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कला-क्षेत्र के संगठनों के सामने आने वाली चुनौतियाँ

कला-क्षेत्र के संगठनों के सामने आने वाली चुनौतियाँ

(अजय का यह लेख लगभग पंद्रह साल पहले लिखा गया होगा। इसमें उठाए हुए मुद्दे आज भी प्रासंगिक हैं। – उषा वैरागकर आठले )

किसी भी गतिविधि के परिणाममूलक होने के लिए संगठन की आवश्यकता होती है। यह दीगर बात है कि अलग-अलग क्षेत्र में कार्यरत संगठनों की कार्यप्रणाली अलग-अलग प्रकृति की होती है। कला के क्षेत्र में कार्यरत संगठनों को ट्रेड यूनियन की कार्यप्रणाली अपनाकर नहीं चलाया जा सकता।

कला के क्षेत्र में कार्यरत संगठन के समक्ष चुनौतियों की प्रकृति निश्चित ही दूसरे संगठनों से भिन्न होगी इसलिए उससे निपटने की प्रकृति भी भिन्न ही होगी। अर्थनीति, राजनीति, कला-संस्कृति आदि का परस्पर संबंध होने के बावजूद अर्थनीति और राजनीति का एकदूसरे पर स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है किंतु कला-संस्कृति के क्षेत्र में इसका प्रभाव सूक्ष्म रूप में दिखलाई देता है। इसीलिए यहाँ राजनीति सूक्ष्म स्तर पर होती है।

चित्रकला में आजकल बेहद धूसर रंगों का प्रयोग किया जाता है। ऐसी रचनाओं को कलादीर्घाएँ भी ज़्यादा स्थान देती हैं, प्रोत्साहन देती हैं। धूसर रंग मस्तिष्क को शिथिल बनाते हैं, चटख रंग मस्तिष्क को उत्तेजित करते हैं। विचारशून्यता फैलाने के लिए धूसर रंग ज़्यादा मुफीद हैं। नृत्यकला में भी सामूहिकता खत्म हो गई है, समूह की बजाय एकल नृत्य पर ज़्यादा ज़ोर है। यह एकल नृत्य भी टुकड़ों-टुकड़ों में भाव-मुद्राएँ और पद-संचालन का प्रदर्शन करते हुए होता है – एक प्रकार का डिमॉन्स्ट्रेशन शो। यह विखंडन किसी विचार को पनपने नहीं देता। संगीत के क्षेत्र में जिस तरह से शोर पैदा किया जा रहा है, वह किसी से छुपा हुआ नहीं है। ऐसे वक्त में केवल नाट्यकर्म ही है, जो संगीत, नृत्य, चित्रकला, साहित्य आदि सभी कलाओं के संयोजन के साथ पूरी सामूहिकता में सामने आता है, जो न केवल भावनात्मक रूप से उद्वेलित करता है वरन् विचार-प्रक्रिया को भी झकझोरता है। यही कारण है कि आज अन्य कलाओं की तुलना में नाटक हाशिये पर है। ऐसा नहीं है कि नाटक के क्षेत्र में ऐसी कोशिशें न हुई हों! सामूहिकता को तोड़ते हुए एकल प्रदर्शनों की बाढ़ आई है। तर्क यह है कि जीवन की व्यस्तताओं और अन्य परेशानियों के कारण एकल प्रदर्शन करना पड़ता है। दिल को बहलाने के लिए यह ख्याल अच्छा है, वरना इसके पीछे ‘पर्सनल आइडेन्टिटी क्राइसिस’ ज़्यादा हावी है। इसके अतिरिक्त आर्थिक प्रलोभन भी काम करता है।

इधर ‘स्टारडम थियेटर’ भी शुरु हो गया है। एक-दो नामी-गिरामी स्टार कलाकार मिलकर एक नाटक तैयार कर लेते हैं और लाखों रूपये खर्च कर इनके प्रदर्शन होते हैं। फारूख शेख और शबाना आज़मी द्वारा ऐसा ही नाटक ‘तुम्हारी अमृता’ खेला गया, जिसमें मंच के दोनों छोरों पर बैठकर दोनों पत्र पढ़ते हैं। इसके अलावा कोई गतिविधि नहीं है। दर्शकों के लिए भी वे क्या पढ़ रहे हैं, इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण उन्हें नज़दीक से देखना है। विचार गौण हैं, नज़दीक से देखना ज़्यादा महत्वपूर्ण! ज़्यादातर ‘स्टारडम थियेटर’ में यही हो रहा है। कुछ कलाकार तो नाटक के नाम पर अपना बायोडाटा ही प्रस्तुत कर रहे हैं। ऐसे नाटक न तो समाज का और न ही नाटक का भला कर रहे हैं। जाने-अनजाने ये लोग बाज़ार की उन शक्तियों की सहायता कर रहे हैं, जो विचारशून्यता फैलाकर बाज़ारवाद को स्थापित कर रही है।

आज कुछ शक्तियाँ सारे विश्व को एक सुपर मार्केट में तब्दील करना चाहती हैं। जहाँ व्यक्ति पहुँचे और बिना विचारे प्रोडक्ट के ‘सेलिएन्ट फीचर’ पढ़कर सामान खरीद लें। इसके लिए विचारशून्यता एक बहुत बड़ा औज़ार है। कला-संस्कृति के सारे माध्यमों में विचार को खारिज करना आवश्यक हो गया है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यम ज़्यादा सशक्त हैं इसलिए इन पर ज़्यादा और साफ असर दिखाई दे रहा है। पहले हर आधे घंटे में विज्ञापन दिखाई देते थे, अब हर पाँच मिनट में विज्ञापन दिखलाए जाते हैं। हमारी एकाग्रता की सीमा को तीन-चार मिनट की सीमा पर लाकर रख दिया गया है। किसी भी चीज़ को लगातार 33 घंटों तक दिखाया जाए तो यह आपकी ‘इंटिलेक्चुअल मेमोरी’ में बस जाता है। सारे विज्ञापन इसी को ध्यान में रखकर बारम्बार दिखलाए जाते हैं। धारावाहिकों में आम आदमी और उसकी समस्या गायब हो गई है। धारावाहिकों के लोग बिलकुल अलग दुनिया के लोग हैं, जिन्हें हमारे नैतिक मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं है। इनकी प्रस्तुति में भी बेहद आक्रामकता है, कोई भी फ्रेम पाँच-दस सेकेन्ड्स से ज़्यादा नहीं होती, किसी गंभीर विषय पर चर्चा करते दो पात्रों के दृश्य में भी बार-बार तेज़ी से एँगल बदल दिये जाते हैं। यह तेज़ी और आक्रामकता उभरते बाज़ारवाद के लिए बेहद ज़रूरी है।

परिस्थितियाँ हताश कर देने वाली हैं, इसके बावजूद हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक दौर था, जब इस तरह की सांस्कृतिक गतिविधियाँ हमारे यहाँ मंदिरों के मंडप में हुआ करती थीं। विदेशी आक्रमण ने सबसे ज़्यादा मंदिरों को ढहाया और इसके कारण सांस्कृतिक गतिविधियाँ उस काल में बाधित हुईं। प्रदर्शनकारी कला के दूसरे रूप यथा, नृत्य और संगीत व्यक्तिगत स्तर पर चलते रहे। रंगमंच की गतिविधियों के लिए यह कहा जाता है कि एक पूरा अंतराल भारतीय रंगमंच में शून्यता का रहा लेकिन वास्तव में ऐसा हुआ नहीं और रंगमंच अपनी पूरी सामूहिकता के साथ ग्रामीण अंचलों में लोकनाट्य के रूप में चलता रहा। आज भी इसे हाशिये पर डालने की कोशिश हो रही है मगर नाटक अपनी जिजीविषा के कारण जीवित रहेगा। आज भी कला-संस्कृति के क्षेत्र में कार्यरत संगठनों में सबसे ज़्यादा नाट्य संगठन ही हैं, जो इसे जीवित रखे हुए हैं। सरकारी अनुदान से परे शौकिया तौर पर कार्य करनेवाले वाले नाट्य संगठनों की इतनी विशाल संख्या अन्य किसी भी कला संगठन की नहीं है। ज़रूरत है, बदलते हुए परिवेश में बदलती रणनीतियों की। सभी समानधर्मा संगठनों का एक साझा मंच होना चाहिए, जिनमें आपस में विचार-विमर्श हो, एकदूसरे के नाटकों के प्रदर्शन हों। इस तरह एक मजबूत नेटवर्किंग हो।

टेक्नालॉजी के विकास से बहुत-सी बातें अब आसान हो गई हैं। जो फिल्म अस्सी करोड़ में बनती थी, वह अब अस्सी लाख में बनने लगी है। मल्टीप्लेक्सेस ने संभावनाओं के नए द्वार खोले हैं। महाराष्ट्र में तो नाटकों की वीसीडी बनने लगी है और बहुत बिकती भी हैं। लोगों तक पहुँचने का यह भी एक अच्छा जरिया हो सकता है। आप एक नाटक करें, उसे ‘शूट’ कर उसकी वीसीडी बना लें तथा एलसीडी प्रोजेक्टर से एकसाथ कई गाँवों में दिखलाएँ। बीच में एक कोशिश चल रही थी, कुछ संगठनों द्वारा एक ‘सैटेलाइट’ किराये पर लेकर चैनल शुरु करने की, जिसे ‘नो लॉस नो प्रॉफिट’ पर चलाया जाना था। कुछ कारणों से इसमें अभी वे लोग सफल नहीं हो पाए हैं, मगर भविष्य में ऐसा संभव हो सकता है। तकनालॉजी का विकास अंततः जनवादीकरण की ओर ही जाएगा इसलिए इससे दूर भागने की बजाय हमें इसका पूरा-पूरा इस्तेमाल करना चाहिए तभी हम परिस्थितियों को अपने पक्ष में करने में सफल होंगे।

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