाओं पर काम करते हैं। हम उनसे भी दोस्ताना ताल्लुक रखते हैं हालाँकि हम यह अच्छीतरह समझते हैं कि NGO’s इस देश में safety valve की तरह कार्य करने के लिए ही अस्तित्व में लाये गये हैं। ऐसे समय में, जब जनता का विश्वास राजनीति से उठ गया हो, कार्यपालिका से उठ गया हो, तब उसके असंतोष को फटने की बजाय safety valve के द्वारा कम करने के लिए ही अचानक इस देश में NGO’s की बाढ़ कुकुरमुत्ते की तरह बड़ी तेज़ी से विकसित हुई है। लेकिन इसके positive effects भी होते हैं। अंग्रेज़ों ने रेल लाइन अपने व्यापारिक कारणों से बिछाई थी लेकिन अंततः इसका प्रभाव देश की एकता और स्वतंत्रता आंदोलन को मजबूती प्रदान करने वाला साबित हुआ। इसलिए हम ऐसे संगठनों से भी उनकी सीमाओं को और प्रभावों को जानकर पूरी समझ के साथ और सतर्कता के साथ जुड़े हुए हैं।

नई टेक्नालॉजी की अपनी मजबूरी है – उत्पादन की अधिकता, और यही कारण उसे विवश करेगा जनवादीकरण की ओर। मगर हमारी ट्रेड यूनियन्स तो नई टेक्नालॉजी का ही विरोध करती हैं। मुझे तो लगता है कि नई टेक्नालॉजी का विरोध करना सही वैज्ञानिक समझ नहीं है। नई टेक्नालॉजी पर किसका अधिकार हो, इस बात पर ज़्यादा गौर किया जाना ज़रूरी है। एक बार किसी ने हरिशंकर परसाई से पूछा था कि अगर नई टेक्नालॉजी के कारण उत्पादन बहुत हो जाएगा तो क्या होगा! परसाई जी का उत्तर था कि अगर टेक्नालॉजी पर समाज का अधिकार हो तो उत्पादन बढ़ जाने से मज़दूर 8 घंटे की बजाय 4 घंटे ही काम किया करेगा और शेष वक्त समाज को देगा। यह एक सही और वैज्ञानिक समझ लगती है। मगर हमारे यहाँ तो यूनियन्स इसके ठीक उल्टे चलती हैं और आर्थिक लड़ाई को ही अपना मुख्य लक्ष्य मानती हैं। यही कारण है कि आर्थिक लड़ाई के वक्त हमारे मज़दूर लाल झंडा थामते हैं और वोट दूसरों को देते हैं। हमें ऐसी यूनियनों का कला जत्था बनने की बजाय उनका रिसोर्स सेन्टर बनना होगा।

उदारीकरण के इस दौर में देशी उद्योग चरमराने लगे हैं, देश में स्टील इंडस्ट्री की हालत खराब है, जूट उद्योग की हालत खराब है, ऐसे में हमारी strategy क्या होनी चाहिए? रायगढ़ जूट मिल में हमारी यूनियन का प्रभुत्व है। दूसरी यूनियन वाले हड़ताल कराकर बंद कराना चाहते हैं मगर हमारी यूनियन हर हाल में मिल को चलाए रखना चाहती है, मैनेजमेंट का पिट्ठू होने का आरोप सहकर भी। मुझे लगता है, उनकी यह समझ सही है। मिल ही नहीं होगी तो मज़दूर यूनियन का क्या अस्तित्व? जिंदल को लेकर भी हमारी यही सोच है। जिंदल के खिलाफ हम भी आंदोलन करते हैं। पानी वाले मुद्दे पर इप्टा के साथियों ने ही गीत तैयार किया था व गाया था मगर हम इस हद तक विरोध नहीं करते कि वह कारखाना ही बंद कर दे; जैसा कि तमनार क्षेत्र में हुआ। जिंदल पॉवर प्लांट लगाने जा रहा था मगर विरोध के कारण पॉवर प्लांट खटाई में पड़ गया, इससे क्या फायदा हुआ? उस क्षेत्र का विकास तो अवरुद्ध हुआ। नई टेक्नालॉजी तो अस्तित्व में आएगी ही, उसे हम रोक नहीं सकते। वह मानव श्रम को भी replace करेगी और अतिरिक्त मूल्य अब मानव नहीं, मशीन पैदा करेगी। आनेवाला विश्व श्रमिकों का नहीं, टेक्नोक्रेट्स का होगा। तब ऐसे में क्या हम मार्क्सवाद की पुरानी व्याख्या पर ही चलेंगे या उसे नए सिरे से परिभाषित करना चाहेंगे?

यही हमारे देश की वर्तमान राजनैतिक फ़िज़ा है। समन्वय की राजनीति चल रही है, minimum common program की राजनीति हो रही है। कांग्रेस के समर्थन से चल रही केन्द्रीय सरकार में जब गृह विभाग मंत्रालय हमारा व्यक्ति सम्हाल सकता है, तब मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार से किसी अच्छे कार्य के लिए निःशर्त सहायता लेने में क्यों परहेज़ होना चाहिए? मैंने कार्यकारिणी की बैठक में भी यही सवाल उठाया था मगर हमारे वरिष्ठ साथियों की तरफ से बहुत ठंडी प्रतिक्रिया थी इसलिए इस बात को वहीं खत्म करना पड़ा। मेरी इच्छा तो थी कि सरकार से अनुदान प्राप्त कर पूरे मध्यप्रदेश के लिए कार्ययोजना तैयार की जाए, परंतु ठंडी प्रतिक्रिया देखकर चुप हो गया। अभी मैंने अपनी इकाई के लिए ही इसतरह का प्रस्ताव भेजा है। ग्रीष्मकालीन शिविर में नाटक तैयार कर उसका प्रदर्शन पूरे छत्तीसगढ़ में करने के लिए, प्रारम्भिक तौर पर स्वीकृत भी हो गया है। फरवरी में भोपाल आमंत्रित किया गया है अंतिम रूपरेखा स्वीकृत करने के हेतु। मैं और पापा फरवरी में भोपाल जाएंगे इसी कार्य के लिए, यह कार्य पूरे मध्यप्रदेश के लिए भी हो सकता था।

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इप्टा को जब रिसोर्स सेन्टर की तरह होना चाहिए, कह रहा हूँ तो इससे मेरा आशय यह है कि हमारी इकाई को पूर्ण दक्ष होना चाहिए और पूरी कलात्मकता और दक्षता के साथ हमारा प्रस्तुतीकरण होना चाहिए, नाटक के सभी पक्षों – अभिनय, गायन, पार्श्व संगीत, स्टेज क्राफ्ट, मेकअप – इन सारे पक्षों में हमारे कलाकार पूर्ण दक्ष होने चाहिए। जहाँ तक सड़क नाटक, जनगीत का सवाल है, इसके लिए हम विभिन्न संगठनों को प्रशिक्षित करें और विभिन्न संगठनों के लोग अपने-अपने मंच पर इसे खेलें, हम उन्हें पूर्ण सहायता करें। लेकिन इप्टा नुक्कड़ नाटक भी खेले, सड़कों पर, फैक्ट्री गेट पर, आम सभाओं में और जनगीत भी गाए, मंचीय नाटक भी करे, महोत्सव भी करवाए – यह व्यावहारिक नहीं होगा। रिसोर्स सेन्टर की तरह कार्य करेंगे तो आपको विभिन्न जन-संगठनों की सहायता भी मिलेगी अन्यथा दिक्कतें सामने आएंगी।

राज्य सम्मेलन में एक मुद्दा उठा था साक्षरता को लेकर। यह सच है कि साक्षरता अभियान में हमारे कलाकार जाकर होलटाइमर हो जाते हैं और हमें परेशानी होने लगती है। जबकि साक्षरता भी उतना ही महत्वपूर्ण मुद्दा है। लेकिन इसका एक अच्छा उदाहरण जबलपुर इकाई (विवेचना) है। वहाँ जब साक्षरता का काम शुरु हुआ तो कला जत्थे का निर्माण करने की ज़िम्मेदारी विवेचना को सौंपी गई और उसने पूरे जिले में गाँव-गाँव जाकर लोगों के साथ मिलकर कला जत्थों का निर्माण किया और फिर इस कार्य से मुक्त होकर अपनी गतिविधियों में व्यस्त हो गई। उन्हें इसतरह की कोई परेशानी नहीं हुई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि विवेचना के पास professional competance था। इप्टा को नाटक के कलात्मक पहलुओं पर पूर्ण दक्षता प्राप्त करनी ही होगी। अभी तक हमारे यहाँ इसकी उपेक्षा होती रही है। हमने विचार और वैचारिक पक्ष पर ही ज़्यादा ज़ोर दिया है। विचारों का महत्व निश्चित तौर पर है। लेकिन केवल विचार, अच्छे विचार अच्छी स्क्रिप्ट नहीं हो सकते। ऐसा होता तो Communist Menifesto विश्व की सबसे अच्छी स्क्रिप्ट होता पर यह हकीकत नहीं है।

मुझे लगता है कि हमारे यहाँ डाइरेक्टर वर्कशॉप लगे, लोकशैलियों पर, मेकअप, कास्ट्यूम डिज़ाइनिंग, लाइट पर अलग-अलग वर्कशॉप लगे और हमारे अलग-अलग साथी इसमें दक्षता हासिल करें। साथ ही अपनी इकाई को रिसोर्स सेन्टर की तरह डेवलप करे तो हमारा काम तेज़ी से बढ़ेगा। जहाँ तक वैचारिक प्रशिक्षण का सवाल है, मुझे लगता है इसके लिए अलग से पोथी पढ़ाने की ज़रूरत नहीं है। ढाई आखर प्रेम का, वे खुद ही पढ़ लेंगे।

लगता है, पत्र काफी लम्बा हो गया। इतना लम्बा पत्र मैं कभी लिखता भी नहीं। शादी के पहले कभी उषा को भी इतना लम्बा पत्र नहीं लिखा होगा। व्यस्तता के इस दौर में इतना लम्बा पत्र पढ़ना भी दुरूह कार्य है। लेकिन इतना सब लिखने का यह अर्थ नहीं है कि मैं आपके पत्र का कोई तार्किक उत्तर देना चाहता हूँ। तर्क करना मेरी आदत नहीं है। तर्क करके किसी को पराजित तो किया जा सकता है, उसे सहमत नहीं किया जा सकता और सामूहिक कार्य तो सहमति से ही हो सकते हैं। यह पत्र तो मैंने सिर्फ इसलिए लिखा है कि हमारी इकाई जैसे भी सक्रिय है, उसके पीछे हमारी सोच क्या है! ज़रूरी नहीं कि हर कोई हमारी कार्यशैली से सहमत ही हो।
शेष कुशल। भाभीजी को प्रणाम, बच्चों को प्यार।

आपका
अजय आठले

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