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नाट्य समारोह एवं सांस्कृतिक राजनीति

नाट्य समारोह एवं सांस्कृतिक राजनीति

  • उषा वैरागकर आठले

(यह शोध पत्र इंडियन सोसाइटी फॉर थिएटर रिसर्च के कोलकाता में 2013 में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय शोध सम्मलेन में प्रस्तुत किया गया था तथा इप्टानामा के 2013 के मुद्रित अंक में प्रकाशित हुआ था)

भारत एक उत्सवधर्मी देश है। यहाँ अनेक अवसरों पर मेले-उत्सव आयोजित होते हैं। हम इसतरह के मेले-उत्सवों पर अपनी खुशियाँ, अपनी सृजनात्मकता को साझा कर संतुष्ट होते हैं। हमारा उद्देश्य होता है – आपस में मेल-मिलाप के द्वारा सामाजिक संबंधों की ऊष्मा समेटना। नाटक और रंगमंच भी इस भावना से अछूता नहीं है। पहले और आज में फर्क इतना ही है कि पहले ये उत्सव क्षेत्रीय स्तर तक सीमित हुआ करते थे, अब इनपर वैश्विक सांस्कृतिक प्रतिमानों पर खरा उतरने का अप्रत्यक्ष दबाव होता है। अब इनमें व्यावसायिकता प्रवेश कर गई है। अब ये सांस्कृतिक राजनीति से प्रेरित होने लगे हैं। आज इसतरह के सांस्कृतिक उत्सव ‘संस्कृति उद्योग’ में बदलने लगे हैं। ‘‘संस्कृति उद्योग आधुनिक युग की देन है। इसके पहले संस्कृति का उत्पादन और उपभोग छोटे पैमाने पर होता था, जो सामंतवाद की विशेषता है। उसमें दार्शनिक, लेखक, चित्रकार, संगीतकार, रंगकर्मी, दक्ष कारीगर आदि स्व-रोजगार वाले उत्पादक होते थे, जिनका कोई व्यावसायिक संगठन नहीं होता था। लेकिन जब संस्कृति का उत्पादन बड़े पैमाने पर होने लगा, तो लेखन, पत्रकारिता, रंगमंच, कला-सृजन स्व-रोजगार की बजाय बड़ा उद्योग और व्यापार बन गया, इसमें उन्नत तकनीक का बहुत बड़ा योगदान है। उदाहरण के लिए, पहले रंगमंच छोटा-सा, थोड़े-से लोगों के लिए तथा किसी मंदिर, राजदरबार या सामुदायिक व्यवस्था के संरक्षण में होता था। लेकिन जब पूँजी आ गई और फिल्में बनने लगीं, तो उसी कला के बल पर फिल्म उद्योग खड़ा हो गया।’’ (पूरनचन्द्र जोशी – सांस्कृतिक विविधता को बचायें और आगे बढ़ायें – आज के सवाल : 15, संस्कृति और व्यावसायिकता, संपा. – रमेश उपाध्याय/संज्ञा उपाध्याय – पृ. 33-34)

किसी संस्कृति का विस्तार कतई बुरी चीज़ नहीं है परंतु यह विस्तार जब किसी विशेष राजनीति के तहत किया जाता है, तब वह अपने मूल उद्देश्य से भटक जाता है। ‘‘संस्कृति प्रत्येक समाज के सर्वोत्तम ज्ञान और चिंतन का वह भंडार है, जो मनुष्य को परिष्कृत करने और ऊँचा उठानेवाला तत्व है तथा जिसके आधार पर हम स्वयं को, अपने लोगों को, अपने समाज को तथा अपनी परम्परा को सर्वोत्तम रूपों में जानते और समझते हैं।’’ (एडवर्ड सईद – साम्राज्यवाद संस्कृति के सहारे चलता है – आज के सवाल : 16, सांस्कृतिक साम्राज्यवाद, संपा. – रमेश उपाध्याय/संज्ञा उपाध्याय – पृ. 33) परंतु संस्कृति का यही लक्षण विभिन्न मानव-समूहों में श्रेष्ठता-हीनता का अविवेकी बोध पैदा करता है। जिस समूह के पास सत्ता और सम्पत्ति का वर्चस्व होता है, वह दूसरों की संस्कृति को नीची नज़रों से देखते हुए उसपर अपनी संस्कृति थोपकर अपने को श्रेष्ठ साबित करता है, यही सांस्कृतिक राजनीति कहलाती है। सांस्कृतिक राजनीति की स्पष्ट और प्रत्यक्ष शुरुआत भारत में अंग्रेज़ों के औपनिवेशिक शासन से दिखाई देती है। अंग्रेज़ों ने हममें सांस्कृतिक हीनता-बोध पैदा किया और उसके बाद वे अपने मनमाने तरीके से शासन करते रहे। गांधीजी ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा था कि ‘‘उपनिवेशवाद हमारे यहाँ आकर सफल इसलिए हुआ कि उसने पहले यहाँ एक मानसिक उपनिवेश बनाया, जिसने आर्थिक-राजनीतिक उपनिवेश के लिए ज़मीन तैयार की। अंग्रेज़ों ने हमारे अंदर यह बात भरी कि हम बर्बर और असभ्य हैं, अंग्रेज़ सभ्य हैं; हम पिछड़े हुए हैं, अंग्रेज़ हमसे आगे बढ़े हुए हैं; वे हमें सभ्य बनाने आए हैं और हम काले लोग उन गोरे लोगों के कंधों पर एक बोझ (व्हाइट मेन्स बर्डन) की तरह हैं, जिसको उन्होंने हमें सभ्यता की रोशनी में लाने के लिए उठा रखा है।’’ (पूरनचन्द्र जोशी – सांस्कृतिक विविधता को बचायें और आगे बढ़ायें – आज के सवालः 15, संस्कृति और व्यावसायिकता, संपा. – रमेश उपाध्याय/संज्ञा उपाध्याय – पृ. 26) इसी सांस्कृतिक राजनीति के विरोध में हमारा स्वाधीनता आंदोलन खड़ा हुआ, जिसमें सांस्कृतिक आंदोलन और राजनीतिक आंदोलन परस्पर पूरक बन गए।

सवा सेर गेहूँ

सांस्कृतिक राजनीति के इसी परिप्रेक्ष्य में अब हम भारत में आयोजित होने वाले नाट्य समारोहों का विश्लेषण करते हैं। पहले शौकिया तौर पर नाटक खेले जाते थे या फिर राज्याश्रय में नाटक खेले जाने की परम्परा रही है। परंतु आज़ादी के बाद राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, संगीत नाटक अकादमी जैसे सरकारी संस्थानों की स्थापना के बाद नाट्य समारोह जैसे आयोजन होने लगे। एक स्थान पर अनेक नाट्यदलों को आमंत्रित कर उनके आवास-भोजन-यात्रा का खर्च वहन करते हुए उनके नाट्य-प्रदर्शन की व्यवस्था करने के लिए मजबूत आर्थिक तंत्र की आवश्यकता होती है। इन संस्थानों के पास शासकीय फंड उपलब्ध था। एक साथ अनेक प्रकार के, अनेक स्थानों के, अनेक भाषाओं के नाटकों को देखना वाकई अद्भुत अनुभव है। न केवल नाटक देखना बल्कि नाट्य दलों के कलाकारों के साथ जो आत्मीय आदान-प्रदान होता है, उससे रंगमंचीय पारिवारिक भावना घनी होती है। इस अहसास के विकास के साथ अनेक छोटे-बड़े नगरों-कस्बों-महानगरों के नाट्य दल या संस्थाएँ नाट्य समारोह आयोजित करने के लिए उत्सुक होने लगीं। नाट्य समारोह के आयोजन के पीछे अनेक प्रकार के उद्देश्य होते हैं – विभिन्न नाट्य दलों के बीच का आदान-प्रदान तो एक कारण है ही, परंतु अन्य भी कारण हैं – व्यक्ति की या संस्था की अपने स्थानीय स्तर पर एक छवि बन जाती है। प्रत्येक वर्ष नाट्य समारोह आयोजित करने पर जिन-जिन स्थानों से नाट्य दल आते हैं, उन स्थानों पर आयोजक संस्था या व्यक्ति की पहचान बनती है और फिर धीरे-धीरे देश के अन्य भागों तक यह पहचान पहुँचती जाती है।


नाट्य समारोह के अनेक स्तर दिखाई देते हैं – पहला स्तर है – शौकिया रंगसंस्थाओं द्वारा अपने सीमित संसाधनों से आयोजित होने वाला नाट्य समारोह, दूसरा स्तर दिखाई देता है – बड़ी व्यावसायिक संस्थाओं के भव्य पैमाने पर आयोजित नाट्य समारोह और तीसरा स्तर है – सरकारी सांस्कृतिक संस्थानों द्वारा आयोजित किये जाने वाले भव्यतम नाट्य समारोह। इसमें एक नया प्रकार जुड़ गया है – बड़े कार्पोरेट घरानों द्वारा नाट्य समारोहों का आयोजन। इन सभी प्रकार के नाट्य समारोहों की पृष्ठभूमि में किसी न किसी प्रकार की सांस्कृतिक राजनीति काम करती है। यहाँ सांस्कृतिक राजनीति का अर्थ है – सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने के लिए किया जाने वाला आयोजन। यह वर्चस्व संस्कृति के क्षेत्र में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के तहत, संस्था के प्रचार-प्रसार के तहत, सरकारी अनुदान प्राप्त करने के लिए, अन्य महत्वपूर्ण नाट्य संस्थाओं एवं व्यक्तियों को उपकृत करने या फिर अपने स्थानीय दर्शकों को देश-विदेश के नाटकों से परिचित कराने के उद्देश्य से स्थापित किया जाता है। यदि इसतरह के सांस्कृतिक वर्चस्व का उद्देश्य अंततः व्यक्ति और समाज को बेहतर दिशा में ले जाना है, तो चिंता की बात नहीं है परंतु जब यह वर्चस्व नाटक जैसी जनवादी, सामूहिक विधा का एक उपभोक्ता वस्तु की तरह इस्तेमाल करने की दिशा में बढ़ता है, उस समय इसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

भारत में रंगमंच हमेशा ही ‘बहुजनहिताय’ रहा है परंतु आज धर्मनिरपेक्षता और विविधता में एकता की विरासत को नष्ट करने की अनेक प्रक्रियाएँ चल रही हैं, जिसके कारण एक सांस्कृतिक शून्य-सा पैदा हो रहा है और इस शून्य को अंधबाज़ारवाद, उपभोक्तावाद, अपसंस्कृति वगैरह से भरा जा रहा है। इसी का एक आयाम है – ‘संस्कृति का कमोडिफिकेशन’ और ‘कमर्शियलाइज़ेशन’। सांस्कृतिक उपादानों को पण्य वस्तु में बदलकर उसका व्यवसायीकरण किया जाना वर्तमान सांस्कृतिक राजनीति का ब्रह्मास्त्र बन गया है। आज बाज़ार और व्यवसाय हमारी ज़िंदगी का अनिवार्य हिस्सा बन चुका है, लेकिन सवाल यह है कि वह हमारे पुनर्निर्माण और सांस्कृतिक विकास में सहायक होगा या हमें पूँजीवादी बर्बरता की ओर ले जाएगा? (पूरनचन्द्र जोशी – सांस्कृतिक विविधता को बचायें और आगे बढ़ायें – आज के सवालः15, संस्कृति और व्यावसायिकता, संपा. – रमेश उपाध्याय/संज्ञा उपाध्याय – पृ. 28) यहाँ पूंजीवादी बर्बरता से हमारा आशय उस उपनिवेशवादी मानसिकता से है, जो अपने सांस्कृतिक उत्पाद को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए अन्य लोगों को उसी का अनुकरण करने के लिए बाध्य करते हैं अन्यथा उन्हें नकार देते हैं। बड़े संस्थानों द्वारा आयोजित नाट्य समारोहों में यह सांस्कृतिक राजनीति बड़े स्पष्ट रूप में देखी जा सकती है। नाट्य समारोह के लिए नाटकों के चयन का आधार वे अभिजात्य कलात्मकता को बनाते हैं। उनके ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ नाटकों के मूल्यांकन के ढाँचे उनके वर्गीय सौंदर्यबोध को व्यक्त करते हैं। छोटे नाटकों या कस्बों के नाटकों के अनगढ़ शिल्प उन्हें कच्चे और अपने प्रस्तुति-स्तर के योग्य नहीं लगते। इसीतरह किसी अपरिचित और नए नाट्य दल और निर्देशक का नाटक वे पहले झटके में ही निरस्त कर देते हैं।

वर्तमान में जब संस्कृति भी बाजारवादी ताकतों के अधीन हो रही है, विभिन्न स्थानों पर आयोजित होने वाले नाट्य समारोह भी इनकी चपेट में आ रहे हैं। कुछ ही नाटक, कुछ ही निर्देशक और कुछ ही नाट्यसंस्थाएँ नाट्य समारोहों के अधिकांश क्षेत्रों पर छा जाती हैं। वे अपनी ‘मार्केटिंग’ में इतनी माहिर होती हैं कि अपने साधारण नाटकों को भी असाधारण का दर्ज़ा देकर कहीं भी मंचित करवाने में सफल रहती हैं। उनका नाट्यांदोलन से कोई संबंध नहीं होता। वे महज़ किसी न किसी नाट्य समारोह में मंचन कर ‘लाइमलाइट’ में रहने के उद्देश्य से कार्यरत होती हैं। इस सांस्कृतिक राजनीति ने रंगमंच के क्षेत्र में काफी घालमेल कर दिया है, इससे बचने की आवश्यकता है। इसतरह की नाट्यसंस्थाएँ या व्यक्ति नाटक एवं रंगमंच को धन एवं प्रसिद्धि पाने का विशुद्ध व्यावसायिक जरिया मानते हैं और देश भर के सक्रिय एवं नाट्य समारोहों का आयोजन करने वाले व्यक्तियों, नाट्य संस्थाओं और सरकारी संस्थानों के अधिकारियों से निरंतर व्यक्तिगत सम्पर्क बनाकर अपने लिए ‘शो लगवा लेते’ हैं। वे अपने नाटकों का मीडिया में भी इतना अधिक प्रचार कर देते हैं कि लगने लगता है कि वे रंगमंच की बहुत महत्वपूर्ण हस्ती हैं। ऐसे लोग अपनी नाट्य प्रस्तुतियों की बेहतरीन समीक्षा प्रायोजित करते हैं, सोशल नेटवर्किंग में ढेरों फोटोग्राफ्स एवं रिपोर्टिंग्स पोस्ट करते हैं। ऐसे लोग अपने नाटकों के नाम और विषय भी ऐसे रखते हैं कि उनसे सामाजिक प्रतिबद्धता का आभास पैदा होता है। परंतु इसतरह के तथाकथित नाट्यकर्मी एक सोची-समझी हुई सांस्कृतिक राजनीति के तहत रंगकर्म करते हैं। यह सांस्कृतिक राजनीति है – मध्यवर्ग को अपने समाज की वास्तविकता से, अपनी सभ्यता और संस्कृति के मानव-मूल्यों से, अपने सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकारों से काटकर अलग कर देने की। ऐसे लोग बड़े और व्यापक यथार्थ को छोड़कर या उसकी कीमत पर सेक्स या नंगापन दिखा रहे हैं, तो जाहिर है कि यह सिर्फ साहित्य, कला और मनोरंजन का मामला नहीं है। इसके पीछे एक राजनीति है और वह साम्राज्यवाद को आगे बढ़ाने की राजनीति है, उसको समर्थन देने वाली राजनीति है। (गौहर रजा – साम्राज्यवाद की एक प्रमुख परियोजना है संस्कृति – आज के सवालः16, सांस्कृतिक साम्राज्यवाद, संपा. – रमेश उपाध्याय/संज्ञा उपाध्याय – पृ. 15)

यह राजनीति स्थानीय से लेकर वैश्विक स्तर पर सक्रिय है। अब वैश्वीकरण से उपजी विसंगतियों के गहराने से नाटकों में भी इनका चित्रण होने लगा है। पिछले कुछ वर्षों से, जब से अन्य विधाओं की तरह रंगमंच में भी प्रतिरोध का स्वर उठा है, सत्ता की तरफ से यह प्रयास होने लगा है कि कैसे प्रतिरोध के स्वर को भोथरा कर दिया जाए, उसका रूप विकृत कर दिया जाए, चरित्र ही बदल दिया जाए। ….जब से विदेशी पूँजी हमारे मुल्क में बेरोक-टोक आने लगी है, उदारवाद के बहाने बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ हमारे घरों में घुसने लगी हैं, लोग आर्थिक रूप से कमज़ोर होने लगे हैं। कृषि-उद्योग जर्जर होने लगे हैं, मज़दूर बेरोज़गार होने लगे हैं, किसान ज़मीन के सवालों को लेकर सड़क पर आ गए हैं। जिस तरह जल-जंगल-ज़मीन को लूटने का षड्यंत्र हो रहा है, उसके प्रतिरोध में न केवल संगठन ही नहीं, अब कला और संस्कृति भी आने लगी है। नाटक के इस स्वर को कुंद करने के लिए सत्ता वर्ग पिछले कुछ वर्षों से अनवरत प्रयास में है। नुक्कड़ नाटक इसका ज्वलंत उदाहरण है। विदेशी पूँजी भी इनकी ताल में ताल मिला रही है। ऐसे अनेक विदेशी फाउंडेशन के नाम अब तो स्पष्ट सामने आ गए हैं, जिनका एक ही मकसद है – बड़े-बड़े रंग महोत्सवों की आड़ में प्रतिरोध की संस्कृति को परम्परा की जड़ की तरफ ढकेलना। (मृत्युंजय प्रभाकर – रंग महोत्सवों की बाढ़ के फायदे-नुकसान – मंडली – दस्तक की ब्लॉग पत्रिका – punjprakash.blogspot.in/2013/1/17)

इन दिनों नाट्य समारोह जैसे आयोजनों के लिए आर्थिक अनुदान प्राप्त करने के अनेक स्रोत खुल गए हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सरकारी संस्थाओं और अकादमियों की वाजिब आनुपातिक और ज़रूरी अनुदान सहायता-राशियों का औचित्य है लेकिन अब यदि कॉर्पोरेट फंडिंग, एन.जी.ओ.फंडिंग, सरकारी-प्राइवेट संस्थानों की बेहिसाब अनुदान राशियों, प्रोजेक्ट फंडिंग, कॉन्ट्रैक्ट जैसी चीज़ें आने लग जाएँ, तो संशय और संदेह बहुत वाजिब है क्योंकि ये प्रथमदृष्ट्या रंगकर्म के चरित्र और उसके चेहरे को बदल देने वाले प्रसंग दिखाई पड़ते हैं। ये रंगकर्म में प्राथमिकताओं को बदल देने वाली स्थितियाँ बन सकती हैं। ये रंगकर्म को कलाकर्म के साँचे से बाहर धकियाकर व्यावसायिकता और कारोबारीपन की सरहदों में ठेल देने वाली परिघटनाएँ हो सकती हैं। तब तो और भी, जब ये रंगकर्म के क्षेत्र में कला के जुनून की जगह धन-स्रोतों को हथियाने-लपकने और धन-लोलुपता की संस्कृति को जन्म देती हों, रंगकला को अपनी शर्तों और ज़रूरतों पर लाने का उपक्रम करती हों, रंगकर्म के सामाजिक बोध को कुंद करती हों। नाटकों के चयन को अवांतर कसौटियों पर आधारित कर देती हों। (शंकर – रंगभूमि की कशमकश (संपादकीय) – परिकथा – मई-जून 2012 – पृ. 07)

कॉर्पोरेट घराने भी अब नाट्य समारोहों का आयोजन कर उनमें बहुत से आकर्षक नकद पुरस्कार प्रदान करते हैं। देश का जाना-माना ऑटोमोबाइल कॉर्पोरेट घराना महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा द्वारा पिछले कई वर्षों से महिन्द्रा एक्सिलेंस इन थियेटर अवॉर्ड्स (मेटा) घोषित किये गए हैं। यह ऐसा कॉर्पोरेट घराना है, जो भोपाल गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार माना जाता है। उल्लेखनीय है कि इस गैस त्रासदी में हजारों लोगों की जानें गईं और बचे हुए गैसपीड़ित लोगों को आज भी उचित न्याय नहीं मिल पाया है। ऐसे घराने द्वारा चयनित सबसे बेहतरीन दस नाट्य प्रस्तुतियों को लाखों रूपये के सर्वश्रेष्ठ नाटक, सर्वश्रेष्ठ नाटककार, अभिनेता, अभिनेत्री, लाइट डिज़ाइनर आदि पुरस्कार प्रदान किये जाते हैं। इस बहुभाषीय नाट्य समारोह बनाम नाट्य प्रतियोगिता में रिकॉर्डेड डीवीडीज़ को देखकर चयन समिति दस नाटकों का चयन करती है। चयनित नाट्य-प्रस्तुतियाँ प्रायः मार्च महीने की निर्धारित तिथियों को दिल्ली में अपना नाट्य-प्रदर्शन करती है। इसी समारोह में अवॉर्ड्स घोषित किये जाते हैं। इस तरह के नाट्य समारोहों के माध्यम से धन एवं प्रतिष्ठा दोनों अर्जित होती है क्योंकि इस नाट्य समारोह एवं पुरस्कार वितरण समारोह का मीडिया में खासा प्रचार-प्रसार किया जाता है। पुरस्कार या अवॉर्ड्स देने के लिए सिनेमा और रंगमंच से जुड़ी किसी ‘सेलिब्रिटी’ को आमंत्रित किया जाता है। महिन्द्रा का नाट्य समारोह एक तरह का ‘संस्कृति उद्योग’ है। टी.डब्लू. एडर्नो ने संस्कृति उद्योग की अवधारणा स्पष्ट करते हुए लिखा है – ‘‘संस्कृति उद्योग में तकनीक की अवधारणा कला के काम की तकनीक के साथ महज़ नाम के लिए एकरूप है। कला के काम में तकनीक वस्तु के आंतरिक संघटन के साथ जुड़ी रहती है। वह उसकी आंतरिक तर्क पद्धति के साथ जुड़ जाती है। इसके विपरीत संस्कृति उद्योग की तकनीक शुरु से ही यांत्रिक उत्पादन और वितरण की तकनीक होती है। इसलिए वह हमेशा ही उसकी अंतर्वस्तु से बाहर रह जाती है। (टी.डब्लू एडर्नो – संस्कृति उद्योग – पृ. 111) इसलिए यह सवाल उठाया जाना चाहिए कि क्या रिकॉर्डेड नाटकों की डीवीडी देखकर पुरस्कार दिया जा सकता है? जबकि रंगमंच ऐसा जीवंत माध्यम है कि किसी एक नाटक के विभिन्न मंचन अलग-अलग प्रकार के हो सकते हैं। क्या इसे भी फिल्मों की तरह रिकॉर्डेड अंतिम प्रोडक्ट की तरह मूल्यांकित किया जा सकता है? इन सवालों के बरअक्स महिन्द्रा द्वारा आयोजित नाट्य समारोहों की पृष्ठभूमि में छिपी सांस्कृतिक राजनीति पर भी चर्चा की जानी चाहिए।

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संस्कृति उद्योग


इसीतरह अनेक प्रश्नचिन्ह राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले भारत रंग महोत्सव पर लगते रहे हैं। प्रसिद्ध नाटककार और नाट्य समीक्षक हृषिकेश सुलभ ने सन् 2007 में आयोजित नवें भारंगम में चयनित नाटकों पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए लिखा था – ‘‘भारत रंग महोत्सव के नाम पर इस वर्ष एक बेहद फूहड़ खेल खेला गया। इस रंग महोत्सव के वर्तमान स्वरूप को औपनिवेशिक मानसिकता के साथ रचा गया। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की उपेक्षा का आलम यह था कि नवें भारत रंग महोत्सव की कुल बावन प्रस्तुतियों में तेरह प्रस्तुतियाँ पोलैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, स्विट्ज़रलैण्ड, जर्मनी, ईरान, उज़बेकिस्तान, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, नेपाल, पाकिस्तान, बांग्ला देश और श्रीलंका से थीं। विश्व रंगमंच से भारतीय रंगमंच के संवाद के लिए इनका होना हमारी ज़रूरत का हिस्सा है, पर इनकी आड़ में भारतीय रंगमंच या देशज रंगमंच की उपेक्षा एक ख़तरनाक़ खेल है।’’ (हृषिकेश सुलभ – रंगमंच का जनतंत्र – पृ. 234)

उपेक्षा का आलम यह है कि चौदहवें भारत रंग महोत्सव से विद्यालय की आयोजन समिति ने पूरा आयोजन ‘इवेंट मैनेजर्स’ के सुपूर्द कर दिया है। ये इवेंट मैनेजर्स सिर्फ ‘मैनेज’ करने में ही अपनी सारी कुशलता और प्रतिभा लगा देते हैं। दिल्ली के रंग समीक्षक राजेश चन्द्रा ने फेसबुक पर टिप्पणी करते हुए लिखा था – ‘‘महोत्सव के आयोजन में विगत वर्षों से जिस किस्म की अव्यवस्था का बोलबाला सामने आ रहा है, वह स्तब्ध कर देने वाला है। प्रत्येक प्रस्तुति के लिए सत्तर फीसदी पास संस्थान ने उस हितसाधक मंडली के लोगों, चाटुकारों के बीच बाँट दिया है, जिनका वास्तव में नाटकों से कोई आत्मिक सरोकार नहीं है। मेरे जैसे नाचीज़ रंग समीक्षक को कई बार चक्कर लगाने पर भी प्रस्तुति देख पाने का अवसर इसलिए नहीं मिल पा रहा क्योंकि मैं दो सौ रूपये का टिकट लेने में समर्थ नहीं। किससे बात की जाए, यह भी मालूम नहीं क्योंकि सारे काम एजेंसियों के मार्फत कराये जा रहे हैं। इन एजेंसियों में एमबीएबरदार रंगकर्मियों को दो कौड़ी का भी नहीं समझते। (राजेश चन्द्रा – फेसबुक पर की गई टिप्पणी) पिछले वर्ष सन् 2018 में आयोजित ‘थियेटर ओलम्पियाड’ ने तो अत्यधिक विवादों को जन्म देकर एक पृथक् सांस्कृतिक राजनीति का अध्याय खोल दिया है।

दिल्ली में आयोजित होने वाले इन बहुविवादित नाट्य समारोहों के अलावा कई बार कुछ नवीनता लाने या किसी विशिष्टता को रेखांकित करने के लिए विशेष विषयों या श्रेणियों पर केन्द्रित नाट्य समारोह देश के अन्य नगरों-महानगरों में आयोजित किये जाते हैं। भोपाल में ही सन् 2012 में स्वाधीनता संग्राम से जुड़े व्यक्ति और व्यक्तित्वों पर केन्द्रित ‘आदिविद्रोही नाट्य समारोह’ तथा उर्दू नाटकों पर केन्द्रित ‘उर्दू नाट्य समारोह’ मध्यप्रदेश शासन की सहायता से आयोजित किये गए। इसीतरह लखनऊ में सन् 2011 में ‘अलग दुनिया’ नामक संस्था ने दलित नाट्य समारोह आयोजित कर एक विवाद खड़ा कर दिया था। यह नाट्य समारोह सवर्ण रंगकर्मियों-साहित्यकारों द्वारा आयोजित किया गया था तथा इसमें मंचित किये गये तीन नाटकों के प्रदर्शन अच्छे होने के बावजूद इसके नामकरण को लेकर सांस्कृतिक राजनीति गर्म हो गई थी। एक ब्लॉग में इस समारोह पर टिप्पणी की गई थी कि ‘‘जब सदियों से शोषित वर्ग जागृत होता है और अपनी पहचान का दावा स्वयं प्रस्तुत करता है। वह सवर्णों को इसप्रकार खारिज कर देता है कि उनका दिया शूद्र/हरिजन/यहाँ तक कि सरकारी तकनीकी नाम अनुसूचित जाति का भी त्याग कर देता है। अपने लिए अपना नया नाम, अपनी पहचान का चयन भी अपनेआप करता है एवं स्वयं को गर्व व स्वाभिमान के साथ ‘दलित’ नाम से सम्बोधित करता है। वह आरक्षण को दया या दान की भावना से नहीं, अपने अधिकार के रूप में स्वीकार करता है। लम्बे संघर्ष के बाद आज दलित आंदोलन ने उपजाऊ ज़मीन तैयार कर ली है। कुछ भी छींट दीजिए, लाभ तो मिलेगा ही। धन न सही, नाम सही, पर मिलेगा ज़रूर।’’ आगे ब्लॉग-लेखक इस आयोजन के आयोजकों की नीयत पर प्रश्न खड़े करते हुए लिखता है – ‘‘दलितों ने सवर्णों को तो खारिज कर दिया मगर सवर्ण उन्हें छोड़ने को राजी नहीं। वे इस उर्वरा भूमि से दूर नहीं हटना चाहते। क्या हम यह मानें कि अब सवर्णों की निगाह दलितों के मुद्दों पर टिकी है? क्या अब वे उनके मुद्दे भी हथियाने जा रहे हैं?’’ (anushaasan.blogspot.in/2011/06/19)  दलित नाटकों पर आधारित नाट्य समारोहों का एक दूसरा पक्ष भी है। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर को मानने वाले रंगकर्मियों और साहित्यकारों द्वारा बोधी नाट्य परिषद का गठन सन् 2003 में किया गया है। इस परिषद द्वारा मई 2012 में चार दिवसीय ‘बोधी नाट्य समारोह’ का आयोजन किया गया। बोधी नाट्य परिषद की पृथक् सांस्कृतिक राजनीति है। इस परिषद के माध्यम से नाट्य-लेखन का प्रशिक्षण दिया जाता है। इन नाटकों में जातिगत भेदभाव की दूषित दृष्टि को चुनौती देने संबंधी विषयों को उठाया जाता है।

इसतरह उपर्युक्त चुनिंदा उदाहरणों के आधार पर कहा जा सकता है कि नाट्य समारोह का आयोजन भी अब रंगकर्म के प्रति जुनून के कारण नहीं, बल्कि किसी न किसी सांस्कृतिक राजनीति के तहत किया जाता है। यह बात साफ हो चुकी है कि अब लाभ और लोभ की राजनीति नाट्य समारोहों के संस्कृति कर्म पर हावी हो गई है और इसे हवा देने का काम ऐसी वर्चस्ववादी शक्तियाँ कर रही हैं, जो समूचे विश्व से प्रतिरोध को दिशाहीन करना चाहती है। इन स्थितियों में रंगमंच के ‘बहुजनहिताय’ के उद्देश्य को बरकरार रखना समर्पित रंगकर्मियों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी बन गई है।

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