Now Reading
सारा लोहा उन लोगों का, अपनी केवल धार

सारा लोहा उन लोगों का, अपनी केवल धार

(यह वक्तव्य दिनेश चौधरी संपादित iptanama.blogspot.com के 07 अप्रेल 2014 के अंक से लिया गया है – उषा वैरागकर आठले)

रायगढ़ (छत्तीसगढ़) इप्टा के साथी अजय आठले को विगत दिनों रायपुर के महाराष्ट्र मंडल द्वारा सत्यदेव दुबे स्मृति रंगकर्म गौरव सम्मान दिया गया। इस अवसर पर उनके द्वारा दिये गये वक्तव्य के असम्पादित अंश :

मित्रों,
मैं महाराष्ट्र मंडल रायपुर का आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे इस सम्मान के योग्य समझा किन्तु मुझे यह सम्मान ग्रहण करने में संकोच हो रहा है। जिस महान रंगकर्मी के नाम पर यह सम्मान दिया जा रहा है, उन्होंने जितना कार्य रंगकर्म के क्षेत्र में किया है, उनकी तुलना में मैं बहुत ही छोटा हूँ। सत्यदेव जी से मेरा व्यक्तिगत परिचय नहीं था मगर उनके कार्यों के बारे में बचपन से ‘धर्मयुग’ जैसी पत्रिकाओं में पढ़ता रहा हूँ। मराठी के प्रख्यात नाटककार गोविंद पुरुषोत्तम देशपांडे जी ने लिखा था कि ”उनके लिखे नाटकों को सबसे अच्छीतरह से दुबे जी ही समझ पाते हैं। मैं अपने नाटकों का पहला ड्राफ्ट उन्हें ही देता हूँ।” जबकि वैचारिक स्तर पर दुबे जी और गो.पु. जी दोनों ही दो अलग-अलग ध्रुव थे। मगर दोनों एकदूसरे का सम्मान करते थे। यह एक संयोग है कि मैं गोविंद पुरुषोत्तम देशपांडे जी की स्कूल का छात्र हूँ, मगर मुझे सम्मान दुबे जी की स्मृति में दिया जा रहा है। ऐसा अब शायद कला के क्षेत्र में ही सम्भव है।

दोस्तों, आज हम बेहद कठिन समय में जी रहे हैं। मैं यह मानता हूँ कि रंगमंच को फिल्म और टीवी ने नुकसान नहीं पहुँचाया, मगर हमारी नई आर्थिक व्यवस्था ने गम्भीर नुकसान पहुँचाया है। पहले कलाएँ या तो राज्याश्रित हुआ करती थीं या फिर लोकाश्रित, मगर दोनों के बीच एक रिश्ता भी था और वे एकदूसरे को प्रभावित भी करती थीं। मगर इस नई अर्थव्यवस्था में जब से बाज़ार का उदय हुआ, इसने कलाओं को बहुत नुकसान पहुँचाया। ये अब बाज़ाराश्रित हो गईं। हमारे समय में ‘सुरों की महफिल’ सजा करती थी मगर बाज़ार ने इसे ‘सुरों का संग्राम’ में बदल दिया। हर जगह प्रतियोगिताएँ होने लगीं और व्यक्तिवादिता को बढ़ावा मिलने लगा, जिससे रंगकर्म जैसी सामूहिक कला को बहुत नुकसान पहुँचा। जिन्हें थोड़ा भी सुरों का ज्ञान होता है, वो अब नाटकों में नहीं आते, वो अब सुरों के संग्राम में चले जाते हैं। जिसे थोड़ा भी नृत्य आता है, वो अब ‘डांस इंडिया डांस’ में चला जाता है। जिसे ये सब नहीं आता, वो ही अब नाटक में आता है और उनको ही लेकर हमें नाटक करना पड़ता है।

इस व्यक्तिवादिता ने सर्वसमावेशी विकास को तो गंभीर नुकसान पहुँचाया ही है मगर इसने लोकतंत्र के सामने गम्भीर चुनौतियाँ खड़ी कर दी हैं। समाज में जब व्यक्तिवादिता बढ़ती है तो समाज में तानाशाही की प्रवृत्ति को भी प्रश्रय मिलता है, प्रजातांत्रिक मूल्यों को चोट पहुँचती है। आज सबसे ज़्यादा हमले प्रजातांत्रिक संस्थानों पर ही हो रहे हैं, प्रजातांत्रिक मूल्यों को ही चोट पहुँचाई जा रही है। ऐसे समय में मुझे लगता है कि जो लोग रंगकर्म कर रहे हैं, वो लोग इस देश में प्रजातांत्रिक मूल्यों को बचाने की कोशिश में लगे हैं और प्रजातंत्र को मजबूत कर रहे हैं, यही आज की सबसे बड़ी क्रांति है।

बंसीदादा ने एक बार कहा था कि इस देश में तकरीबन पचास हज़ार नाट्य संस्थाएँ कार्यरत हैं और अगर अमूमन एक संस्था के पीछे 10-12 सदस्य मान लिए जाएँ तो यह संख्या 5 से 6 लाख के बीच होती है। ये पाँच से छै लाख लोग रंगकर्म से जुड़े हैं या कह लें कि प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा में जुड़े हैं। वैसे देखा जाए तो यह संख्या बहुत छोटी है और बाज़ार बेहद शक्तिशाली। ऐसा लगता है मानो जंगल में आग लगी है और छोटी-छोटी चिड़ियाँ अपनी-अपनी चोंच में पानी लेकर इस आग को बुझाने में प्रयासरत हैं। इन स्थितियों में कभी-कभी निराशा भी घेरती है। संत कबीर जिन्होंने अपना सारा जीवन अन्याय और असमानता के खिलाफ लगा दिया था और अंतिम समय में भी उन्होंने काशी की जगह मगहर में जाकर प्राण त्यागे थे, वो भी अपने उत्तरकाल में निराश ही हुए थे और उन्होंने गाया था, ‘‘नैहर से जियरा फाटे रे नैहर से जियरा’’; तो हम जैसे लोग तो उनकी तुलना में बेहद छोटे लोग हैं। परंतु मित्रों, समाज जब हमारे कार्यों का मूल्यांकन करता है, हमारे कार्यों को मान्यता देता है तब ये निराशा के बादल छँट जाते हैं तब मन कहता है, अब ‘नैहर से जियरा फाटे रे’ नहीं गाऊँगा, अब तो गाऊँगा ‘‘कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ, जो घर फूँके आपनो, चले हमारे साथ।’’

दोस्तों, रंगकर्म एक सामूहिक कर्म है। मैं आज जो कुछ भी हूँ, इसके पीछे वो लोग हैं, जिन्होंने मेरे साथ इन तीस वर्षों में काम किया है। मैंने तीन पीढ़ियों के साथ काम किया है। कुछ लोग अब इस दुनिया में नहीं हैं, कुछ लोग अपनी व्यक्तिगत व्यस्तताओं से दूर हो गए हैं मगर जब तक उन्होंने काम किया, जमकर किया। उषा के बिना तीस वर्षों का यह सफर असम्भव था। आज यह गौरव सम्मान मैं उन सभी छह लाख अनाम साथियों, उषा और इप्टा में मेरे साथ तीस वर्षों तक काम करने वाले साथियों की ओर से स्वीकार करता हूँ और उन्हें ही यह समर्पित भी करता हूँ। बकौल अरूण कमल, ‘‘अपना क्या है इस जीवन में, सब कुछ लिया उधार, सारा लोहा उन लोगों का, अपनी केवल धार।’’ धन्यवाद।

What's Your Reaction?
Excited
0
Happy
0
In Love
0
Not Sure
0
Silly
0
View Comments (7)
  • सर ने इसमे जो बात कही है कि जो थोड़ा सा गाना जानते है वो सुर संग्राम मे चले जाते है और जो नृत्य जानते है वो डंस इडिया मे चले जाते और जीनको कुछ नहीं आता नाटक मे आ जाते है पर अजय सर जी जिन्हें कुछ भी नहीं आत उसे भी सब सीखा देते थे वे बहुत अच्छे निर्देशक थे रायगढ़ मे तो क्या पुरे भारत मे उनके जैसा कोई नहीं है

  • पढ़ते समय ऐसा लग रहा था कि मैं पढ़ नहीं रहा हूँ,बल्कि अजय भैया बोल रहे हैं और मैं सुन रहा हूँ।

  • सारगर्भित, तथ्य पूर्ण और मार्मिक वक्तव्य।

    • नाटक के प्रति अजय भैया का आगाध प्रेम और उनकी वेदना उनके वक्तव्य से झलकती है अपना संपूर्ण जीवन जिन्होंने नाटक के लिये समर्पित कर दिया मेरा उन्हें कोटि कोटि नमन है।

  • लोहे मे धार देने की अद्वितीय क्षमता थी भाऊ में ।बेहतरीन उद्बोधन ।

  • विनम्रता मनुष्यता का हासिल है, सलाम भैया ✊✊

Scroll To Top