(कभी दादा पर लिखा लेख फेसबुक पर धारावाहिक के रूप में डाल रहा हूँ। आज के ही दिन 8 सितम्बर 1988 को पिताजी ने अंतिम साँसे ली थीं। उनकी स्मृति में एक लेख लिखा था करीब 25 बरस पहले, आज उसे धारावाहिक किश्तों में दे रहा हूँ। – अजय आठले)
(अजय ने फेसबुक पर दो ही किश्तें डाली थीं कि अचानक वह खुद ही कोरोना का ग्रास बन गया. अनादि ने 9 अक्टूबर 2020 को इस संस्मरण की तीसरी और अंतिम कड़ी इस टिप्पणी के साथ फेसबुक पर पोस्ट की – ”इस लेख के पहले दो भाग पापा ने अपने फेसबुक वॉल पर लिखे थे। ये आख़री भाग बचा था, जो वे अस्वस्थता के कारण पोस्ट नहीं कर पाएँ। उनकी स्मृति में उनके पिता की स्मृति में लिखे इस लेख की आखरी कड़ी। … यहाँ तीनों कड़ियाँ एक साथ हैं। – उषा वैरागकर आठले )
घर के आँगन में लगा आम का पेड़ जब पहली बार बौराया था तब दादा बेतरह याद आए। जाने किस घड़ी में किसने आम खाया और पिछवाड़े आँगन में गुठली फेंक दी। अंकुर फूटा, धीरे-धीरे पौधे ने पेड़ का आकार ग्रहण कर लिया। आई (माँ) हमेशा झल्लाती, यह पेड़ बेकार ही में जगह घेर रहा है, इसे कटवा दो। फल भी तो नहीं लगते हैं। और दादा हमेशा की तरह कहते थे, ‘रहने दो, एक दिन फलेगा।’ दादा की मृत्यु के बाद आए पहले बसंत में ही वह पेड़ पहली बार बौराया था और उसे देखकर दादा बहुत याद आए। आँखों के सामने घूम गया अस्पताल का वह वॉर्ड, जहाँ अच्छे-खासे, भले-चँगे दादा अचानक ब्रेन हैमरेज हो जाने से भरती कर दिये गये थे। सब कुछ छोटे से पल में घटित हो गया था। 15 मिनट के भीतर दादा अस्पताल में थे। ड्रिप लगाई जा चुकी थी, नींद का इंजेक्शन दिया जा रहा था, जो असर नहीं कर रहा था और तकलीफ में दादा झल्ला उठे थे। लेकिन झल्लाहट में भी वाणी पर गजब का संयम था, वही शिष्ट भाषा। सुबह बिल्कुल ठीक लग रहे थे। लगता था, कल की रात मानो एक बुरा सपना ही देखा हो! सुबह चाय पी, मिलने वालों की भीड़ देखकर गुस्सा भी हुए; यह कहते हुए कि, मुझे क्या हो गया है जो तुम लोगों ने मेरा तमाशा बना दिया है! जैसे-तैसे समझाया। हम सभी तनावमुक्त महसूस कर रहे थे। लेकिन एक दिन बाद ही, जिसे बुरा सपना समझा था, वही हकीकत निकली। दादा कोमा में चले गए।
डॉ. मिश्रा ने रूँधे गले से कहा था, ‘दादा दगा दे गए!’ लगा मानो पैरों के नीचे से किसी ने ज़मीन ही खींच ली हो… और मैं गिरता ही जा रहा हूँ अनंत गहराई की ओर! किसी तरह संभला, कमरे में आया तो देखा, लाइफ सेविंग ड्रग्स लगाई जा चुकी हैं। सभी परिचित आसपास खड़े हैं। बीच-बीच में थोड़ी देर के लिए दादा होश में आते तब अनचीन्हीं नज़रों से कुछ ताकते, कुछ खोज रहे थे। सब मुझे कह रहे थे कि उनकी अंतिम इच्छा पूछ लो। हिम्मत नहीं होती थी। जानता था, मुट्ठी से बालू की तरह फिसलकर छूट रहे हैं, पर मन इस स्थिति को स्वीकार नहीं कर पा रहा था। उनका अनचीन्हीं नज़रों से कुछ खोजना … मैं जानता था कि दादा आई को खोज रहे हैं मगर संस्कारगत संकोच अंतिम क्षणों में भी बना हुआ था। आखिर मैंने वास्तविकता को स्वीकारते हुए धीरे से पूछा था, ‘आई से कुछ कहना है?’ प्रत्युत्तर में आँखों में हल्की-सी चमक आई; धीरे से कहा, ‘उनका ख्याल रखना, मुझे अब आराम करने दो।’ उसके बाद उन्होंने आँखें मूँद लीं। यही आखिरी संवाद था – ‘उनका ख्याल रखना।’
दादा आई को हमेशा बहुवचन में ही संबोधित करते थे। बड़े होने पर हम लोगों के बीच दूरियाँ कम हो गई थीं और हम दादा से कभी-कभी मज़ाक कर लिया करते थे। एक दिन घर के सारे लोग बैठे थे, आई कहीं बाहर गई थीं। दादा कमरे में आए, नज़र घुमाई और धीरे से पूछा, ‘सब लोग कहाँ हैं?’ मैं भी मज़ाक के मूड में था, उत्तर दिया, ‘यहीं तो बैठे हैं सब लोग!’ उन्होंने हल्की संकोचभरी मुस्कान से पूछा, ‘बाकी लोग कहाँ हैं?’ अपनी हँसी दबाते हुए फिर बताना ही पड़ा कि, ‘आई काम से बाहर गई हैं।’ सचमुच, आई दादा के लिए ‘सब लोग’ ही थीं। तमाम ज़िंदगी सारी ज़िम्मेदारियों को ओढ़कर दादा को दुनियावी बखेड़ों से दूर रखनेवाली! बचपन हमारा आई के सामिप्य में ही गुज़रा। दादा को हमने दूर से ही देखा और हमेशा व्यस्त पाया – ऑफिस में अपने मुवक्किलों के साथ या फिर फुर्सत के क्षणों में किसी मोटी-सी किताब के पन्नों के बीच खोए हुए!
अध्ययन का चस्का था दादा को, अच्छा साहित्य खरीदकर पढ़ना उनकी आदत में शुमार था। फटे कपड़े सिलकर पहनो, मगर किताबें नई खरीदकर पढ़ो – ये मानों मंत्र था उनकी ज़िंदगी का। किसी भी नई किताब के बारे में पता चलते ही उसे खरीदने को आतुर रहते थे। घर की सारी अलमारियाँ किताबों से अटी पड़ी होतीं। पढ़ना और मित्रों को पढ़वाना उनका शौक था। इस चक्कर में कई अच्छी किताबें गुम हो गईं, मगर उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ा!
अच्छी किताबें पढ़ना, यही वो बिंदु था, जहाँ दादा से मेरे तार जुड़ते थे। आग भी उन्हीं की लगाई हुई थी। बचपन में गर्मी के दिन हमारे लिए कष्टप्रद होते थे। दादा के कोर्ट की भी छुट्टियाँ चल रही होती थीं और दादा दोपहर भर घर में ही रहते थे। घर पर दादा की उपस्थिति मात्र का आतंक हमें मनचाही बदमाशियों से रोकता था। दादा कभी-कभी अपने कमरे में बुला लिया करते, ‘लैण्ड्स एण्ड द पीपल’ और ‘बुक ऑफ नॉलेज’ के वॉल्यूम्स में से कुछ पढ़ने के लिए दे देते और मुझे लगता कि स्कूल की छुट्टियों का सारा मज़ा खत्म हो गया! पढ़ते वक्त अगर समझ में न आए तो समझाया भी करते थे, लेकिन बालसुलभ मन तो रेत के घरौंदे बनाने, कच्चे आम तोड़ने की योजना बनाने और पतंग उड़ाने के लिए ही आतुर रहता था। एक बार ‘लैण्ड्स एण्ड द पीपल’ को छोड़कर ‘बुक ऑफ नॉलेज’ पढ़ने की कोशिश की। उसमें अचानक एक वॉल्यूम में ‘डू इट युवरसेल्फ’ वाले टॉपिक में ‘बूमरैंग’ के विषय में बताया गया था – कैसे गत्ते के टुकड़े को काटकर बूमरैंग बनाया जा सकता है! प्रयोग करके देखा, सफल हुआ। फिर तो धीरे-धीरे उसके सभी वॉल्यूम्स पढ़ने की कोशिश की। कैलिडास्कोप, प्रोजेक्टर आदि घर पर ही बनाए और फिर तो पुस्तकों के प्रति जो मोह जागा तो फिर छूटा ही नहीं! बड़े होने पर उन्हीं के सुझाव पर ‘प्रिज़न एण्ड द चॉकलेट केक’, ‘गुड अर्थ’, ‘वॉर एण्ड पीस’, ‘आई एम नॉट एन आईलैण्ड’ वगैरह पढ़ी। मराठी साहित्य भी पढ़ा। किन्हीं खास मौकों पर भी उन्हें किसी वस्तु के बदले किताबें ही भेंट की जाए, तो वे ज़्यादा खुश होते थे। उनकी इस कमज़ोरी का मैंने फायदा भी उठाया। एक बार दो दिन के लिए रायपुर गया था। कुछ कारणों से नियत समय पर लौट न सका। जानता था, अब घर वापस जाने पर डाँट पड़ेगी, इसलिए आते वक्त ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ और अमृतलाल नागर की ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ खरीद ली थी। रात को देर से एक्सप्रेस से लौटा। सामान कमरे में रखा, लेकिन किताबें टेबिल पर इस तरह रख दीं कि, सुबह उठते ही दादा की निगाहें उन पर पड़े। प्रयोग सफल रहा। दादा जब सुबह नीचे उतरे, टेबल पर रखी किताबों पर नज़र पड़ी तो खुश हो गए। आई से कहा, ‘हजरत डाँट न पड़े इसलिए ले आए हैं।’
दादा की लाइब्रेरी में विचारधारा के स्तर पर कोई कट्टरता नज़र नहीं आती थी। लियो टालस्टाय के ‘वॉर एण्ड पीस’ से लेकर गोलवलकर के ‘बंच ऑफ थॉट्स’ और रजनीश की ‘आचार्य महावीर मेरी दृष्टि में’ तक सब तरह की किताबें थीं। विचारों की उदारता केवल किताबों तक ही सीमित नहीं थी, कॉमरेड मुश्ताक से लेकर बालासाहेब देशपाण्डे तक उनके दोस्तों की सूची में शामिल थे। मेरे मार्क्सवादी झुकाव को लेकर भी कभी वे परेशान नहीं हुए। हाँ, कभी-कभी विषय पर जब चर्चा होती तो उलाहना दिया करते थे कि, ‘तुम मार्क्सवादियों की सोच एकांगी होती है।’
मेरे नाटकों को देखने दादा कभी नहीं आए, आई और बुआ ही मेरे नाटकों की स्थायी दर्शक रहीं; लेकिन जब भी नाट्य-प्रदर्शन के बाद आई और बुआ घर लौटतीं, दादा घर के बरामदे में टहलते नज़र आते और सबसे पहले प्रदर्शन के विषय में ही पूछताछ करते। ये वो पीढ़ी थी, जो अपने बच्चों के प्रति अपने प्रेम का सार्वजनिक इज़हार करने में भी संकोच करती रही।
आज की पीढ़ी जिस तरह अपने बच्चों के प्रति केन्द्रित रहती है, नए महँगे खिलौनों, कपड़ों से लेकर नित नई मांगों को पूरा करना ही प्यार का पैमाना समझती है, दादा की पीढ़ी के प्रतिमान ही अलग थे। शायद संयुक्त परिवार के संस्कारों के कारण दूसरों का ध्यान अधिक रखना पड़ता था। हमारा परिवार भी संयुक्त परिवार ही था। बुआ, दादी, पिता की चाची, उनकी एक लड़की, हम पाँच भाई-बहन… कुल मिलाकर तेरह-चौदह सदस्यों का परिवार! कमाने वाले एक अकेले दादा! आई एक बहुत बड़े ज़मींदार परिवार से आई थी; नाना इंग्लैण्ड से बार एट ला करके आए थे। आई की एक मौसी रविशंकर शुक्ल की सरकार में मिनिस्टर रहीं। एक मौसी अमेरिका से एम.ए. की डिग्री लेकर आई थीं। उनके लिहाज से हमारा परिवार साधारण ही था। पिता की शादी के बाद ही दादाजी को लकवा मार गया और वे सात सालों तक बिस्तर पर ही रहे। छोटे भाई को मेडिकल में पढ़ाना, बड़ी बुआ की शादी और इतने लम्बे-चौड़े परिवार का पालन-पोषण… सारी ज़िम्मेदारी आई और दादा पर ही थी।
बचपन यूँ तो हम अचेतन ढंग से जी लेते हैं पर बड़े होकर हम समय पर दृष्टिपात बड़े सचेतन रूप में करते हैं। आज जब सोचता हूँ तो लगता है, आखिर ये दोनों भी तो युवा रहे होंगे, इनके भी कुछ सपने रहे होंगे! न जाने कितनी आकांक्षाओं और सपनों को भीतर ही भीतर दफन कर दिया था दोनों ने अपने परिवार की खातिर! दादा को मैंने अपने लिए कुछ खरीदते नहीं देखा। वैसे तो उनका बाज़ार से रिश्ता ही न के बराबर था। फिर भी कभी-कभी बचपन में जनता वस्त्र भंडार से हमारे लिए कपड़ों और बाटा की दुकान पर मेरे लिए जूते खरीदने जाते थे। उनके साथ जूते खरीदने जाने पर गेंद भी मिलती थी। उन दिनों मैं सोचता था कि बाटा की दुकान में जूते खरीदने पर गेंद मुफ्त में मिलती है। वह तो बाद में बड़े होने पर समझ आया कि गेंद दादा अलग से खरीद देते थे।
आई भी हमेशा दूसरों के लिए ही खटती रही। कुल तीन भाई-बहनों में सबसे छोटी आई ने पाँच गाँवों की ज़मींदारी में अपना जायज़ हिस्सा दादा के कहने पर एक पल गँवाए बिना ही छोड़ दिया था और आम मुख्त्यारी मामा के नाम पर लिखकर दे दी। आज कभी-कभी अफसोस करती भी है तो इसलिए नहीं कि उससे कुछ सुविधाएँ हासिल करती, वरन इसलिए कि कुछ और लोगों को बाँट सकतीं। संयुक्त परिवार की ज़िम्मेदारियों तले अपने सपनों, आकांक्षाओं के दफन हो जाने पर अपनी संतुष्टि का यही रास्ता तलाशा था इन दोनों ने – दूसरों की खुशी में अपनी खुशी खोज लेने का!
दादा के जीवन में अपनी खुशी तलाशने का यह रास्ता केवल परिवार तक ही सीमित नहीं रहा वरन उसे एक व्यापक क्षेत्र मिल गया था वकालत के माध्यम से। वकालत को उन्होंने मानव-सेवा का एक ज़रिया ही समझा था। आर्थिक उपार्जन एक बाइप्रोडक्ट ही रहा उनके लिए! इतनी ज़िम्मेदारियों और आर्थिक दबावों के बीच अपने इस सिद्धांत पर जीवन भर अटल रहना एक कठिन साधना और तपस्या की मांग करता था और इस कठिन मार्ग की सफल हमराही बनी आई। दादा ने वकालत को एक साधन माना – उपेक्षित और प्रताड़ित लोगों को न्याय दिलाने का; उन्होंने पैसों की कभी परवा नहीं की।
इतवार की सुबह थी। दादा बरामदे में बैठे थे। हम लोग भी वहीं सामने खेल रहे थे। एक व्यक्ति आया। भीख मांग रहा था। दादा ने कहा – ‘यहाँ भीख नहीं मिलती।’ व्यक्ति ने भी पलटकर पूछा, ‘तो क्या मिलता है?’ हम लोग चौंके। इसतरह कोई भिखारी तो बात नहीं करता! दादा ने बड़ी शांति से जवाब दिया – ‘यहाँ कानूनी सलाह मिलती है।’ उस व्यक्ति की ज़मीन का कोई झगड़ा था, सुलझा नहीं था इसलिए यह हालत हो गई थी कि भीख मांगने की नौबत आ गई थी। उसने पूछा – ‘मेरा केस लडेंगे आप मुफ्त में?’ दादा ने कहा, ‘ठीक है, काग़ज़ात ले आओ।’ वह व्यक्ति कुछ देर में काग़ज़ात लेकर आ गया। दादा ने उसका केस लड़ा और अंत में उसे न्याय भी मिला।
इस तरह के न जाने कितने किस्से लोगों से सुनता आया हूँ। एक बार खरसिया में अपने काम से गया था, जिनके घर गया था, वहाँ एक बूढ़े व्यक्ति मिले। उन्हें जब पता चला कि मैं आठले वकील का लड़का हूँ, तो प्यार से बैठा लिया। पिता को बहुत आदर से याद किया। उन्होंने ही बतलाया कि, उनका एक कंपनी से पैसे के लेन-देन को लेकर मुकदमा चल रहा था। डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में मुकदमा हार गए। वकील साहब ने कहा कि इसे हाईकोर्ट में दाखिल करते हैं। उस व्यक्ति ने आर्थिक रूप से लाचार होने के कारण अपनी असमर्थता जाहिर की थी तो दादा ने वह केस अपनी तरफ से बिना पैसे लिये ही लड़ा और हाईकोर्ट में उन्हें न्याय मिला। अपने व्यावसायिक दौरों में इस तरह के कई अनुभव मुझे मिले। एक बार मेरा भाँजा आया हुआ था। उसी समय अपने काम से मुझे कांसाबेल जाना पड़ा। अकेले कार में जा रहा था, सो उसे भी साथ ले लिया। जिसकी कार थी, उसकी ही गाड़ी के निरीक्षण हेतु जाना था। वहाँ पहुँचकर मैंने उस गाड़ी का निरीक्षण किया, कुछ फोटो लिये और काम खत्म कर मैं निकलने ही वाला था कि, वहाँ लगी भीड़ में से एक व्यक्ति सामने आया, नमस्कार किया, पूछा – ‘पहचानते हैं मुझे?’ हल्का-हल्का कुछ याद आया। वह कहने लगा – वकील साहब के पास आता था। मेरा ज़मीन का केस था। वकील साहब की बदौलत ज़मीन मुझे मिल पाई। फिर ज़िद करने लगा गाँव चलने के लिए, जो कि 4-5 कि.मी. दूर ही था। उसका मन रखने के लिए हम भी चले गए। उसने घर के सभी सदस्यों को बुलाया। सभी बहुत आत्मीयता से मिले। ताज़ा गन्ने का रस पिलाया, खेत दिखलाए और जाते समय एक थैले में उखरा बाँधकर दिया।
मोहवश कुछ किस्से सुना गया। नाम जानबूझकर नहीं बताए! आखिर दादा ने भी यह सब निस्वार्थ भाव से ही किया था! ऐसे में नाम उजागर करना उनके विचारों को ठेस पहुँचना होगा। महानगरीय परिवेश में पले भाँजे के लिए यह अद्भुत अनुभव था। उसे आश्चर्य हो रहा था कि रायगढ़ से 150 कि.मी. तक के सफर में हर पड़ाव पर मामा को इतने आत्मीय जन कैसे मिल रहे हैं! कहने लगा – ‘मामा, इतनी दूर भी इतने लोग कैसे पहचानते हैं?’ उसे बतलाया था तब, यही वो विरासत है, जो दादा हमारे लिए छोड़ गए हैं! रूपये-पैसे छोड़ जाते तो शायद उसे दुगुना-तिगुना करना बहुत कठिन बात नहीं थी मगर दादा जो विरासत छोड़ गए हैं, उसे दुगुना-तिगुना तो क्या, उसे वैसा ही अगली पीढ़ी के लिए छोड़ जाना एक कठिन तपस्या है।
दादा ने जिन सिद्धांतों को माना, उसे जीकर दिखाया और अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक उस पर अटल रहे। मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि जिन सिद्धांतों को मैंने माना है, उन्हें भी जीवन में पूरी तरह उतार पाने में कठिनाई होती है और कभी-कभी विचलन भी हो जाता है।
हमारा जब कभी मूल्यांकन होता है, पिता की महान उपलब्धियों से! तुलनात्मकता के लिए हम अभिशप्त हैं; पर मुझे इसका कतई दुख नहीं है। मुझे खुशी और गर्व है कि, मैं ऐसे पिता की संतान हुआ।
दादा अब नहीं रहे। उनकी केवल यादें ही अब शेष हैं और भटकन से वे ही हमें बचाती हैं।
हर वक्त यहीं कहीं आसपास
तुम्हारी उपस्थिति का अहसास तो होता है
लेकिन जब देखता हूँ
माँ के सूने माथे को
तुम्हारी भौतिक अनुपस्थिति तीखी हो उठती है
जब भी मैं देखता हूँ
किसी बौराये आम के पेड़ को
तुम बहुत याद आते हो!
जब भी सुनता हूँ
किसी गरीब को कर दिया गया है बेदखल
या कहीं पर होता है मानवाधिकार का हनन
या ढहाए जाते हैं कहीं मंदिर, मस्जिद या पूजाघर
तुम बहुत याद आते हो!
मानसून की पहली बरसात में जब
कड़कती हैं बिजलियाँ
और धराशायी हो जाता है कोई हरा-भरा पेड़
दादा, तुम बहुत याद आते हो,
बहुत याद आते हो।