अण्णाभाऊ साठे
(11 मई 1951 को मुंबई के सुंदराबाई हॉल में अखिल भारतीय शांति एवं एकता संगठन का प्रथम सम्मेलन सम्पन्न हुआ था। अण्णाभाऊ साठे ने यह लेख संभवतः इसी सम्मेलन के लिए लिखा था। ‘इप्टा : एक सांस्कृतिक चळवळ’, संपादन-लेखन : रमेशचंद्र पाटकर, लोकवाङमय गृह, मुंबई से प्रकाशित पुस्तक में यह लेख संकलित है। हिंदी अनुवाद – उषा वैरागकर आठले)
‘शांति, जनगण/लोक और नाटक’ – इनका त्रिवेणी प्रवाह या संगम पिछले अनेक शतकों से अनवरत जारी है। यद्यपि शांति और नाटक, दोनों का निर्माण मनुष्य ही करता है परंतु नाटक और शांति ने भी परस्पर एक-दूजे की मदद की है तथा मानव के विकास में भी उनका योगदान रहा है। अनेक विद्वान कहते आए हैं कि, दुनिया एक रणभूमि/युद्धभूमि है; मगर कुछ विद्वानों ने दुनिया को एक रंगभूमि/रंगमंच कहा है। मुझे लगता है कि, दुनिया को एक रंगमंच कहना ज़्यादा सार्थक होगा।
मनुष्य ने पहले धनुष्य का आविष्कार किया और उसकी प्रत्यंचा छेड़ने पर उसके मन में तंतुवाद्य की कल्पना का प्रवेश हुआ। उसके बाद खुश होने पर मनुष्य गाने लगा और तंतुवाद्य की संगत से संगीत का सृजन हुआ। आगे चलकर मनुष्य ने तंतुवाद्य में अनेक प्रकार के बदलाव किये और संगीत का खूबसूरत इंद्रधनुष्य अस्तित्व में आया। बहुत खुश होने पर मनुष्य ने दूसरों की नकल की और इस हूबहू नकल से नाटक का जन्म हुआ। नाटक ने मनुष्यमात्र का मन खुशी से आंदोलित कर दिया। शारीरिक भूख की तृप्ति के साथ-साथ बौद्धिक भूख मिटाने का प्रयास भी आरंभ हुआ। मनुष्य नाटक पसंद करता है, नाटक उसे आनंदित करता है तथा पल भर के लिए वह अपने दुख को भूल कर मानसिक शांति प्राप्त करता है। इस तरह नाटक मानव-अस्तित्व का एक अविभाज्य अंग बन गया। इसलिए ‘दुनिया एक रंगभूमि/रंगमंच है’, यह बात ज़्यादा सही प्रतीत होती है। रंगभूमि और रणभूमि में ज़मीन-आसमान का अंतर है।
प्राचीन इतिहास ने हमें अनेक महान नाटककार, उनके नाटक और अनेक प्रसिद्ध संवाद उपलब्ध करवाए हैं। इसके साथ ही इतिहास हमें महान योद्धाओं, उनकी विजय, उनके द्वारा किये गये आक्रमणों तथा उनकी वीरता के किस्से भी बताता है। चहुँ ओर पाए जाने वाले पत्थर पर उत्कीर्ण शिलालेख अपने वैभव और सामर्थ्य की कहानी कहते हैं। हमारे इतिहास से यह स्पष्ट है कि, उस समय रंगभूमि और रणभूमि, ये दोनों ही परम्पराएँ चल रही थीं। एक परम्परा लोकनाट्य की और दूसरी परम्परा तलवार और युद्ध का प्रतिनिधित्व कर रही थी।
हमारी भारत-भूमि पर असंख्य युद्ध लड़े गए; अनेक युद्धपिपासुओं ने यह सुंदर मातृभूमि उजाड़ दी। इसलिए हमारा देश कोई प्रगति नहीं कर पाया। ज़मीनें बरबाद हुईं, जनता दरिद्री हुई, तेज़ी से अज्ञान बढ़ा। सुंदर और भव्य इमारतें, मंदिर और मस्जिदें, पत्थर की नक्काशीदार गुफाएँ और ग्रंथ – सब कुछ नष्ट हो गया। जीवित व्यक्तियों की चमड़ी छीलकर उपहारस्वरूप भेजना, आँखें निकलवा लेना, मनुष्य को ज़िंदा गाड़ देना तथा स्त्रियों और युवा लड़कियों से जनानखाने भर देने जैसे अमानवीय और भयानक काम किये गये। राजा अल्लातशक ने पाटलिपुत्र नगर पर आक्रमण कर बड़े पैमाने पर नरसंहार किया और भयंकर स्थिति निर्मित की। ‘‘इस राक्षसी युद्ध में लगभग सभी पुरुष मारे जाने के कारण स्त्रियों ने पुरुषों के सभी काम किये। उन्होंने खेत जोते और हाथों में धनुष्य-बाण थामकर उनकी रखवाली की। सभी स्त्रियाँ समूहों में रहती थीं। पुरुषों की संख्या इतनी कम हो गई थी कि दस से बीस स्त्रियों को एक पुरुष से विवाह करना पड़ता था।’’ यह बात गंगाचार्य के ‘युगपुराण’ ग्रंथ में लिखी हुई मिलती है।
प्राचीन काल में शिक्षा का प्रमुख केन्द्र नालंदा विश्वविद्यालय था, जिसे बख़्तियार अली ने लूटा और जला दिया। छावनी में खाना पकाने के लिए ईंधन के लिए बहुमूल्य ग्रंथों का उपयोग किया गया। शिक्षा के लिए समर्पित गुरुओं और शिष्यों को मार डाला गया। अगर हम सिर्फ एशिया महाद्वीप पर ही विचार करें तो चंगेज़ खान ने अपने घोड़ों के बिछावनों के लिए प्रसिद्ध ग्रंथ फाड़ डाले।
इस तरह की अनेक घटनाएँ घटीं मगर उनसे जनता का कुछ भला हुआ हो, ये हम नहीं कह सकते; क्योंकि ये रक्तरंजित घटनाएँ असीम दुख, वेदना, क्रूरता और यातनाओं से भरी हुई हैं। लोगों ने उन्हें हमेशा ही नापसंद किया है, बल्कि हमेशा ही ऐसी घटनाओं का धिक्कार किया है। ‘युद्ध’ शब्द मात्र से अधिकांश लोग डर से काँपने लगते हैं। चिंता से घिर जाते हैं। युद्ध का उल्लेख होते ही आनंद, हास्य, सुख गायब हो जाता है। रणभूमि पर खून से सनी खंदकों के बारे में तिरस्कार ही जन्म लेता है।
जीवन की महत्ता
आज तक नाटक और नाटककारों ने लोगों को सिर्फ आनंद ही प्रदान किया है। ऐसा लगता है कि रंगमंच एक आइना है, जिसमें वे खुद को देखते हैं। नाटककार अपने नाटकों के माध्यम से हास्य, सुखांतिका और मानव जीवन की महत्ता पर बल देते रहे हैं। प्रेम, शांति, दया और इंसानियत के द्वारा उन्होंने लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया है, साथ ही मित्रता और एकता का पाठ पढ़ाकर प्रेम करने तथा बेहतर आचरण करने की शिक्षा देकर नाटककारों ने लोगों को आनंद प्रदान किया है। उन्होंने रंगमंच पर अच्छाई की जीत और बुराई की हार को स्थापित किया है। धूर्त को महाधूर्त भले ही मिल जाए, परंतु सिर्फ त्याग ही इच्छित लक्ष्य की ओर ले जाता है। प्राचीन नाटकों में जुल्मी राजाओं को परस्पर युद्ध करते हुए दिखाया जाता था मगर साथ ही इन नाटकों में यह भरोसा भी दिलाया जाता था कि, अंततः सच्चे प्रेम की जीत होती है। संस्कृत के पहले नाटककार भास ने अपने ‘चारुदत्तम’ नाटक में शकार नामक पात्र का चित्रण किया है। इस शैतान स्वेच्छाचारी राजा के चरित्र-चित्रण के माध्यम से जुल्मी राजाओं के बौद्धिक दिवालियेपन को उजागर करने वाले संवाद लिखे गये हैं – ‘‘तुम्हें अब कौन बचाएगा? भूतपुरी का राजा वासुदेव या कुंती का पुत्र जनमेजय?’’ शकार वसंतसेना के बाल क्रूरता से पकड़कर पूछता है। इसी तरह द्रौपदी को भी दुःशासन कहता है, ‘‘मैं तुम्हारे बालों को पकड़कर घसीटकर ले जा रहा हूँ।’’ इन उदाहरणों में सत्ताधीशों की बुद्धिहीनता, स्वैराचार का हास्यास्पद चित्रण भास ने किया है। वे अपने हरेक नाटक के अंत में दर्शकों से पूछते हैं कि, ‘‘आपको संतुष्ट करने के लिए मैं और क्या करूँ?’’ अतः यह कहा जा सकता है कि लोगों का मनोरंजन करने के लिए ही नाटक का जन्म हुआ था। ईसापूर्व 450 वर्ष से अब तक रंगमंच ने लोगों को संतोष ही प्रदान किया है।
बाद में लगभग छठवी सदी में भास के उपर्युक्त नाटक के आधार पर शूद्रक ने ‘मृच्छकटिक’ लिखा। इसमें उन्होंने नाटक के स्वरूप में परिवर्तन किया। इस नाटक में शूद्रक का ‘शकार’ वसंतसेना को मारने का हुक्म अपने गुलाम को देता है परंतु जब गुलाम उससे कह देता है कि वह इस हुक्म का पालन नहीं करेगा तो शकार उसे जताता है कि ‘तू मेरा गुलाम है’। गुलाम उसे पलटकर जवाब देता है कि, ‘मैं आपका गुलाम हूँ मगर मेरी आत्मा नहीं’। गुलाम वसंतसेना की हत्या नहीं करता। शूद्रक ने इस तरह के दुष्ट और षड्यंत्रकारी स्वभाव का चित्रण करते हुए गुलामों को जागृत करने तथा हत्या का विरोध करने का प्रयत्न नाटक में किया है।
कला का जादू
ईसापूर्व 387 में कालिदास नामक महाकवि हुआ था। कालिदास की शकुंतला पवित्रता, प्रेम व उच्चतम भावनाओं के साथ दुष्यंत से मिलती है। वह अपनी शुद्धता का सबूत देती है। उस कालखंड में कालिदास शकुंतला के माध्यम से स्त्रीत्व की विजय चित्रित करते हैं। उसमें ‘‘बच्चे की एड़ी में लगी धूल से वस्त्र धूमिल होने वाला पिता पवित्र है’’ जैसी पंक्ति पढ़कर जर्मन कवि गेटे नाचने लगा था। अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक एकता स्थापित करने का यह जादू कला में ही होता है। नाटकों में हमेशा यह एकता दिखाई देती है। युद्ध विभाजनकारी होता है, उससे कभी एकता स्थापित नहीं हो सकती। कालिदास ने दिखा दिया है कि किसतरह प्रेम और सहयोग से विश्वास जीता जा सकता है। उन्होंने ‘कुमारसंभव’ नाटक में कहा है, ‘‘किसी के साथ सात कदम चलना या बात करना एक छोटी-सी दोस्ती कायम करता है।’’
इन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि हमारे प्राचीन नाटककारों ने लोगों को संतोष प्रदान करने की ही कोशिश की है। उन्होंने प्रेम, मित्रता और शांति की स्थापना के लिए अपनी समूची प्रतिभा और शक्ति दाँव पर लगा दी है। रंगमंच पर आनंददायी काल्पनिक चित्रों के माध्यम से उन्होंने हमेशा ही विजयोत्सव की स्थापना की है। इसीलिए लोक गीत और लोक नाटक को पंचम वेद की संज्ञा दी गई।
अपने लोकनाटकों के माध्यम से सांस्कृतिक वैभव के उच्चतम शिखर से रंगमंच आज जनभाषा तक आ पहुँचा है। 1843 से मराठी नाटक की शुरुआत हुई मगर उससे काफी पहले सन् 1795 में बंगला नाटक का जन्म हुआ। पिछले सौ सालों में महाराष्ट्र और बंगाल के रंगमंच ने लाखों लोगों का मनोरंजन किया। गेरेरित्र लेबेदेव तथा श्री गोलक नाथ दास से लेकर रविन्द्रनाथ तक और रविन्द्रनाथ से लेकर ‘जन नाट्य संघ’ तक (पीपल्स थियेटर एसोसिएशन) बंगला रंगमंच की अनवरत यात्रा चल रही है। बंगला समाज की परिवर्तनशील परिस्थितियों के अनुसार वहाँ की जनता को बंगला रंगमंच ने आनंद प्रदान किया है। बंगाल के अकाल पर आधारित ‘इप्टा’ का नाटक ‘नबान्न’ अमर हो चुका है। ‘इप्टा’ की बंगाल इकाई शांति पर आधारित जो नृत्य नाटिका (Ballet) प्रस्तुत करती है, उसे जो भी देखेगा, वह निश्चित ही युद्ध का बहिष्कार करेगा।
मराठी रंगमंच
मराठी रंगमंच पर अपना प्रभाव स्थापित करने वाले नाटककार अण्णासाहेब किर्लोस्कर, देवल, कोल्हटकर, गडकरी, खाडिलकर, वरेरकर और अत्रे हैं। मराठी रंगमंच ने अनेक प्रकार के सामाजिक दुखों को वाणी प्रदान की है। मराठी रंगमंच पर इतनी बड़ी संख्या में नाटक खेले गए हैं कि उनकी गिनती करना नामुमकिन है। उनकी चर्चा और विश्लेषण करना तो और भी संभव नहीं है। मराठी रंगमंच ने समाज के सड़े-गले हिस्सों की काफी आलोचना की है तथा जो कुछ शानदार है, उसकी रक्षा भी की है।
जहाँ जनता होती है, वहीं उसकी कला भी होती है। जनता को ज़मीन पर छोड़कर कला आसमान में कुलाँचे भर रही है, यह विचार करना ही बेकार है। इस तरह की कला अगर है तो वह परिपूर्ण कला नहीं है। कला जनता के हाथों में हाथ डालकर चलती है। जब जनता मुस्कुराती है, प्रसन्न है तो उसकी कला भी खिलखिलाती है। खिलखिलाना ही उसका प्रतिबिम्ब है। हम जानते हैं कि, सूर्य के साथ उसकी परछाई बदलती रहती है। इसलिए जब अर्थव्यवस्था का ‘सूर्य’ बदलता है, उस समय उसकी दिशा के साथ कला भी बदलती है। इस सिद्धांत ने भूतकाल में हमारे रंगमंच में बदलाव लाए हैं और भविष्य में भी यही सिद्धांत बदलाव लाता रहेगा।
आज हमारे देश में लाखों लोगों को बहुत कम मात्रा में मनोरंजन के साधन उपलब्ध हैं। लोगों की तीव्र इच्छा होती है कि मनोरंजन के साथ-साथ उन्हें मानसिक शांति भी मिल सके। यही ‘इप्टा’ का भी मार्गदर्शक सिद्धांत है। हमने पुराने नाटकों में एक नई चेतना और प्राण फूँके हैं। भारत के अनेक गुणी कलाकार ‘इप्टा’ में काम कर रहे हैं। देश के दक्षिण में ‘बुर्रकथा’ नामक विधा का उदय हुआ और ‘मायभूमि’ जैसे शाश्वत महत्व का नाटक मंचित हुआ। पंजाब ने पुराने नाट्य-प्रकारों में नई जान फूँकी है। महाराष्ट्र का ‘तमाशा’ नामक पुराना नाट्य-प्रकार अपने पुराने वाद्यों के साथ नए सिरे से लोकप्रिय हुआ है। हमारे नए कलाकार नए गीत गा रहे हैं, जिसे जनता का बहुत बड़ा समूह पसंद कर रहा है। इसके माध्यम से वे नए युग में शांति और एकता का संदेश दे रहे हैं।
शांति के लिए
‘‘कला को इतनी गहराई तक गाड़ दो कि वह दुबारा अपना सिर न उठा सके’’, कहने वाला औरंगजेब इतिहास की बात हो चुका है। मगर आज नए औरंगजेब पैदा हो रहे हैं। दुनिया की जनता के साथ-साथ भारतीय जनता पर भी खतरा मंडरा रहा है। हमारे देश के लिए भी आज शांति महत्वपूर्ण आवश्यकता बन चुकी है। समूची दुनिया आज युद्ध और शांति के बीच दोलायमान हो रही है। कभी लगता है कि युद्ध जीत हासिल करेगा, तो कभी लगता है कि शांति विजयी होगी। कई समझदार लोग शांति-स्थापना के लिए प्रतिबद्ध हैं, परंतु अनेक लोगों में शांति के लिए अभी चेतना का जागरण नहीं हो पाया है। अगर समूची जनता शांति के पक्ष में जागृत हो जाए तो विश्व युद्ध को रोका जा सकता है। इससे मानवमात्र की प्रगति का रास्ता खुल जाएगा। इसीलिए लोगों को शांति के पक्ष में जागृत करना, उन्हें समझाना तथा उन्हें शांति के पक्ष में तैयार करना ‘इप्टा’ की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी है। इस संगठन ने इस ज़िम्मेदारी को स्वीकार किया है।
प्राचीन काल में होने वाले युद्ध में कुछ लोग मारे जाते थे और जो जीवित बच जाते थे, वे अपनी ज़िंदगी नए सिरे से शुरु करते थे। मगर अब यदि तीसरा विश्वयुद्ध होता है तो कोई भी नहीं बच पाएगा। विनाशकारी परमाणु अस्त्रों से नया युद्ध लड़ा जाएगा। इस भावी युद्ध में यदि कुछ बचा रहा तो उसे अपने पूर्व-रूप में आने के लिए हज़ारों साल लग जाएंगे। मनुष्य अपनी इंसानियत खो बैठेगा। हम संस्कृति के जिस नए भवन का निर्माण करने की कोशिश कर रहे हैं, वह मिट्टी में मिल जाएगा।
क्या ऐसा हो सकता है? अगर आप ये जानना चाहते हैं तो हिरोशिमा और नागासाकी से पूछिये। इन शहरों को परमाणु अस्त्रों के अनुभव से जो ज़बरदस्त झटका लगा है, उससे वे जैसे-तैसे उबर रहे हैं। आज यहाँ जन्म लेने वाली नई पीढ़ी लूली-लंगड़ी-मूक-बधिर है। यह इस बात का परिचायक है कि, इंसान अपनी इंसानियत खो रहा है। पैदा होने वाली इस नई पीढ़ी की जीभ ही अपाहिज हो तो कला के लिए क्या उम्मीद हो सकती है! अगर कान ही बधिर हों तो संगीत का संगोपन-संवर्धन कैसे हो पाएगा? जो इंद्रिय मानव जीवन का आधार होते हैं, उन पर युद्ध का दुष्परिणाम हो रहा हो तो कलाकारों की प्रतिभा कैसे विकसित हो सकेगी? यह न हो इसीलिए जनता के लिए और उसके कलाकारों के लिए शांति की ज़रूरत है। रंगमंच पर खुदी खंदकों में से आज तक किसी ने अनाज नहीं उगाया है इसीलिए मानव-जीवन शांति की माँग कर रहा है। इन परिस्थितियों में नाट्य-क्षेत्र में सुखांतिका का महत्व असाधारण रूप से बढ़ गया है। अपने हाथों में नवजात शिशु की लाश को थामे हुए किसी भी पिता के होंठों पर मुस्कुराहट और खिलखिलाहट कभी नहीं आ सकती इसीलिए मुस्कुराहट और खिलखिलाहट शांति की माँग कर रही है। कोई भी नाटककार अपने नाटक के मंचन के लिए जलता हुआ घर या डूबता हुआ जहाज रंगमंच के रूप में नहीं चाहेगा; इसलिए नाटक भी शांति की माँग करता है।
श्री गोविंदराव टेंबे का कथन है कि तंतुवाद्य से संगीत का जन्म हुआ है, इसे हम स्वीकार करते हैं मगर परमाणु बम-विस्फोट में मनुष्य किसी भी प्रकार का संगीत नहीं सुन सकता। इसीलिए संगीत भी शांति की माँग करता है।
अपनी कलाओं में धीरे-धीरे बढ़ने वाला मुरझाया हुआ चंद्रमा देखकर कालिदास खिन्न हो गया था, अगर यह बात सही भी है, तो सूर्य की समूची गरमी पृथ्वी पर एकसाथ उगलने वाला और उसे लाखों मील तक फैलानेवाला हाइड्रोजन बम भी किसी आधुनिक कालिदास को प्रसन्न नहीं कर सकता। इसीलिए सृजनशील रचनात्मकता भी शांति की माँग कर रही है। जनता, नाटक और शांति के त्रिवेणी संगम को बरकरार रखना बहुत ज़रूरी है।
विभिन्न देशों की जनता तीसरे विश्वयुद्ध की तैयारी का एकजुट होकर विरोध कर रही है और विश्व-शांति की माँग कर रही है। प्रगति और संस्कृति के विकास के लिए लोग शांति चाहते हैं इसीलिए वे आक्रमण का विरोध कर रहे हैं।
हमें भी जनता के साथ खड़े होना चाहिए। हमें अपने गीतों और नाटकों के माध्यम से युद्ध का विरोध करना ही चाहिए। ‘इप्टा’ का यह मुख्य कर्तव्य है और यही उसकी परम्परा भी है।
जिन्होंने विषाणुओं से भरे बम चीन और कोरिया पर फेंके, जिन्होंने कोरिया को रक्तरंजित किया और जिन्होंने मलेशिया में इंसानी सिर लाकर देने वालों को खुलेआम ईनाम-पुरस्कार दिये हैं, ऐसे लोग भी आज बेहद शर्मनाक तरीके से ‘शांति’ की भाषा बोल रहे हैं। उनके लिए अभिप्रेत ‘शांति’ और हमारी शांति की परिभाषा में फर्क है। वे जिस शांति की बात करते हैं, वह मानव-विकास की परम्परा का अविभाज्य हिस्सा नहीं बन सकती, बल्कि हमारे द्वारा चाही गई शांति मानव-विकास की परम्परा का अविभाज्य हिस्सा है। इसीलिए ‘इप्टा’ द्वारा जनता को जागरूक किया जाना बहुत ज़रूरी है। वाकई ‘इप्टा’ को शांति, एकता और प्रगति के लिए प्रचार करना ही होगा।