उषा वैरागकर आठले
अभिनेता और दर्शक के अंतःसम्बन्ध पर अनेक विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किये हैं। कुछ विद्वानों ने कहा कि मंच पर अभिनेता को दर्शक से कोई सरोकार नहीं होना चाहिए। यह असभ्यता है। वहीं दूसरी ओर दर्शकों से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाए जाने और दर्शक को भी प्रदर्शन का एक हिस्सा बनाए जाने की वकालत की गई। अनेक प्रकार के मत-मतान्तर और रंगमंच-प्रकार हिंदी रंगमंच में भी देखे जा सकते हैं, जिनमें पर्याप्त असमानताएँ भी देखी जा सकती हैं। रंगमंच और दर्शकों के अंतःसम्बन्धों में सबसे महत्वपूर्ण अंतर दिखाई देता है व्यावसायिक या कमर्शियल और अव्यावसायिक या शौकिया रंगमंच करने वाली नाट्य संस्थाओं के बीच। इन नाट्य संस्थाओं से जुड़े रंगकर्मियों के सामाजिक सरोकारों में स्पष्ट अंतर देखा जा सकता है। कमर्शियल रंगकर्मी दर्शकों से प्रायः वहीं तक सरोकार रखते हैं कि कितने और कौनसे दर्शक उनका नाटक देखने आते हैं, टिकिट-बिक्री का अनुपात क्या है और नाटक कितना पसंद किया जा रहा है। अतः दर्शक उनके लिए एक ग्राहक की तरह होता है। परंतु शौकिया रंगकर्मियों को नाटक के पूर्वाभ्यास से लेकर नाटक के प्रचार-प्रसार और प्रदर्शन तक लगातार अपने शहर के लोगों का सहयोग लेना पड़ता है, जो उनके नाटकों के दर्शक भी होते हैं। अतः दर्शकों के साथ रंगकर्मियों के अंतर्सम्बन्ध सिर्फ नाट्य-प्रदर्शन तक सीमित नहीं होते, बल्कि उनके संबंधों में एकप्रकार की परस्परनिर्भरता होती है। भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) अव्यावसायिक रंगकर्म करने वाली ऐसी प्रमुख नाट्य संस्था है, जिसकी लगभग पाँच सौ इकाइयाँ देश के लगभग 25 प्रदेशों में सक्रिय हैं। हालाँकि इप्टा को सिर्फ नाट्य संस्था कहना उसके कार्य-क्षेत्र को सीमित कर देना है क्योंकि अपने जन्म से ही इप्टा के कलाकारों ने विभिन्न प्रदेशों की लोकसंस्कृति को प्रतिबिम्बित करते लोकनृत्य, बैले, संगीत, जनगीत और नाटकों को सामाजिक समरसता और जन-जागरण के लिए अपनाया है। इसीलिए इप्टा एक आंदोलन है।
अव्यावसायिक रंगमंच करने वाली इप्टा का और दर्शकों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध होता है क्योंकि इसकी इकाइयाँ शहर के विकसित-अविकसित प्रेक्षागृह, सभागार, कस्बों के खुले मैदानों, सामुदायिक मंचों और गाँवों की चौपालों और शहरों के नुक्कड़ों पर अपने नाटकों का प्रदर्शन करती हैं। उनका प्रमुख उद्देश्य स्थान-विशेष के दर्शकों को नाटक दिखाकर जन-जागरण करना होता है। वहाँ उन्हें न तो कोई आकर्षक मानदेय दिया जाता है और न ही मीडिया उन्हें हाथोंहाथ लेने वाला होता है। अतः ऐसे स्थानों पर प्रदर्शन का स्तर एवं स्वरूप पूरीतरह दर्शकों पर निर्भर होता है। इन प्रदर्शनों में प्रदर्शन के पूर्व, प्रदर्शन के दौरान और प्रदर्शन के बाद भी अभिनेता और रंगकर्मी दर्शकों के सम्पर्क में होते हैं। अतः उनका ‘नाटक दिखाना’ और दर्शकों द्वारा ‘नाटक देखना’ एक ही सिक्के के दो पहलू हो जाते हैं। यहाँ समूचा वातावरण नाटकमय होता है। नगरों-महानगरों के ऊँचे दामों के टिकट खरीदकर आने वाले दर्शकों से इन स्थानों के दर्शकों का सरोकार एकदम भिन्न होता है। इसीलिए कई स्थानों पर ‘नाटक’ के पर्यायवाची के रूप में ‘इप्टा’ का प्रयोग किया जाता है। मसलन, इप्टा को देखना अच्छा लगता है, इप्टा करने जाना है, आदि।
इप्टा और जन-सरोकारों की चर्चा करते हुए मैं अपनी बात इप्टा रायगढ़ के रंग-अनुभवों के माध्यम से रखूँगी। हालाँकि कमोबेश इसीतरह का सरोकार इप्टा की अन्य इकाइयों में भी दिखाई देता है।
इप्टा रायगढ़ लगभग पैंतीस वर्षों से शहर में रंगकर्म कर रही है। इप्टा चूँकि एक विशेष प्रकार की सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ रंगकर्म करती है अतः दर्शकों के साथ उसकी अंतरक्रिया का स्तर भी कुछ भिन्न प्रकार का होता है। इप्टा के रंगकर्म का मूल उद्देश्य ही है अपने नाटकों के माध्यम से जन-चेतना जागृत करना अतः उनके लिए दर्शक बहुत महत्वपूर्ण होता है। इप्टा का रंगकर्मी जो कुछ भी करता है, दर्शक को केन्द्र में रखकर ही करता है। दर्शक का वैचारिक स्तर, उसकी रूचि-अरूचि, उसका आर्थिक-सामाजिक स्तर, उसकी दिनचर्या, स्थानीय सामाजिक रीति-रिवाज़ों में समाज के विभिन्न घटकों की संलग्नता आदि उसकी रूचि के विषय होते हैं। इप्टा के साथ प्रायः वे ही कलाकार जुड़ते हैं या दीर्घ काल तक टिके रहते हैं, ‘‘जिनके लिए नाटक खेलना एक गम्भीर और महत्वपूर्ण कार्य है, जो नाटक और उसके प्रदर्शन के माध्यम से अपने जीवन का अर्थ खोजते हैं, अपने आप को पहचानना चाहते हैं और बाकी जगत से अपने तथा अन्य संबंधों की असलियत समझना चाहते हैं। उनके लिए रंगकार्य सबसे बड़ी व सार्थक जिम्मेदारी का कार्य है, निरा तमाशा नहीं। ये लोग अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा करने और अपनी इस तलाश को सम्भव बनाने के लिए ही नहीं, दूसरों को उसमें सहभागी बनाने के लिए भी दर्शक को आवश्यक मानते हैं।’’ (नेमिचंद्र जैन – रंगदर्शन – पृ. 88)
जिस तरह एक अभिनेता के लिए नाटक करना एक दीर्घकालीन अभ्यास पर आधारित प्रक्रिया है, उसीतरह नाटक देखने के लिए भी दर्शक का संस्कारित होना आवश्यक है। दर्शक में यह संस्कार निरंतर नाटक देखने से धीरे-धीरे विकसित होता है। वैसे यह देखा गया है कि किसी शहर या कस्बे में कोई नाट्यसंस्था या कई नाट्यसंस्थाएँ अगर नियमित रंग-गतिविधियाँ करती रहती हैं तो दर्शकों में नाटक देखने की ‘तमीज़’ पैदा हो जाती है। अगर किसी शहर में नियमित नाट्य-मंचन किये जाते हैं, विभिन्न कथ्य एवं शैलियों को देखने-समझने का अवसर मिलता रहता है, तो उस स्थान का दर्शक ‘रसिक’ बनता चला जाता है। रायगढ़ इप्टा ने इसीतरह का ‘रसिक’ दर्शक वर्ग अपने शहर में विकसित किया है।
इप्टा रायगढ़ द्वारा पिछले पचीस वर्षों से वर्ष भर नियमित रंग-गतिविधियाँ की जाती हैं। इन विभिन्न रंग-गतिविधियों का दर्शक वर्ग भी पृथक-पृथक होता है। बच्चों की परीक्षाएँ समाप्त होते ही ग्रीष्मकालीन बाल नाट्य प्रशिक्षण शिविर का आयोजन होता है, जिसमें अलग-अलग स्थानों पर इप्टा के कलाकारों द्वारा लगभग सौ बाल कलाकारों को नाट्य-प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। यह प्रोडक्शन-बेस्ड शिविर होता है। 15-20 दिनों के प्रशिक्षण के उपरांत सभी शिविरों का समापन एक साथ एक जगह पर किया जाता है। बच्चों के इन नाट्य-प्रदर्शनों का दर्शक वर्ग एकदम अलग होता है। अधिकांश दर्शकों में शिविर में प्रतिभागी बच्चों के अभिभावक, उनके परिचित, पड़ोसी और रिश्तेदार होते हैं। इनमें बाल-दर्शकों की संख्या उल्लेखनीय होती है। यह दर्शक वर्ग बच्चों को मंच पर सहज गतिविधियाँ करते देखकर बहुत गदगद होता है। इन दर्शकों में अपने बच्चों को प्रोत्साहन देने का भाव सर्वोपरि होता है। अतः प्रदर्शन का स्तर, कलाकारों द्वारा मंच पर की गई गलतियाँ तथा आयोजकों की भूलों पर वे कतई ध्यान नहीं देते बल्कि नाट्य-प्रदर्शन के बाद बच्चों में आए हुए सकारात्मक परिवर्तन तथा बच्चों की प्रतिभा को निखारने और उन्हें मंच पर मौका दिये जाने के प्रति उनका प्रशंसा-भाव अत्यधिक मुखर होता है। इनके साथ कुछ नियमित दर्शक भी होते हैं, जो हरेक प्रकार के नाटक साल भर देखते हैं, वे रूक कर प्रस्तुत हुए नाटकों की समीक्षा करते हैं। इसतरह दोनों प्रकार के दर्शकों का फीडबैक इप्टा को तुरंत मिल जाता है।
इसके बाद आरम्भ होता है इप्टा के सदस्यों तथा नए कलाकारों के प्रशिक्षण संबंधी गतिविधि का सिलसिला। इसमें विविधता होती है। कई बार देश के प्रतिष्ठित निर्देशकों को आमंत्रित कर कार्यशाला आयोजित की जाती है, तो कभी इप्टा के निर्देशक ही कोई नई स्क्रिप्ट उठाते हैं तो कभी तीन-चार वरिष्ठ सदस्य छोटी-छोटी कहानियों का निर्देशन करते हैं। इनके मंचन के समय अपने समस्त दर्शक वर्ग को निमंत्रण पत्र द्वारा, समाचार पत्रों में प्रेस विज्ञप्ति द्वारा तथा आजकल सोशल मीडिया के माध्यम से आमंत्रित किया जाता है। रायगढ़ इप्टा के अधिकांश नाट्य-प्रदर्शन निःशुल्क होते हैं। टिकट खरीदकर नाटक देखने की परम्परा हमारे शहर में नहीं पनप पाई है। अतः इस समय नाटक देखने स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी, नियमित दर्शक तथा कुछ नये दर्शक भी आते हैं। बाहर से आने वाले नाट्य दल रायगढ़ के दर्शकों की प्रायः बहुत तारीफ करते हैं परंतु हम ही जानते हैं, चूँकि कई बार हम दर्शक-दीर्घा में बैठकर नाटक भी देखते हैं, कि यहाँ का दर्शक बड़ा खतरनाक है। जब उसे कोई नाटक पसंद नहीं आता, उबाऊ लगता है, वह चुपचाप उठकर बाहर चला जाता है। नाटक के अंत में कितने दर्शक बचे हैं और वे अभिनेताओं से मिलकर अपनी प्रतिक्रिया किसतरह व्यक्त करना चाहते हैं, इससे आसानी से समझ में आ जाता है कि दर्शकों ने नाटक को किस हद तक पसंद किया है। पिछले चार वर्षों से इस गतिविधि को लघु नाट्य समारोह का रूप दे दिया गया है। इसमें स्थानीय नाटक के साथ आसपास के शहरों से भी एक या दो नाट्य दलों को प्रदर्शन के लिए आमंत्रित कर लिया जाता है। इस गतिविधि में दर्शकों की संख्या कुछ कम होती है क्योंकि रायगढ़ में बहुत तेज़ गर्मी पड़ती है, जो रात में भी राहत नहीं देती। परंतु नियमित दर्शकों से नाट्य-प्रदर्शन और आयोजन पर तात्कालिक प्रतिक्रियाएँ मिल जाती हैं। इसमें बाहर से आए हुए नाटकों से स्थानीय नाटक की तुलना भी मुखर होकर दर्शक करते हैं। यह दर्शकों के कस्बाई संबंधों की अनौपचारिकता है कि वे नाट्य दल और उसके अभिनेताओं के साथ सीधा संवाद रखना चाहते हैं, अपने सुझाव देते हैं, पुराने किसी पसंदीदा नाटक और अभिनता को याद करते हैं। इसतरह दर्शक-अभिनेता-नाट्य दल के संबंध खुले और सहज हैं।
इप्टा की हरेक इकाई नाटकों या नृत्यों या गीतों का चयन करते वक्त यह ज़रूर देखती है कि उसमें जन-सरोकार कितना है, उसके माध्यम से जन-जागरण किसतरह किया जा सकता है। इप्टा रायगढ़ ने जब मराठी नाटककार प्रेमानंद गज्वी के नाटक ‘व्याकरण’ के हिंदी एवं छत्तीसगढ़ी रूपान्तरण पर काम शुरु किया, उस पूरी कालावधि में एनजीओ की भूमिका, बाँधों के निर्माण से होने वाली विस्थापन की समस्या, विकास के नाम पर किये जाने वाले निर्माण कार्यों का क्षेत्रीय आदिवासियों और गरीबों पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव, इस पर निरंतर चर्चा होती थी। पृथक् छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद धीरे-धीरे इस समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। जल, जंगल, ज़मीन को लेकर अनेक जन-आंदोलन खड़े हो रहे हैं। इन सभी पक्षों पर यह नाटक बेहतरीन तरीके से प्रकाश डालता है। ऐसे नाटक न केवल दर्शकों को देश की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक गतिविधियों से परिचित कराते हैं, बल्कि इकाई के सदस्यों को भी वैचारिक रूप से प्रशिक्षित करते हैं।
इप्टा रायगढ़ में जो भी नाटक तैयार किया जाता है, उसके लक्षित दर्शक वर्ग के अनुसार उसके अगले प्रदर्शनों की कोशिश आरम्भ हो जाती है। यह सच है कि जब नाट्य-प्रदर्शन विभिन्न स्थानों, परिस्थितियों और विभिन्न स्तरों के दर्शकों के सामने होते हैं, उनकी प्रस्तुति के स्तर भी भिन्न-भिन्न हो जाते हैं। दर्शकों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्राप्त होने वाली प्रतिक्रियाएँ प्रदर्शन की गति, स्वरूप और प्रभाव पर असर डालती है। इसलिए हरेक नाटक हरेक प्रकार के दर्शक के सामने करना उचित नहीं होता। उदाहरण के लिए, रोबोट्स की फैंटेसी पर आधारित कैरेल चैपेक का नाटक ‘आर.यू.आर.’ (जिसका रूपान्तरण ‘नेक्स्ट मिलेनियम’ शीर्षक से किया गया है) या फिर रेजिमेंटेशन के प्रयोग पर आधारित शाहिद अनवर का नाटक ‘बी थ्री’ है, इनके प्रदर्शन विभिन्न महाविद्यालयों, तकनीकी महाविद्यालयों या इसीतरह के बौद्धिक दर्शकों के बीच किये जाते हैं। रंगकर्मी इसके लिए सम्बन्धित लोगों या संस्थानों से सम्पर्क करते हैं ताकि नाटक की मूल कथा एवं उसके तथ्य सही दर्शकों में सम्प्रेषित हो सकें और उनके बीच एक विमर्श आरम्भ हो सके। इसीतरह लोकशैली में तैयार किये गये नाटक ‘गांधी चौक’, ‘बकासुर’, ‘गदहा के बरात’, ‘मोंगरा जियत हावे’ आदि के प्रदर्शनों के लिए विभिन्न मोहल्लों की चौपालें, गाँवों के आँगन या चौकों को खोजा जाता है। इप्टा रायगढ़ के सदस्यों में अनेक रंगकर्मी आसपास के गाँवों से भी जुड़े हुए हैं, उनके गाँवों में प्रदर्शन करना पहली प्राथमिकता में शामिल होता है। इसके दो फायदे हैं – पहला, जिस रंगकर्मी का गाँव होता है, वहाँ के दर्शकों को उस रंगकर्मी की रंग-गतिविधि के बारे में पता चलता है, जिससे उसका सम्मान गाँव में बढ़ जाता है और दूसरा, परिचित व्यक्तियों के कारण दर्शकों से अंतर्क्रिया करने में आसानी होती है। इन मंचनों से हमें ग्रामीण दर्शकों से बहुत कुछ सीखने का मौका भी मिलता है। गलती होने पर कहीं कोई लोकगीत पारम्परिक रूप में सिखाकर सुधरवाया जाता है, तो कहीं नाचा के जोकरों का अभिनय या उनकी गतिविधियों की विविधता के बारे में जानकारी दी जाती है, तो कहीं किसी लोकनृत्य में पदसंचालन या वाद्य का वादन कर हमारी गलतियों को ठीक करवाया जाता है। हम जिस गाँव में मंचन करते हैं, उनसे किसी प्रकार की आर्थिक माँग नहीं करते बल्कि हमारी एक मात्र माँग होती है, प्रदर्शन के बाद भोजन करवाने की। इस माँग के पीछे यह स्वार्थ छिपा होता है कि अनेक दर्शकों से भोजन के वक्त नाटक पर हम चर्चा कर सकें। वे लोग भी जिसका चरित्र उन्हें प्रेरित करता है, उसे अधिक पूछपरख के साथ भोजन कराते हैं।
इप्टा रायगढ़ ने अनेक म्युज़िकल नाटक किये हैं। जब इन नाटकों के प्रदर्शन अन्य शहरों में करने के लिए ट्रेन से यात्रा करनी होती है तब तो टीम को मानों हर जगह दर्शक ही दर्शक नज़र आते हैं। कबीर के व्यक्तित्व और विचारधारा पर आधारित नाटक ‘गगन घटा घहरानी’ के लगभग बारह-पंद्रह मंचन दिल्ली, पटना, भोपाल, सागर, इलाहाबाद, जबलपुर, उज्जैन जैसी जगहों पर हुए। रायगढ़ से कई बार सीधी ट्रेन नहीं मिलती है गंतव्य तक पहुँचने के लिए, गाड़ी बदलने के लिए किसी स्टेशन पर तीन-चार घंटे भी गुज़ारने पड़ते हैं। या तो वेटिंग रूम या फिर प्लेटफॉर्म पर ही समय का सदुपयोग किया जाता है नाटक के गानों की रिहर्सल से, धीरे-धीरे दर्शक जुटने लगते हैं और उनकी रूचि देखते हुए कभी नाटक का कोई दृश्य या फिर समूचा नाटक ही खेल दिया जाता है। स्थान के अनुसार उसमें इम्प्रोवाइज़ेशन अपनेआप हो जाता है। यहाँ अनेक दर्शक नाट्य दल का पता, मोबाइल नम्बर लेते हैं, उन्हें अपने शहर या गाँव में आमंत्रित करने के लिए कितना खर्च होगा, पूछताछ करते हैं। हमें अब पता चल चुका है कि इसतरह के दर्शक हमें अपने स्थानों पर तो नहीं बुला पाते पर उनके सफर के कुछ पलों को हमने अपनी रंग-गतिविधियों से आंदोलित कर दिया, हम इस संतोष से भर जाते हैं। ये दर्शक न तो हमारे लक्षित दर्शक होते हैं और न ही नियमित या प्रशिक्षित दर्शक; परंतु इनका नाटक के उन क्षणों में बँध जाना और उनके चेहरे पर दिखने वाली तन्मयता, आकस्मिक रूप से किसी अनूठी चीज़ को पा लेने की आभा उनके चेहरों पर देखकर हम रंगकर्मी अपने को धन्य मान लेते हैं।
यह सच है कि रंगमंच क्षणिक अनुभव पर केन्द्रित होता है। इस अनुभव को पूर्वाभ्यास-कक्ष में निर्धारित या अनुमानित नहीं किया जा सकता तथा एक ही अनुभव को प्रत्येक मंचन में दोहराया भी नहीं जा सकता। इसमें विविधता होती है, जो समय एवं स्थान के अनुसार बदलती रहती है। इसीलिए विभिन्न स्थानों के दर्शकों का किसी एक ही नाटक के विभिन्न प्रदर्शनों पर किसतरह का असर पड़ता है, यह भी विचारणीय है। दर्शकों के बैठने का स्थान, अभिनेताओं का अभिनय-स्थल, दर्शकों का शैक्षणिक-सामाजिक-आर्थिक स्तर तथा दर्शकों के नाटक या अन्य प्रदर्शनकारी कलाएँ देखने के संस्कारों पर, उनके द्वारा की गई अतःक्रियाओं पर एक ही नाटक के मंचन भिन्न-भिन्न प्रभाव छोड़ सकते हैं।
कबीर पर केन्द्रित नाटक ‘गगन घटा घहरानी’ के चार मंचन दिल्ली के चार स्थानों पर तीन दिनों में हुए। पहला मंचन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के ‘सम्मुख’ में दोपहर डेढ़ बजे हुआ। हमारी टीम ने पहली बार दोपहर को कोई मंचन किया था। फिर निर्देशक संजय उपाध्याय ने हमारा कस्बाई समय-बोध देखते हुए पहले ही हमें आगाह किया था कि यह मंचन दो कक्षाओं के बीच के समय में होगा अतः अगर हमने नाटक शुरु करने में देर की या नाटक झूला तो वहाँ के स्टूडेन्ट्स अपने समय पर उठकर चले जाएंगे। समय के इस दबाव में नाटक की प्रस्तुति बहुत कसी हुई और अच्छी हुई। वहीं दूसरा मंचन उसी दिन शाम को कनाट प्लेस के मुक्ताकाशी रंगमंच पर हुआ। इतना फैला हुआ मंच और बिखरे हुए दर्शकों को देखकर प्रस्तुति बिखरने ही वाली थी कि वरूण देवता की कृपा से वर्षा होने के कारण मंचन स्थगित हो गया। तीसरी प्रस्तुति सरदार वल्लभभाई पटेल स्कूल के विद्यार्थियों के लिए थी। वहाँ का भव्य मंच और अतिअनुशासित बच्चों के सामने नाटक उन्हें समझ में आ रहा है या नहीं, हम समझ नहीं पा रहे थे। परंतु जैसे ही नाटक समाप्त हुआ, बच्चों की तालियाँ रूकने का नाम नहीं ले रही थीं। हम हतप्रभ थे। उनके प्राचार्य ने मंच पर आकर बताया कि उनके स्कूल के बच्चों के लिए यह अनुशासन में शामिल है कि वे ताली बजाना या कोई प्रतिक्रिया तब तक व्यक्त नहीं कर सकते, जब तक उनके शिक्षक उन्हें इसकी अनुमति नहीं दे देते। परंतु ऐसा पहली बार हुआ कि नाटक समाप्त होने तक तो विद्यार्थियों ने सब्र किया पर बाद में वे अनुमति का इंतज़ार नहीं कर पाए और इसतरह तालियाँ बजा बैठे। नाट्य-प्रस्तुति ही ऐसी थी कि हम सब एनर्जी से भर गये है। चौथा प्रदर्शन आज़ाद भवन में था, जो सर्वसुविधा से सज्जित प्रेक्षागृह था। वहाँ का दर्शक दिल्ली का अभिजात्य दर्शक था, जिससे हमें कोई खास प्रतिक्रिया नहीं मिली। इसी नाटक का एक मंचन इलाहाबाद में उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र के प्रेक्षागृह में हुआ। लगभग एक हज़ार दर्शकों की क्षमता वाले उस प्रेक्षागृह में मात्र चालीस-पचास दर्शक आरम्भिक दो-तीन पंक्तियों में बिखरे-बिखरे बैठे थे। जो प्रस्तुति एक घंटा तीस मिनट में हो ही जाती थी, वह वहाँ एक घंटा पैंतालिस मिनट तक खींच गई। दर्शकों से खाली उस प्रेक्षागृह ने मानो हमारी सारी ऊर्जा ही चूस ली हो। ‘गगन घटा घहरानी’ के लगभग तीस प्रदर्शनों में हमारा सबसे निर्जीव प्रदर्शन था वह। इसके विपरीत, नाटक जिससमय 1997 में एक कार्यशाला में तैयार हुआ था, प्रेक्षागृह के अलावा अनेक मोहल्लों और गाँवों में भी उसके मंचन हुए थे। शहर के ही एक बाहरी मोहल्ले में जब मंचन हो रहा था, जहाँ के दर्शक प्रायः कम पढ़े-लिखे या हिंदी नाटकों से अल्पपरिचित थे, परंतु वे बैठे थे मंचन-स्थल से दो फीट की दूरी पर। हमारा और उनका लेवल समान था। हमें उनके चेहरे के भाव दिख रहे थे, उनकी टिप्पणियाँ सुनाई दे रही थीं। आरम्भ में हमें जो शंका थी कि वे हमारे नाट्यालेख को समझ पाएंगे या नहीं, पहले दस मिनट में ही वह संदेह निर्मूल साबित हुआ। हम तो कबीर पर सिर्फ नाटक कर रहे थे, कबीर गा रहे थे, पर उन्हें तो कबीर का समूचा जीवन-दर्शन पता था। इसलिए वे हमारे एक-एक दृश्य को ग्रहण करते हुए उसपर अपनी मूक या भावात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे। इससे हमें यह भी सीख मिली कि दर्शकों का बौद्धिक स्तर सिर्फ उनके शिक्षित और अशिक्षित होने से न मापा जाए, वह तो उसके जीवन-अनुभव और जीवन-दृष्टि पर टिका होता है। साथ ही इंटीमेट थियेटर में दर्शकों से सीधे ऊर्जा प्राप्त होती है।
कैरी अपटन ने भी लिखा है कि ‘‘जब कोई अभिनेता एक दर्शक के बाद दूसरे दर्शक को संबोधित करते हुए धीरे-धीरे पूरे दर्शक समुदाय से बातचीत करने लगता है तब अभिनेता-दर्शक के बीच एक तदाकारिता की स्थिति पैदा होती है। वे एकदूसरे की साँसों को महसूस करने लगते हैं।’’ इसी अनुभव को डेबर न्यूटन ने ‘मेटाकम्युनिकेशन परफॉर्मेटिव कम्पीटेन्स’ कहा है। इसे समझाते हुए वे लिखते हैं कि ‘‘दर्शक-अभिनेता संबंधों में एक प्रकार की पारस्परिकता होती है। बात कभी अभिनेता से दर्शक की ओर सम्प्रेषित होती है तो कभी दर्शक से अभिनेता की ओर। फर्क सिर्फ यह होता है कि अभिनेता कार्य-व्यापार को सम्पादित करता है और दर्शक कुछ दूरी पर बैठकर मंच पर घटित कार्य-व्यापार देखता है और उसकी अपने तरीके से व्याख्या करता है। इसतरह इस पारस्परिकता में भूमिकाओं का रूपान्तरण होता रहता है। इस प्रक्रिया को ‘मेटाकम्युनिकेशन परफॉर्मेटिव कम्पीटेन्स’ कहा जा सकता है।’’ दर्शक दीर्घा में बैठे दर्शकों के अलावा अन्य लोगों, जो नाट्य-प्रदर्शन या आयोजन से जुड़े होते हैं, उनसे भी हमें रोचक कमेन्ट्स मिलते हैं। रायगढ़ के प्रसिद्ध चक्रधर समारोह में ब्रेख्त लिखित ‘लुकुआ का शाहनामा’ के मंचन के उपरांत सेट्स समेटते वक्त हम सब उस दिन के प्रदर्शन पर चर्चा कर रहे थे। नगर निगम के पानी पिलाने वाले कर्मचारी ने हमारी बातचीत में हस्तक्षेप करते हुए कहा था, ‘‘इस नाटक में यह सही बताया है कि जो इस पृथ्वी पर अन्याय करता है, उसे भले ही यहाँ सज़ा नहीं मिल पाती, परंतु ऊपर जाकर तो जवाब देना ही पड़ता है।’’ पूरे नाटक की व्याख्या अपने तरीके से करते हुए उसने ‘काव्यगत न्याय’ या ‘पोएटिक जस्टिस’ को सहज रूप से खोज लिया था। इससे और आगे बढ़कर औरंगाबाद में ‘आर.यू.आर.’ (नेक्स्ट मिलेनियम) के मंचन के बाद हमारे टैक्सीवाले ने (जो यूनिवर्सिटी का कर्मचारी था) बहुत अभिभूत होकर कहा था कि ‘‘यह नाटक आज की युवा पीढ़ी को ज़रूर दिखाया जाना चाहिए। औद्योगीकरण और यांत्रिकीकरण का दुष्परिणाम क्या हो सकता है, उन्हें समझ में आना चाहिए।’’ हमारे ‘ऐसे’ दर्शकों के ‘ये कमेन्ट्स’ इप्टा के रंगकर्म को बहुत बल प्रदान करते हैं। यही तो जन-चेतना-जागृति है।
दर्शकों से अंतर्क्रिया का विविधवर्णी अनुभव होता है हमारा पिछले चौबीस वर्षों से नियमित होने वाला नाट्य समारोह। पाँच दिनों तक विभिन्न पाँच जगहों के पाँच मंचनों के साथ कुछ अन्य गतिविधियों को भी समेटने वाला राष्ट्रीय नाट्य समारोह शहर की बहुप्रतीक्षित और लोकप्रिय सांस्कृतिक गतिविधि है। इसके दर्शक सिर्फ दर्शक की भूमिका ही नहीं निभाते, वे हमारे फाइनेन्सर, प्रसारक-प्रचारक, सलाहकार तथा मददगार भी होते हैं। प्रत्येक वर्ष के अंतिम चार महीनों में दर्शकों के साथ अंतर्क्रिया चलती रहती है। दशहरे-दीपावली के अवसर पर हम अपने लगभग छै सौ दर्शकों को एक शुभकामना पत्र के साथ आगामी नाट्य समारोह की तारीखों तथा सम्मिलित होने वाली टीमों की जानकारी दे देते हैं तथा साथ ही यह अपील भी कि ‘‘इस वर्ष भी आपका आर्थिक सहयोग हमें मिलेगा।’’ दीपावली के बाद हम प्रतिदिन शाम को लगभग दो घंटे तक प्रतिदिन एक-एक मोहल्ला या गली-सड़क में जाकर रसीद देकर सहयोग राशि इकट्ठी करते हैं। अधिकांश लोग इंतज़ार करते रहते हैं कि इप्टा के कलाकार अब तक कैसे नहीं आए! इसमें नए-पुराने सभी सदस्य-रंगकर्मी निकलते हैं। तब तक हमारे आमंत्रण पत्र भी छप चुके होते हैं। उन्हें भी हम साथ-साथ बाँटते चलते हैं। अगर कोई सहयोग राशि देने में असमर्थता व्यक्त करता है या इंकार करता है, उसे भी हम आमंत्रण पत्र अवश्य देकर आमंत्रित करते हैं कि वे आकर ज़रूर नाटक देखें। यह समूची प्रक्रिया लगभग एक से डेढ़ महीने तक चलती है। इस जनसम्पर्क और अर्थ-संग्रह अभियान में दर्शकों से बातचीत भी होती है। कभी दर्शक टीम में नए कलाकारों को देखकर उत्साहित होते हैं तो कभी पिछले वर्ष हुए किसी नाटक की आलोचना करते हैं। अचानक कोई दर्शक शिकायत करने लगता है कि कई वर्षों से आपने ‘रंग विदूषक’ को नहीं बुलाया। रायगढ़ में अनेक उद्योगों के आरम्भ होने के बाद बिहार से अनेक लोग आकर बसे हैं। वे पटना इप्टा या संजय उपाध्याय का नाटक इस बार आ रहा है या नहीं, इसके प्रति जिज्ञासा व्यक्त करते हैं। इसतरह यह राष्ट्रीय नाट्य समारोह न केवल इप्टा का आयोजन रह जाता है बल्कि पूरे शहर के दर्शक इसमें इन्वॉल्व हो जाते हैं।
अनेक दुकानदार, होटल मालिक एवं छोटे-मोटे कामों में लगे दर्शक बड़े शौक से इप्टा के नाट्य समारोह के पोस्टर अपनी दुकानों में टांगते हैं और जिज्ञासु व्यक्ति को जानकारी भी देते हैं। ये दर्शक किसतरह रंगकर्मियों से प्यार करते हैं इसके कुछ उदाहरण देखिये। भोपाल के एक नाट्य दल का एक रंगकर्मी अपने बाल कटवाने एक नाई की दुकान पर गया। बातचीत में जब उस नाई को पता चला कि वह इप्टा के नाट्य समारोह में नाटक करने आया है तो उसने पैसा लेने से साफ इंकार कर दिया। इसीतरह चाय की दुकान पर चाय-नाश्ते का पैसा नहीं लिया जाता था। तीसरी घटना लखनऊ इप्टा के साथ घटी थी। आठ-दस साल पहले जब वे ‘रात’ और ‘माखनचोर’ – दो नाटक लेकर रायगढ़ आ रहे थे, कटनी में उनकी कनेक्टिंग ट्रेन छूट गई। वे बड़े परेशान हुए कि रात का सफर, और अब बिना रिज़र्वेशन के कैसे जा सकेंगे! कटनी में जिस टी.टी.ई. से उनकी बात हो रही थी, जब उसे पता चला कि वे लोग इप्टा रायगढ़ के नाट्य समारोह में जा रहे हैं, तो उसने बाकायदा उनकी मदद करते हुए उन्हें बर्थ दिलवाई। बाद में जब हमें उन्होंने यह बताया, हम भी आश्चर्यचकित रह गये। हालाँकि रायगढ़ के चार-पाँच टी.टी.ई. हमारे नियमित दर्शक रहे हैं और वे अलग-अलग रूट की गाड़ियों में ड्यूटी करते हैं, यह हमें पता था। इससे पहले भी जब बारह-पंद्रह वर्ष पहले कम दूरी के लिए रिज़र्वेशन का बहुत प्रचलन नहीं था, यही ‘दादा’ लोग हमारे एक बार बताने पर ही रायपुर, बिलासपुर, भिलाई के रंगकर्मी साथियों को ट्रेन में सामान रखने और बैठने की व्यवस्था भी कर दिया करते थे। कई वर्षों तक रेल्वे के कर्मचारी-दर्शकों की बदौलत किसी भी टीम के स्वागत के लिए ट्रेन स्टेशन पहुँचते ही एक रंगकर्मी आनेवाली टीम के स्वागत की उद्घोषणा रेलवे के उदघोषणा कार्यालय से कर देता था।
इप्टा के नाटकों के दर्शकों में जहाँ छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी रहे हैं, उसीतरह छत्तीसगढ़ के पूर्व डीजीपी श्री विश्वरंजन, पूर्व मुख्य सचिव श्री शरदचंद्र बेहार एवं एस.के मिश्र, रायगढ़ के पूर्व जिला न्यायाधीश श्री अनिल कुमार शुक्ला और अनेक बुद्धिजीवी स्वेच्छा से आते रहे हैं। वहीं दूसरी ओर ऑब्जर्वर के रूप में पटना से श्री हृषिकेश सुलभ, मुंबई से श्री सत्यदेव त्रिपाठी, इंदौर से श्री सत्यनारायण व्यास, जमशेदपुर से कामरेड शशिकुमार, घाटशिला से युवा कथाकार श्री शेखर मल्लिक और पुणे से मराठी/अंग्रेजी नाट्य समीक्षक डॉ. अजय जोशी ने आकर न केवल नाट्य समीक्षक की, बल्कि दर्शक की भूमिका भी निभाई और दर्शकों की भागीदारी का भी अवलोकन किया। तीसरी ओर सुदूर मोहल्लों और आसपास के गाँवों से भी कुछ दर्शक आते रहे हैं। चूँकि इसमें कोई टिकट नहीं होती इसलिए हरप्रकार के, हर वर्ग के दर्शक आते हैं और बिना किसी भेदभाव के ‘पहले आओ, पहले पाओ’ की तर्ज़ पर दर्शक दीर्घा में बैठकर नाटक देखते हैं। दो वर्ष पहले के नाट्य समारोह में एक ऐसा शारीरिक रूप से कमज़ोर व्यक्ति रोज नाटक देखने आता था, जिसे प्रेक्षागार की सीढ़ियाँ चढ़ने में भी दिक्कत होती थी। उसका नाटक और रंगकर्मियों के प्रति जुनून तब सबके सामने आया, जब रघुबीर यादव के सम्मान समारोह के दौरान उसने भी मंच पर आकर रघुबीर जी का सम्मान करने की इच्छा जताई। रघुबीर जी ने उसकी हालत देखते हुए स्वयं उसके पास पहुँचने की बात की परंतु उसने मना किया और इप्टा के रंगकर्मियों की सहायता से मंच पर चढ़कर उसने रघुबीर जी को पुष्पगुच्छ भेंट किया। ऐसे अद्भुत दर्शक को देखकर रघुबीर जी की आँखें बरसने लगी थीं।
प्रेक्षागार के बाहर आयोजकों द्वारा एक रजिस्टर रखा जाता है, जिसमें दर्शक अपनी प्रतिक्रिया भी लिखते हैं, जिन्हें नाट्य समारोह के बाद समीक्षा बैठक में सामूहिक रूप से पढ़ा जाता है। अनेक नियमित दर्शक मौखिक प्रतिक्रिया या सुझाव देकर चले जाते हैं। दर्शक किसी नाट्य संस्था से, उसके रंगकर्मियों से किसतरह जुड़ सकते हैं, इसका एक उदाहरण देना चाहती हूँ। सन् 2001 में टाउन हॉल प्रांगण में नाट्य समारोह का आयोजन होना था, अचानक नगर निगम ने उस प्रांगण का किराया 16,500 रूपये मांग लिया। इप्टा जैसी संस्था को, जो उस समय पूरीतरह जन सहयोग से ही नाट्य समारोह आयोजित करती थी, इतना किराया देना बहुत भारी पड़ रहा था परंतु आमंत्रण पत्र छप चुके थे, सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं और शहर में कोई दूसरी जगह उपलब्ध नहीं थी, जहाँ समारोह शिफ्ट किया जा सके। अतः इप्टा ने उससमय उक्त राशि जमा तो कर दी परंतु नगर निगम के इस रवैये के प्रति अपने प्रतिरोध को व्यक्त करते हुए बैनर लगाये – ‘‘जनता के सहयोग से एवं नगर निगम के असहयोग से आयोजित’’। एक रजिस्टर रखा गया, जिसमें इस घटना पर अनेक दर्शकों ने अपना आक्रोश दर्ज़ करते हुए नगर निगम के इस रवैये की भर्त्सना की। तत्कालीन स्थानीय विधायक ने दर्शकों की इस प्रतिक्रिया को देखकर मंच पर आकर 16,500 की राशि स्वयं की विधायक निधि से प्रदान करने की घोषणा की। इस घटना से हम रंगकर्मियों का यह विश्वास और भी दृढ़ हुआ कि अगर हम अच्छा रंगकर्म कर रहे हैं तो हमें दर्शकों का प्यार और विश्वास ज़रूर मिलेगा।
और एक मज़ेदार चीज़ को साझा करना चाहती हूँ। चूँकि दर्शक की सीट आरक्षित नहीं होती, अतः सामने या मनचाही जगह पर सीट रोकने की अनेक प्रकार की जुगत भिड़ाई जाती है। एक शिशु रोग विशेषज्ञ अपनी व्यस्तता के बावजूद रोज नाटक देखने आते हैं। वे अपने क्लिनिक से एक व्यक्ति को अपनी सीट रोकने के लिए आधा घंटा पहले ही भेज देते हैं। उनके आते ही उनका सहायक उनके लिए सीट खाली कर चला जाता है। इसीतरह पेंशनर संघ के पाँच दोस्तों में से कोई एक या दो जल्दी आकर बीच के दरवाज़े के पास की सीटें रोक लेते हैं। दरवाज़े के पास की इसलिए, क्योंकि उनका एक दोस्त डायबिटिक है। बच्चों एवं इप्टा के सदस्यों के लिए मंच के सामने गद्दे बिछाये जाते हैं ताकि वे ठीक से देख भी सकें और दर्शकों के लिए ज़्यादा सीटें बची रह सकें।
इसतरह कहा जा सकता है कि इप्टा अपने जन-सरोकारी रवैये के कारण अपने-अपने स्थानों के सामान्य लोगों को अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों से जोड़े रखती है। अब तक इप्टा में अधिकतर इकाइयाँ शहरी स्तर पर काम करती रही हैं, भले ही वे गाँवों में जाकर मंचन करें परंतु अब ग्रामीण इप्टा इकाइयों के गठन का प्रयास किया जा रहा है। रायपुर में साथी निसार अली ग्रामीण नाचा कलाकारों के साथ ग्रामीण इप्टा इकाई का बहुत सक्रियता के साथ संचालन कर रहे हैं। देश भर की इकाइयाँ भी इस दिशा में प्रयास कर रही हैं।