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मरे के बेला तैं अकेला जाबै

मरे के बेला तैं अकेला जाबै

(मुन्ना पाण्डेय मर गया। मुन्ना पाण्डेय रायगढ़ जेल में कैदी था। किरण बेदी की सुधार योजनाओं से प्रभावित होकर मध्यप्रदेश की जेलों में भी कैदियों में सांस्कृतिक चेतना जगाने के लिए विगत वर्ष रंग शिविर आयोजित किया गया था। मुन्ना पाण्डेय उस शिविर का होनहार कलाकार था। विचाराधीन कैदियों द्वारा तैयार नाटक ‘दूर देश की कथा’ में वह भग्गू की भूमिका निभाया करता था। ‘दूर देश की कथा’ जावेद अख्तर और तनवीर अख्तर के सामूहिक प्रयास का प्रतिफल है। भारत वर्ष में इसके सैकड़ों प्रदर्शन हुए हैं। इस नाटक की कथा के मूल में भारत दुर्दशा का वर्णन है। तमाम देसी विसंगतियों को इस नाटक में दूर देश की कथा के बहाने दिखाया गया है। साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार के गलियारों से निकलता हुआ यह नाटक जनता को जागरूक बनाने के लिए अनेक रंगमंचीय तत्वों का सहारा लेता है। इप्टा रायगढ़ के साथियों ने रायगढ़ जेल के कैदियों को सुसंस्कृत बनाने के लिए इस नाटक का चयन किया। मुन्ना पाण्डेय जागरूक हुआ और यही जागरूकता उसकी मौत का कारण बनी। सरकार इस तरह के लोक कल्याणकारी कार्यक्रमों को न ही चलवाए तो बेहतर है, क्योंकि इसके बाद की स्थितियों को वह नहीं सम्हाल सकती। मुन्ना पाण्डेय सरकार की इस नौटंकी को सच मान बैठा और जब वह अपने सुसंस्कृत होने का प्रमाण देने को सामने आया, उसे मार डाला गया। रायगढ़ जेल का समूचा स्टाफ, जेल मंत्रालय और प्रदेश के मुखिया पर मुन्ना की हत्या का आरोप है। इस आरोप से सरकार कैसे बचेगी? संस्कृति और कला को संरक्षण देने वाली इस सरकार पर हत्या का आरोप है। प्रस्तुत है अजय आठले का उत्तेजक, संस्मरणात्मक आलेख)

जेल में दूर देश की कथा

25 मार्च को अखबार के कोने में एक छोटी-सी खबर छपी थी, पागल कैदी द्वारा रेल से कूदकर आत्महत्या! दूसरे दिन फिर एक छोटी-सी खबर छपी, ‘‘पुलिस के द्वारा ग्वालियर में ही कैदी का कफन-दफन कर दिया गया’’। अंतिम समय में नाते-रिश्तेदार कोई भी नहीं था मुन्ना के साथ! खबर पढ़कर मन अवसाद से भर गया। रह-रहकर मुन्ना का चेहरा आँखों के सामने घूम जाता था। जेल के भीतर स्कूल की बिल्डिंग के कक्ष में अपने साथियों के साथ पूरी तन्मयता के साथ गाता हुआ मुन्ना का वह चेहरा! ‘‘तै अकेला जाबे संगी मोर, मरे के बेला तैं अकेला जाबे’’ – मुन्ना का यह प्रिय भजन था, बेहद तन्मयता से गाता था। तब क्या पता था कि यही बोल उसके जीवन का कटु यथार्थ साबित होंगे।

मुन्ना से मेरी पहली मुलाकात जेल में तब हुई थी, जब हम विचाराधीन बंदियों के लिए रंग-शिविर लेने गए थे। तत्कालीन जेल अधीक्षक श्री राजेन्द्र गायकवाड़ जी ने तब मुन्ना से परिचय करवाया था, एक प्रतिभाशाली लड़के के रूप में और कहा था – ‘‘इसे मैंने हाथ के फोड़े की तरह संभालकर रखा है।’’

मुन्ना उस जेल में पिछले 3-4 वर्षों से था। दफा 301 का विचाराधीन बंदी, बेहद अंतर्मुखी लड़का था। पहले तो वह नाटक करने के लिए तैयार नहीं था। गायकवाड़ जी के प्रति आदर भाव होने के कारण शिविर में भाग ले रहा था मगर धीरे-धीरे मन की गाँठें ढीली पड़ने लगी थीं और धीरे-धीरे खुलने लगा था मुन्ना; फिर तो उसने इस नाटक में मुख्य भूमिका निभाई।

मुन्ना की संवेदनशीलता का पता मुझे तब चला था, जब एक दिन मैंने सभी बंदियों को एक प्रसिद्ध कहानी ‘पीला रूमाल’ सुनाई थी। यह एक उम्र कैदी के जीवन की कहानी थी, जिसमें कैदी अपनी पत्नी से कहता है कि अगर तुम मुझे निरपराधी मानती हो तो जिस दिन मैं जेल से छूटकर आऊँगा, गाँव के मोड़ पर स्थित पेड़ पर पीला रूमाल बाँध देना। पीला रूमाल दिखने पर ही मैं गाँव में प्रवेश करूँगा; अगर न दिखा तो फिर मैं तुम्हारे जीवन में कभी नहीं आऊँगा। जब वह गाँव के मोड़ पर पहुँचता है तो देखता है कि पूरा पेड़ पीले रूमालों से ढँका हुआ है। इस कहानी को सुनाने के बाद बंदियों की प्रतिक्रिया एक अद्भुत अनुभव था। पहली बार मेरा चुप्पी की भाषा से साक्षात्कार हुआ था। थोड़ी देर उसी अवस्था में रहने के बाद मैंने ही चुप्पी को तोड़ा और धीरे से एक प्रश्न किया – ‘‘पीले रूमालों से ढँके पेड़ के प्रतीक का आप लोग क्या अर्थ निकालते हैं?’’ मुन्ना ने कहा था, ‘‘भैया, उसकी पत्नी रोज़ एक रूमाल पेड़ पर बाँध देती होगी, यह बतलाने को कि, उसका पति निर्दोष है और वह पेड़ पीले रूमालों से भर गया होगा।’’ सचमुच मैंने इस कहानी को इस कोण से कभी नहीं देखा था। मुन्ना के लिए शायद यह भोगा हुआ यथार्थ था। बाद में कभी उसने एक बार पूछा था – ‘‘भैया, अगर अपराध मैंने किया है तो समाज उसकी सज़ा मेरे परिवार को क्यों देता है?’’

मुन्ना में नेतृत्व के गुण थे और दुस्साहस भी; इसीलिए उसका उपयोग गायकवाड़ जी के पूर्ववर्ती अधिकारियों ने कैसा किया, यह भी मुन्ना से पता चलता! तब मुन्ना का उपयोग किसी कैदी की धुनाई करने के लिए किया जाता था। अब मुन्ना अपने बंदी साथियों के बीच इसलिए लोकप्रिय था क्योंकि वह उनका ख्याल रखता था। यह परिवर्तन मुन्ना ही नहीं, अन्य कैदियों में भी आया था। हमारे शिविर के दौरान ही एक घटना घटी थी। पाकिटमारी के आरोप में सज़ा काटकर एक कैदी बाहर आया ही था कि उसे उसके पूर्व साथियों ने फिर से यह काम शुरु करने को कहा और उसके द्वारा इंकार कर दिये जाने पर उसे बुरी तरह मारा और उसका सिर फोड़ दिया था। पुलिस केस बना और मारने वाला जेल पहुँचा। जेल पहुँचने पर मुन्ना और उसके साथियों ने उसकी जमकर धुनाई कर डाली; इस गुस्से में कि, उनका साथी नेक राह पर चलना चाह रहा था तो इसी व्यक्ति ने उसे मारा-पीटा था।

दूसरे दिन जब हम शिविर लेने पहुँचे तो बंदियों ने बड़े उत्साह से हमें कल की घटना बतलाई; लेकिन उन्होंने गलत किया है, कहने पर सभी का उत्साह ठंडा हो गया था! हालाँकि उस समय उपदेशात्मक लहज़े में उन्हें समझा-बुझा दिया लेकिन मेरे भीतर से वे उपदेश मुझे बेहद खोखले लग रहे थे। आखिर वे लोग पूरीतरह गलत भी तो नहीं थे। यह बात ज़रूर अच्छी लगी थी कि, ये लोग सचमुच एक अच्छी ज़िंदगी जीना चाहते हैं।

जेल में जहाँ अधीक्षक श्री गायकवाड़ एवं श्री वाय सी साल्पेकर जी का व्यवहार बिल्कुल नई सोच और जेल-सुधार कार्यक्रमों के अनुकूल था, वहीं अन्य कर्मचारी अभी तक पुरानी मानसिकता से ही ग्रस्त थे। जिसके कारण शिविर के बीच भी व्यवधान उत्पन्न होता था। एक दिन किसी कारणवश हम लोग ज़रा देर से पहुँचे तो देखा कि, वातावरण में तनाव है। अधीक्षक महोदय कार्यवश बिलासपुर गए हुए थे। स्कूल के भीतर पहुँचे तो देखा, केवल दो-तीन लोग ही बैठे हुए थे। पूछने पर पता चला कि मुन्ना से बाबा (सिपाही) की बहस हो गई है और अभी तक किसी ने खाना नहीं खाया है। मुन्ना अपनी बैरक में चला गया है। इतने में वह सिपाही भीतर आया और मुझसे पूछने लगा – ‘‘साहब, क्या आपने इन लोगों को एक के ऊपर एक चढ़कर रिहर्सल करने के लिए कहा है?’’ मेरे हाँ कहने पर वह चुप हो गया। फिर कहने लगा, ‘‘ये लोग एक के ऊपर एक चढ़ रहे थे। मैंने इनसे कहा कि उल्टा-सीधा कुछ मत करो, कहीं पंखे में हाथ लग गया और चोट आ गई तो हमारी मुसीबत हो जाएगी। इस बात पर मुन्ना गुस्सा हो गया और उल्टा-सीधा बकने लगा। अरे साहब, ये नए साहब जब से आए हैं, मारपीट बंद करवा दी है। इसलिए ये लोग ज़्यादा सिर पर चढ़ गए हैं वरना तो हम इन्हें दो दिन में ठीक कर दें!’’ अब उस सिपाही को क्या समझाता? उससे निवेदन किया कि हमें अकेला छोड़ दें, हम सम्हाल लेंगे। मैं जानता था कि जितनी शालीनता से यह सिपाही मुझसे बात कर रहा है, बंदियों के साथ निश्चित ही ऐसा नहीं किया होगा और यह सच भी था। सिपाही ने गाली-गलौज करते हुए व्यंग्य से कहा था, ‘‘साले, दीवार फाँदने की प्रैक्टिस कर रहे हो!’’ इस पर मुन्ना उससे उलझ गया तो मुन्ना को खाना नहीं दिया गया, जिससे बाकी बंदियों ने भी खाना नहीं खाया। तब मुन्ना ने ही बाकी लोगों को समझाकर खाना खिलाया और खुद भूखा ही बैरक में चला गया था। मैंने एक बंदी को उसे बुला लाने के लिए कहा तो बंदी ने कहा कि मुन्ना ने मना किया है। मैंने कहा, ‘‘जाओ, मुन्ना से कहो कि मैं आया हूँ और उसे बुला रहा हूँ। थोड़ी देर में मुन्ना आया, उससे मैंने कहा था कि अगर आज तुम्हारा मन नहीं लग रहा है तो हम बैठकर चर्चा ही करेंगे।’’

मुन्ना ने कहा, ‘‘नहीं भैया, अब ठीक हूँ; चलिये रिहर्सल करते हैं। रिहर्सल के बाद वही बातें मुन्ना ने भी बतलाईं, जो बाकी लोग कह रहे थे पर साथ ही मुन्ना ने यह आग्रह भी किया कि गायकवाड़ साहब को मत बताइयेगा, नहीं तो बाद में सिपाहियों से इन बंदी साथियों को इसका फल भुगतना पड़ेगा।’’

एक दिन हम लोगों ने सभी बंदियों को बतलाया था कि शिविर खत्म होने के बाद भी हम सभी शाम को तुम लोगों को लेकर ही चर्चा करते रहते हैं। यहाँ से छूटने के बाद तुम लोगों के लिए हम क्या कर सकते हैं, इस पर सोचते रहते हैं। इस पर मुन्ना ने बेहद उत्सुक होकर पूछा था कि मेरे विषय में आप लोगों ने क्या सोचा है? हम सभी ने तब कहा था कि जेल से निकलने के बाद तुम हमारे ग्रुप में आ जाना; हम सब मिलकर कुछ न कुछ करेंगे। तब क्या मालूम था कि हमारा यह वचन महज़ एक आश्वासन बनकर रह जाएगा और हम मुन्ना के लिए कुछ भी नहीं कर पाएंगे। मुन्ना ने तब कहा था कि यहाँ से निकलने के बाद मैं पूरी कोशिश करूँगा, एक अच्छी ज़िंदगी जीने की, चाहे उसके लिए मुझे अपनी जान ही क्यों न गँवानी पड़े!

मुन्ना में संवेदनशीलता तो थी ही और अन्याय के खिलाफ लड़ते वक्त अपनेआप को प्रताड़ित कर लेने की दुस्साहसिकता भी थी। यह सोचकर मैं हैरान रह जाता था कि आखिर इस हथियार का उपयोग उसने कहाँ से सीखा होगा! गांधीवाद का नाम लेकर सत्ता-सुख भोगने वाले राजनीतिज्ञों में भी यह माद्दा नहीं है कि दूसरों पर हो रहे अन्याय के विरोध में वे खुद को थोड़ा-सा कष्ट दे सकें।

शिविर की समाप्ति के पश्चात भारी मन से हम लोगों ने विदा ली थी। उसके बाद हरेक शनिवार-रविवार हम लोग उनसे मिलने जाते थे; सभी बंदी हमारी राह देखते थे। किसी कार्यवश एक शनिवार हम नहीं जा पाए, गायकवाड़ जी भी अपनी व्यस्तता के कारण उन्हें यह खबर देना भूल गए थे। उस दिन वे सारे लोग बिना खाना खाए हमारा इंतज़ार करते रहे। पता चलने पर गायकवाड़ जी को बेहद पछतावा हुआ। उन्होंने हमें फोन किया और दूसरे दिन समय निकालकर हमें उनसे मिलने जाना पड़ा था।

गायकवाड़ जी और साल्पेकर जी का तबादला हो जाने के पश्चात हमारा जेल जाना बंद हो गया। हमें सीधे-सीधे मना तो नहीं किया गया लेकिन जेलर साहब कभी भी फोन पर नहीं मिले, जिनकी स्वीकृति के बिना जेल के भीतर जाना संभव नहीं था और हमारा जाना बंद हो गया। बंदी कलाकारों से हमारा भौतिक सम्पर्क करीब-करीब टूट ही गया था, मगर जेल की चहारदीवारी से छनकर कुछ बातें आ ही रही थीं और पता चल रहा था कि सब कुछ ठीकठाक नहीं है।

अचानक 14 मार्च के अखबारों में खबर आई कि मुन्ना पाण्डेय ने नाटकीय ढंग से पेड़ पर चढ़कर जेल में चल रही अनियमितताओं के प्रति अपना विरोध प्रकट किया और अपने शरीर पर ब्लेड चलाकर खुद को लहूलुहान कर लिया। उसे अस्पताल में भर्ती किया गया है। उसे किसी से मिलने नहीं दिया जा रहा है। खबर चौंकाने वाली थी। शाम को इप्टा के सदस्यों ने एक बैठक ली और मुन्ना से मिलने अस्पताल पहुँचे। कैदियों के लिए बनाए गए वॉर्ड में मुन्ना लेटा हुआ था। उसका पहला प्रश्न था, ‘‘भैया मैंने ठीक किया न?’’ अन्याय के विरोध में हर कदम पर हमारी सहमति माँगना मानो उसकी आदत में शुमार हो गया हो!

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तब मैंने उससे कहा था, ‘‘पहले तुम ठीक हो जाओ, इस विषय पर हम अलग से चर्चा करेंगे।’’ तब क्या पता था कि यही हमारी मुन्ना के साथ आखिरी मुलाकात होगी। तब मुन्ना ने कहा था, ‘‘मुझे कुछ नहीं हुआ है; मेरा इलाज तो जेल के अस्पताल में भी हो सकता था मगर मुझे साजिश के तहत यहाँ लाकर डाल दिया गया है ताकि जेल में जो साथी अनशन कर रहे हैं, उन्हें तोड़ा जा सके।’’ इस संक्षिप्त मुलाकात के बाद हम लौट आए थे। मगर हमारे दो साथी थोड़ी देर के बाद फिर मिलने पहुँच गए और वहाँ मुन्ना ने उन्हें विस्तार से सारी बातें बतलाई थीं। कैसे नए जेलर के आते ही उसने सारे सांस्कृतिक कार्यक्रम, जो जेल-सुधार कार्यक्रम के तहत चल रहे थे, बंद करवा दिये। विचाराधीन कैदियों को मिलने वाला साबुन और तेल बंद करवा दिया तथा भोजन-व्यवस्था में ढाबा-पद्धति शुरु कर दी। मुन्ना ने जब विरोध किया, तो उसे शारीरिक यातनाएँ दी गईं। फलस्वरूप मुन्ना और उसके साथी अनशन पर बैठ गए। तब जेलर ने उन्हें गुनाहखाने में डाल दिया। ध्यान देने की बात है कि पिछले दस वर्षों में किसी भी बंदी को गुनाहखाने में डालने की ज़रूरत नहीं पड़ी थी। आखिर तंग आकर मुन्ना ने अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए दुस्साहसिक कदम उठाने का निर्णय लिया और मौका मिलते ही वह पेड़ पर चढ़ गया तथा अपने शरीर पर ब्लेड चलाकर खुद को लहूलुहान कर लिया। इसके बाद ही जिला प्रशासन द्वारा जाँच बैठाई गई।

मुन्ना से मिलने के पश्चात दूसरे ही दिन हम सब जिलाधीश से मिलने गए और उनकी अनुपस्थिति में अतिरिक्त जिलाधीश को ज्ञापन सौंपा। इस बीच मुन्ना का एक साथी, जो बाहर आ चुका था, उसका भी बयान रिकॉर्ड करवाया। उसने भी करीब-करीब वही बातें बताईं, जो मुन्ना ने कही थीं। लेकिन इसी बीच खबरें आने लगीं कि मुन्ना को पागल बतलाकर ग्वालियर भेजा जा रहा है। यह जेल प्रशासन की चाल थी। मैं इस सिलसिले में कुछ डॉक्टर्स से मिला और उनकी राय जाननी चाही कि, एक व्यक्ति को पागल करार देने के लिए कौनसे परीक्षण करने पड़ते हैं? चर्चा से पता चला कि इसतरह के परीक्षण की रायगढ़ में सुविधा नहीं है, केवल ग्वालियर में ही ब्रेन का ई.सी.जी. करके यह पता लगाया जा सकता है! यहाँ केवल संदेह व्यक्त किया जा सकता है और परीक्षण के लिए अनुशंसा की जा सकती है। यही वह कमज़ोर बिंदु था, जिसका लाभ जेल-प्रशासन ने उठाया। मुन्ना को पागल करार नहीं दिया गया, वरन मानसिक परीक्षण की अनुशंसा की गई। अनुशंसा असामान्य व्यवहार के आधार पर की गई।

असामान्य व्यवहार की परिभाषा क्या हो, इसका कोई ठोस आधार नहीं है। फिर मुन्ना तो असामान्य परिस्थितियों में रह रहा था। असामान्य व्यवहार मेडिकल साइंस के बजाय मनोविज्ञान का विषय है। कुछ लोगों को उसका पेड़ पर चढ़ जाना और अपनेआप को घायल कर लेना असामान्य व्यवहार लग सकता है, मगर जब अभिव्यक्ति के सारे रास्ते बंद हो जाएँ तब किसी व्यक्ति के पास और कौनसा रास्ता बच जाता है? अस्पताल में आने के बाद भी मुन्ना ने अस्पताल की अव्यवस्था और गंदगी को लेकर हल्ला मचाया था। एक विचाराधीन कैदी का यह आचरण भी कुछ लोगों को असामान्य लग सकता है! जिस समाज में अपने स्वार्थ के अलावा दूसरा कुछ सूझता ही न हो, वहाँ दूसरों की तकलीफों के लिए अपनी जान जोखिम में डालना तो असामान्य व्यवहार ही कहलाएगा। हमसे भी लोग पूछते हैं, आप लोग क्यों नाटक करते हैं, कितना पैसा मिल जाता है! बच्चों के शिविर लगाने पर आपको कितना पैसा मिल जाता है! जब उन्हें हम बतलाते हैं कि इससे हमें कोई आय नहीं होती तो इसतरह देखा जाता है, मानो हम किसी दूसरे ग्रह के प्राणी हों! पूछने लगते हैं कि फिर इतना समय क्यों खराब करते हैं? निश्चित ही हमारा व्यवहार उन्हें असामान्य ही लगता होगा।

जेल-प्रशासन इसलिए भी मुन्ना को पागल करार देना चाहता था, ताकि उसके द्वारा दिये गये बयानों को झूठा ठहराया जा सके। भले ही उसका एक साथी बाहर आकर लगभग वैसा ही बयान दे चुका था। जेल-प्रशासन अपने मकसद में सफल रहा और मुन्ना को अंततः ग्वालियर भेज दिया गया और अचानक समाचार पत्रों से मालूम हुआ कि मुन्ना ने चलती ट्रेन से कूदकर आत्महत्या कर ली है। जो कहानी समाचार पत्रों में छपी है, वह भी अविश्वसनीय लगती है। सिपाही का बेल्ट टूटकर हथकड़ी का निकल जाना समझ से परे है। उसने आत्महत्या की या उस समय कोई दुर्घटना हुई है, इसकी जाँच होना ज़रूरी है। उसकी लाश को यहाँ न लाकर वहीं पोस्टमार्टम कर दफन कर देना भी अनेक संदेहों को जन्म देता है।

बहरहाल, मुन्ना अब इस दुनिया में नहीं है, मगर उसके द्वारा उछाले गए प्रश्न अब भी अनुत्तरित हैं। पारदर्शी और जनोन्मुखी होने का दावा करने वाली सरकार की नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है कि वह जनता के सामने सारे तथ्यों को उजागर करे।

(अजय आठले का यह लेख जबलपुर एवं सतना से प्रकाशित स्वतंत्र मत नामक अखबार के 11 अप्रेल 1999 के अवकाश अंक में प्रकाशित हुआ था। इस लेख के लिखने के बाद अजय ने मानवाधिकार आयोग में भी मुन्ना पाण्डेय के पिता के मार्फत जाँच के लिए आवेदन देकर काफी दौड़धूप की थी, मगर नतीजा शून्य रहा था। उस पूरे दौर में इप्टा रायगढ़ के सभी साथी बहुत आहत, बेचैन और निराश थे। इप्टा की रचनात्मक पहल और व्यवस्था द्वारा की गई एक संवेदनशील कलाकार (भले ही वह विचाराधीन कैदी था) की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हत्या ने हमें भीतर तक हिला दिया था। मुन्ना पाण्डेय जैसे युवक अपराध की दुनिया में क्योंकर आते हैं या धकेल दिये जाते हैं, इसके लिए किसतरह व्यवस्था ही ज़िम्मेदार होती है, यह बात आज और ज़्यादा दिखाई देती है। – उषा वैरागकर आठले)

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